बिखरी विरासत

20-02-2019

बिखरी विरासत

निर्मल सिद्धू

(पंजाबी कविता)
मूल लेखक : सुखमिंदर "रामपुरी"
अनुवाद : निर्मल सिद्धू

 

घर में रस्ता कोई न देखे कैसे घर को जाऊँ,
प्यार सिमट के चिता हुआ, अब क्या पता बताऊँ

दिन रहते तक सूने रस्ते, जाऊँ और मुड़ आऊँ,
धरती के मैं चक्कर काटूँ, रात और दिन बन जाऊँ।
जलते घरों को बारी-बारी नित उठ के गले लगाऊँ।
घर में रस्ता….

अम्बर से और कुछ न टूटे, तारे ही क्यों टूटें,
ख़ुद को आप बचाते क्यों न, अम्बर से ये पूछें।
टूटे तारे झोली में भर, संग उनके सो जाऊँ।
घर में रस्ता….

मेले पलकों पर हैं सजते, ज़ार-ज़ार सब रोयें,
धरती पुत्र नशे में डूबे, छुप छुप ग़म को ढोयें।
ऐसे सारे सपने लेकर मैं कैसे घर को जाऊँ।
घर में रस्ता….

करूँ गुमां किस बात का मैं, ओ बयार तू ही बतला,
मानव ने तो पाले चाँद औ’ सूरज, अपनी गोद खिला,
अपनी विरासत आज न महके, मुझको है ये गिला
व्यर्थ हुईं सब मेरी दुआएँ, किसको यह बतलाऊँ।
घर में रस्ता….

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