बस यही कहना था

01-05-2020

बस यही कहना था

अनीता श्रीवास्तव (अंक: 155, मई प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

आधी बैंच पर बैठना या बैठा लेना
चाय-चाय कह कर मुँह मीठा करना
पूछना यूँ ही उन सवालों को
जिनके जवाब पता होते हैं
साथ देना था या माँगना?
यही कहना था।


बड़े-बड़े रजिस्टरों पर औंधे रहना
जोड़ना, फिर जोड़ का ग़लत होना
लगा कई बार कि मदद कर दूँ
मगर मेरा भी अपना एक रजिस्टर था
बस यही कहना था।


मेज़ पर बेतरतीब रक्खी कॉपियाँ
किताबें, रजिस्टर और मोबाइल में
कुछ पढ़ते तुम
नमस्ते के प्रत्युत्तर में सिर हिलाते
मौन में कोई साधु हो जैसे
बस यही कहना था।


चाय के कप से उठती भाप के उस पार
तुम्हारे चेहरे पर तुम्हारा ही अक्स
दो घूँट में ख़ाली होता कप
थकान कितनी ज़्यादा थी
चाय कितनी कम
बस यही कहना था।


टिफ़िन बाँट कर खाना
और मना करने पर जबरन खिलाना
सखी तुमसे सीखा है खाने में प्यार मिलाना
वो समोसे की पार्टियाँ चटनी में सबके हिस्से 
संग लेके जाएँगे हम अपने-अपने हिस्से
बस यही कहना था।


उम्र खा जाती है 
एहसासों को पका -पका कर
हाँ...
फिर भी...
बचे रहते हैं कुछ अधपके अधकच्चे
बच्चे की तुतलाहट जैसे
आधे तो समझ में आते ही हैं
बस यही कहना था।


पानी की लहर सी 
गुज़र जाती पाँव को छू कर
पुकारने पर जब तुम मुड़ते जी कह कर
ध्यान फिर देर तक गीले पैरों में लगा रहता
बस यही कहना था।


तुम्हारा यहाँ नहीं होना 
या मेरा और कहीं होना
ख़ास बात नहीं
ख़ास हैं इतनी सारी
बेहद महीन बुनावट वाली
रुमाल सी सौगातें
सुना है रुमाल देने से
दोस्त बिछड़ जाते हैं
बस यही कहना था।

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