वीसा की फ़ोटो
अमिताभ वर्मा"यह वाले सहजन बड़े मुलायम हैं!" मैंने एक सहजन चबाते हुए कहा। आम तौर पर मैं सहजन नहीं खाता। उनसे रस कम निकलता है, भूसा ज़्यादा। महक भी ठीक नहीं होती उनकी। लेकिन पड़ोसी के बाग़ीचे के इस सहजन में दुर्गन्ध नहीं थी। और कोमल तो इतना था कि भूसा नाममात्र का भी नहीं, पूरा-का-पूरा निगल जाओ। इसीलिये मैंने चार-पाँच टुकड़े अन्त में खाने के लिये बचा कर रखे थे। सबसे ज़्यादा स्वादिष्ट चीज़ अन्त में खाने से मुँह का स्वाद भी बना रहता है और मन भी प्रसन्न रहता है। इस तरह ग्रहण किया हुआ भोजन शरीर में बेहतर लगता है।
"बढ़िया हैं!" मैंने एक और सहजन मुँह में डालते हुए मन-ही-मन दाद दी।
लेकिन तभी ख़याल आया कि दुर्गा तो मेरी बात का जवाब ही नहीं दे रही, हाँ-हूँ, ना-नुकुर, कुछ भी नहीं कर रही। मानो दम साधे बैठी है! सुना ही नहीं होगा उसने। साठ की होने में अभी एक बरस बाक़ी है उसे, लेकिन आधी बहरी तो अभी ही हो चुकी है। पैंसठ की होते-होते वज्र वधिर हो जाएगी। हरि इच्छा!
मैंने झल्ला कर उसकी तरफ़ देखा। वह टेबिल पर थी ही नहीं। उसकी थाली अधखायी पड़ी थी। कहाँ चली गयी? और, वह चुपचाप उठ कर ऐसे कैसे चली गयी कि मुझे पता ही नहीं चला? मुझे अजीब-सा लगा।
सहजन के दो टुकड़े थाली में अब भी बच रहे थे। मैंने एक टुकड़ा मुँह में डालते हुए इधर-उधर देखने की चेष्टा की। दरअसल, मैं नाक की सीध में तो देख पाता हूँ, लेकिन दायें-बायें देखने में ख़ासा प्रयत्न करना पड़ता है मुझे। न तो गर्दन पूरी तरह मुड़ पाती है, और न ही पीठ। रास्ते में कोई पीठ-पीछे से पुकारे, तो जब तक मेरी दृष्टि पीछे पहुँचती है, पुकारनेवाला अक्सर मेरी बगल में आ चुका होता है।
दुर्गा कमरे के दरवाज़े पर खड़ी थी फ़ोन लिये। इस आदत से मुझे सख़्त नफ़रत है। खाना खाते समय पूरा ध्यान खाने पर ही देना चाहिये। तभी वह शरीर में लगता है। दस मिनट फ़ोन पर बात नहीं करने से भूचाल नहीं आ जाता। मैंने यह बात दुर्गा से कई बार कही है, पर औरत ज़ात! बात न करे तो ज़िन्दा कैसे रहे? मैंने उसे हिक़ारत से देखा। उसने मुझे देखते ही ढीढ की तरह पास आने का संकेत किया। जले पर नमक छिड़कने की कला सीखनी हो, तो दुर्गा से अच्छी शिक्षिका शायद ही कोई मिले।
दुर्गा ने मेरा हाव-भाव ताड़ लिया। मोबाइल फ़ोन को हाथ से ढँकते हुए बोली, "जल्दी आओ, फ़ोन है।" मैं अन्धा नहीं हूँ; देख सकता हूँ कि फ़ोन है। और, फ़ोन के मोबाइल होने का क्या फ़ायदा जब बात करने के लिए हमें ख़ुद ही उठ कर जाना पड़े! मैंने वितृष्णा से गर्दन थाली की ओर वापस घुमा ली, जिसमें पड़ा सहजन का अंतिम टुकड़ा मुझे थाली पर उसके एकछत्र राज्य को समाप्त करने की चुनौती दे रहा था।
दुर्गा ने लपक कर मेरा कंधा झकझोरा, और कुछ बोली। एक तो उसका उच्चारण वैसे ही दोषपूर्ण है, दूसरे अभी वह उत्साहित भी थी, और तीसरे, उसके बायें कल्ले में अधचबाया कौर अब भी दबा पड़ा था। मुझे बस "भाई" शब्द सुनाई पड़ा। मायके की बात पर हर औरत विशेष संवेदनषील हो ही जाती है, और यह तो उसके भाई की बात थी। "सारी ख़ुदाई एक तरफ़, जोरू का भाई एक तरफ़!" मैंने झुंझलाहट दबाते हुए सहजन का आख़िरी टुकड़ा मुँह में डाल लिया।
"सुन रहे हो, दुबई से कॉल है!" दुर्गा ने मेरे कान में चीत्कार किया।
मैं अकबका गया। जल्दी में मुँह से इतना ही निकल सका, "कहाँ?"
"वहाँ, रूम में, मोबाइल पर" - दुर्गा ने ऊँची आवाज़ में, हाथ से इशारा करते हुए कहा। जैसे मैं बहरा हूँ! हुँह! मैं क्लास में छात्रों को ऊँची आवाज़ में बोलने नहीं देता था। प्रिंसिपल साहब तक को मुझसे अदब से बात करनी पड़ती थी। पर दुर्गा एम. ए. पास होने और चालीस वर्षों से मेरी धर्मपत्नी होने के बावजूद गँवारों की तरह चिल्लाये बिना बात नहीं कर सकती।
"अब उठोगे भी?" दुर्गा ने टोका।
"फ़ोन यहीं क्यों नहीं ले आतीं?" मैंने आग्रह किया।
"अरे सिग्नल नहीं आता यहाँ, चलो जल्दी करो, बन्नू होल्ड किये हुए है!"
बन्नू मतलब भानु, हमारा बेटा। अच्छा-ख़ासा नाम है उसका - भानु। लेकिन भला आधुनिक लोग "भानु" कैसे कहें। शुद्ध हिन्दी बोलते हुए गँवार नहीं दिखेंगे? "योग" को "योगा" और "राम" को "रामा" पुकारने वाली इस पीढ़ी ने "भानु" को "भानु" कभी पुकारा ही नहीं। बचपन में दोस्त उसे "भानू" कहते थे, और बड़ा होते-होते वह "बन्नू" बन गया। सुना है कि विदेशी सहकर्मी उसे "बेन्स" पुकारते हैं। भैंस नहीं पुकारते, यही बड़ी बात है। सोचते-सोचते मैंने फ़ोन मुँह से लगाया, "भानु बेटा, कैसे हो?"
"ठीक हूँ, अपनी बताइये!" भानु ज़्यादा बात नहीं करता। इन चार शब्दों से कम में काम चलता, तो वह चला लेता।
"हम सब ठीक-ठाक हैं, बेटा!" मैंने सहजन को जल्दी-जल्दी चबा कर निगलने का प्रयत्न किया।
"अच्छा पापा, मैं सोच रहा था कि आपलोग यहाँ आ सकते हैं?" भानु के स्वर में आशा की झलक थी।
"यहाँ, मतलब, दुबई?" मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया। पुष्टीकरण की जिज्ञासा मेरी सहज प्रवृत्ति है। महत्त्वपूर्ण अंश पढ़ाने के बाद मैं छात्रों से अवश्य पूछता था, "समझ गये?" जब तक वे ज़ोर से "यस सर" नहीं कह देते थे, मैं अगला अंश पढ़ाता ही नहीं था।
"हूँ।" भानु के स्वर से आशा का पुट विलीन हो गया था। उसे अपनी बात दोहराने में चिढ़ होती है। मैं सम्भल गया। वैसे ही उससे दो-तीन महीनों में एक ही बार बात होती है, वह भी मात्र दस-पन्द्रह शब्दों की, उसे क्यों नीरस बनाऊँ? उससे बात होने के बाद हर बार मैं दुर्गा से खोद-खोद कर पूछा करता हूँ, "और क्या कह रहा था? पूरी बात बताओ न!" और दुर्गा उन्हीं बातों को दोबारा-तिबारा बता दिया करती है। बचपन में भानु की बातें समाप्त ही नहीं हुआ करती थीं। लगता है, उसने बचपन में ही इतनी बातें कर लीं कि बड़ा हो कर कहने को कुछ बचा ही नहीं।
मैंने स्वयं को अतीत से वर्तमान में जबरन ढकेला - "हाँ बेटा, आ सकते हैं। कोई ख़ास बात है क्या?"
कहने को मैंने कह तो दिया, लेकिन कहीं आनेजाने में मुझे भय-सा लगता है। हज़ार तरह की बातें हो सकती हैं। रेलगाड़ी की दुर्घटना हो सकती है, सामान चोरी हो सकता है, और कुछ नहीं, तो टिकट ही गुम सकता है।
दुबई जाने की बात सुन कर दुर्गा उत्साहित हो गयी। उसने हाथ नचा कर मुझे "कब" या "क्यों" का संकेत दिया।
"नहीं, वैसे ही। आपलोगों से मिलने का मन कर रहा है। आठ महीने हो गये इधर अकेले रहते।"
भानु की बात सुनकर मेरी आँखें छलछला गयीं। हृदय छः वर्ष का हो या साठ वर्ष का, स्नेह पा कर द्रवित हो ही जाता है। दुर्गा भाँप गयी, उसने मेरी पीठ थपथपायी।
"हम आ जायेंगे, बेटा, आ जायेंगे!" मैंने कहा।
"ठीक है, पापा! मैं टिकट के बारे में पता करके फिर बात करूँगा। बाय!" आवाज़ आयी। फ़ोन कट गया।
दुर्गा को फ़ोन अचानक कटने का पता न चले, इसलिये मैं इस तरह बोलता रहा जैसे बातचीत जारी हो, "ठीक है, बेटा! अपना ख़याल रखना। ... ख़ुश रहो बेटा! ... बाय!"
दुर्गा की और मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न था। हम भानु से मिलेंगे! बड़ा होनहार है हमारा बेटा। अभी सत्ताइस साल का भी नहीं हुआ, और इतनी बड़ी एकाउंटिंग कम्पनी में काम कर रहा है। इस उम्र के छोकरों में कितनी बुराइयाँ होती हैं, पर भानु को कोई अवगुण छू तक नहीं गया है। अर्जुन की भाँति एकाग्रचित्त लक्ष्यसन्धान में लगा रहता है। उसे याद कर मेरा हृदय पुनः द्रवित हो गया।
उस रात हम साढ़े नौ बजे सो जाने की बजाय देर तक बातें करते रहे। दुर्गा समझ रही थी कि भानु को अवश्य ही कोई लड़की भा गयी होगी, और वह चाहता होगा कि हम उसके चुनाव पर अपनी पसन्द की मुहर लगा दें। बात यहीं समाप्त नहीं होती थी। लड़की देखते समय दुर्गा को अच्छी साड़ी पहननी होगी। उसकी चप्पल पुरानी हो गयी है, और चश्मे के बायें लेन्स के कोने में दरार है - वह दोनों भी नये लेने होंगे। और, हो सकता है कि लड़की पसन्द आने पर वहीं कोई छोटी-मोटी रस्म अदा कर शादी तय करनी पड़े। वैसे अवसर के लिए एकाध जोड़ी अच्छे कपड़े और होने चाहिएँ।
अटकल लगाना मुझे पसन्द नहीं, पर दुर्गा की बात में दम था। अगर भानु ने कोई लड़की पसन्द न भी की हो, तब भी हमारे दुबई प्रवास के दौरान कोई लड़की उसे या हमें पसन्द नहीं आ जायेगी, इसकी क्या गारन्टी थी? तैयार हो कर जाना ही ठीक होगा।
पर मेरी चिन्ता कुछ और थी। चार हवाई टिकटों का ख़र्च, वहाँ रहने का ख़र्च - भानु बेचारे पर बहुत बोझ तो नहीं पड़ जायेगा? अगर सिर्फ़ दुर्गा जाये, तो ख़र्च आधा हो जायेगा। लेकिन दुर्गा को मेरी चिन्ता, चिन्ता कम और पागलपन ज़्यादा मालूम हुई। उसने चेतावनी दी कि बन्नू से बात करते समय ऐसी बेवकूफ़ियों का ज़िक्र भी न किया जाये, वर्ना उसके स्वाभिमान को ठेस लगेगी और वह भड़क उठेगा।
दुबई! अनजानी जगह। विदेश। पता नहीं कैसे जाना होगा। मैं भारत में ही दो-चार राज्यों के अतिरिक्त कहीं नहीं गया हूँ, इतनी लम्बी छलाँग भला कैसे लगा पाऊँगा! मेरा मन विभिन्न समस्याओं से जूझ रहा था। दुर्गा की ओर देखा, तो वह चैन से सो चुकी थी। कोई चिन्ता ही नहीं, बेफ़िक़्र! जैसे हर महीने दुबई आती-जाती हो। अरे, आने-जाने की चिन्ता न भी हो तो यह तो सोच ले कि बिना जाँच-पड़ताल किये, भानु के सिर्फ़ एक इषारे पर, लड़की पसन्द कर लेना क्या ठीक होगा? आख़िर भानु बच्चा ही तो है। लेकिन दुर्गा इतनी दूर की बात सोचती ही नहीं। परिणामस्वरूप, उसके हिस्से की चिन्ता भी मुझे ही करनी पड़ती है।
सुबह-सुबह कई विचार आये। सुबह का समय होता ही है रचनात्मक, फलदायक। विचारों को मन में बेतरतीब सँजोने की बजाय उन्हें काग़ज़ पर सिलसिलेवार तरीक़े से लिखना बेहतर होता है। मैंने काग़ज़ पर समस्या का शीर्षक लिखा - "दुबई यात्रा"। फिर भूल का एहसास हुआ। दुबई यात्रा मुख्य समस्या है ही नहीं। दुबई यात्रा समस्या का सिर्फ़ एक अहम पहलू है। इसके अन्तर्गत टिकट, टैक्सी, सीट, यात्रा के दौरान भोजन, वगैरह आयेंगे। यात्रा का प्रयोजन समस्या का दूसरा पहलू हुआ। यदि भानु की पसंद की हुई लड़की को देख कर हामी भरनी है, तो तैयारी उसी तरह करनी होगी; अगर भानु का अकेलापन दूर करना है, तो तैयारी दूसरी तरह की होगी। समस्या का तीसरा पहलू होगा दुबई प्रवास के दौरान घर की देखभाल। मैंने पुराना काग़ज़ फेंका और काग़ज़ों का एक पुलिंदा ही उठा लिया। पहले काग़ज़ पर मुख्य समस्या और उसके दस विभिन्न अहम पहलू लिखे। अब हर एक अहम पहलू के लिए एक-एक काग़ज़ ले लिया। यह कार्यकलाप चल ही रहा था कि दुर्गा की नींद ख़ुल गयी।
"सुबह-सुबह खटर-पटर क्या मचाये हुए हो?" उसने उनींदी आँखों से कहा।
उसे सच बताने से कोई लाभ नहीं होगा। वह मेरी हँसी उड़ाएगी।
"एक पेपर लिख रहा हूँ।" मैं अनमना-सा उत्तर देता हूँ। उसे पता है कि समय से पहले ही अवकाश ग्रहण कर लेने के बावजूद मैं छात्र-छात्राओं के पेपर ठीक करता रहता हूँ, यहाँ तक कि कभी-कभी तो पूरा पेपर ही लिख डालता हूँ। वह इससे मना भी नहीं करती। उसे बड़ी प्रसन्नता होती है जब छात्र-छात्राएँ हमारे घर से ख़ुशी-ख़ुशी लौटती हैं। कभी-कभी तो छात्र सिर्फ़ आभार प्रकट करने ही आ जाते हैं, भले ही उन्हें बीस वर्ष पहले ही क्यों न पढ़ाया हो। वे जब मेरी तारीफ़ के पुल बाँधते हैं और दुर्गा मेरी ओर गर्व से देखती है, तब मन में कहीं एक कसक-सी भी उठती है - "काश! भानु भी कभी समय निकाल पाता मुझसे बात करने को।"
ख़ैर!
विचार काग़ज़ पर लिख देने से बहुत लाभ हुआ है। दिन भर जैसे-जैसे और विचार आते जा रहे हैं, मैं उन्हें काग़ज़ पर उतारता जा रहा हूँ। समस्या के अहम पहलुओं की संख्या दस से बढ़ कर चौदह हो गयी है, और दो अहम पहलुओं का विश्लेषण दो-दो पन्नों में विस्तृत हो गया है।
शाम होने से पहले मैंने मोबाइल फ़ोन की पड़ताल की। रिंग टोन पूरी ऊँची होनी चाहिये। ऐसा न हो कि किचन के शोर में दुर्गा को रिंग सुनायी ही न पड़े। बैटरी भी पूरी तरह चार्ज्ड होनी चाहिये। भानु का फ़ोन आने के आधा घंटा पहले ही अगर दुर्गा की मामी आधा घंटा फ़ोन बझा लें, तो भी फ़ोन में दमख़म बचा रहना चाहिए।
खाना खाने से पहले चुपके से कमरे में झाँक कर आश्वस्त हो गया, फ़ोन कहीं दबा-फँसा नहीं पड़ा, बिल्कुल सामने रखा है। ध्यान आज थाली पर कम, फ़ोन पर अधिक लगा रहा। पर फ़ोन नहीं आया। हो सकता है, दिन में ही किसी समय आ गया हो, और दुर्गा मुझे बताना भूल गयी हो। उससे पूछा तो बोली, "वाह! फ़ोन आयेगा तो मैं बताऊँगी नहीं? आ जायेगा। उतावले क्यों होते हो? पता कर रहा होगा बेचारा! तुम खाना खाओ।"
रात में मैं इसी उधेड़-बुन में देर तक जागा रहा कि भानु ने आख़िर फ़ोन किया क्यों नहीं। अगर वह समझता है कि हम एक ही दिन की सूचना पर जा सकेंगे, तो यह उसकी भूल है। दुबई जाना इतना आसान नहीं है - समस्या का विवरण और विश्लेषण सत्रह पृष्ठ पार कर चुका है। दुर्गा की ओर जब भी देखा, वह मुँह ख़ोल खर्राटे भरती दिखी। बड़ी खीझ हुई। पता नहीं अपनी ज़िम्मेदारी कब समझेगी वह!
दो दिन और गुज़र गये। भानु का फ़ोन नहीं आया। वह हफ़्ते-हफ़्ते फ़ोन करता है; ज़रूर इस बार भी ऐसा ही करेगा। अब उसका फ़ोन तीन-चार दिन बाद ही आयेगा, मैंने सोचा। संयोगवश आज भी सहजन ही पके थे, और मैंने भोजन प्रारम्भ ही किया था कि भानु का फ़ोन आ गया।
"नमस्ते पापा! मैंने दो महीने बाद का टिकट ले लिया है।" वह चहक रहा था। इतना ख़ुश वह तब हुआ करता था जब उसके लिये मनचाहा खिलौना आता था। मैंने मन-ही-मन ईश्वर से उसे सदा प्रसन्न रखने की प्रार्थना की। यात्रा से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान के लिए दो महीने का समय हाथ में है, यह सोच कर तसल्ली भी हुई।
"बहुत अच्छा। मैं सोच ही रहा था कि इतना समय तो चाहिये ही होगा तैयारी करने में। ठीक है।" मैंने उल्लसित स्वर में उत्तर दिया।
"हूँ। पासपोर्ट देख लीजियेगा। एक साल की वैलिडिटी हो तो ठीक है।"
यह तो मैंने सोचा ही नहीं था! कई साल पहले, जब से दुर्गा का और मेरा पासपोर्ट बना, कहीं पड़ा है अनछुआ। पासपोर्ट बनवाने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। वह तो एक छात्रा ने ज़बर्दस्ती बनवा दिया। कहती थी कि मुझे पेपर प्रेज़ेन्ट करने विदेश से निमन्त्रण मँगवाना चाहिये। पास करने के बाद वह विदेश चली भी गयी। एक-आध बार उसने इस विषय में ध्यान भी दिलाया, पर मैं ही आलस कर गया।
मैं कुछ जवाब दूँ उससे पहले भानु बोल पड़ा, "पासपोर्ट डीटेल्स और रीसेन्ट फ़ोटो भेज दीजियेगा वीसा बनवाने के लिए।"
तो वीसा का एक झमेला और बाक़ी ही है। जैसे पासपोर्ट हमारी जान साँसत में डालने के लिए काफ़ी नहीं था! इसीलिए मैं कहीं आने-जाने के झंझट से कतराता हूँ।
मैं कुछ बोलूँ उससे पहले दुर्गा ने फ़ोन झपट लिया। मैंने उसकी बातचीत पर ध्यान नहीं दिया। मेरे दिमाग़ में पासपोर्ट और वीसा अंगद के पाँव की तरह जम गये थे। मैं पासपोर्ट ढूँढ़ने में लग गया। मेरे विचार में उसे कपड़े की आलमारी के नीचेवाले षेल्फ़ में होना चाहिये था, पर वह शेल्फ़ तो ड्राइक्लीनर के पैकेट्स से ठुँसा पड़ा था। पैकेट्स के नीचे हाथ घुसाना मुश्किल था। मेरी दुर्चेष्टा के परिणामस्वरूप एक पैकेट फट गया और दूसरे के चीथड़े भी बाहर लटकने लगे। अंत में मैंने सभी पैकेट बाहर निकाल कर इत्मीनान से शेल्फ़ का मुआयना करने का निश्चय किया। अभी तीन-चार पैकेट ही बाहर निकाले होंगे कि दुर्गा आ धमकी।
"हाय, हाय, यह क्या कर रहे हो? सारे ड्राइक्लीन्ड कपड़े बर्बाद कर दिये!" वह ऐसे चीखी जैसे बहुत बड़ी विपत्ति सामने आ गयी हो। मुझे अतिशयोक्ति से चिढ़ है। दो पैकेट फट जाने और सारे कपड़े बर्बाद हो जाने में ज़मीन-आसमान का फ़र्क होता है।
"कर क्या रहे हो तुम?" वह ग़ुस्से में बोली।
मैं भी झल्ला गया। मैंने कहा, "पासपोर्ट खोज रहा हूँ। क्या मैं अपने घर में अपना पासपोर्ट नहीं खोज सकता? क्या उसके लिए तुम्हारी इजाज़त लेनी होगी?"
दुर्गा इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबरा गयी। जल्दी में उसके मुँह से निकला, "पासपोर्ट क्यों?"
"क्योंकि विदेश जाने के लिए साथ में पासपोर्ट होना ज़रूरी होता है!" मेरा स्वर ख़ून साफ़ करनेवाली आयुर्वेदिक औषधियों से भी कड़वा था।
"अच्छा! हटो यहाँ से। पासपोर्ट यहाँ थोड़े ही है।" कह कर वह पैकेट वापस सहेजने लगी।
मैं थोड़ी देर इंतज़ार करता रहा कि दुर्गा बतायेगी कि पासपोर्ट कहाँ रखे हैं, पर वह चुपचाप आलमारी ठीक करती रही। खीझ कर मैंने पूछा, "पासपोर्ट कहाँ छुपाये हैं, आज ही पता चल जायेगा?"
"छुपाये नहीं हैं। ऐसे क्यों बोलते हो? सम्भाल कर रखे हैं स्टील के ट्रंक में।"
"स्टील के तो चार ट्रंक हैं! किसवाले में?"
"तुम जाने दो। मैं अभी ढूँढ़ कर निकाल दूँगी।"
दुर्गा के आत्मविश्वास से मेरा ढाँढ़स बँधा। उसने आलमारी बन्द की। एक दूसरी आलमारी से चाभियों के गुच्छे निकाले, और पूजागृह की ओर चल दी।
कहते हैं कि घर में, और विशेष तौर पर पूजागृह में, कहीं भी कबाड़ नहीं रखना चाहिये। ऐसा करना वास्तु-विरुद्ध है। पर मेरे विचार में कबाड़ संज्ञा नहीं, विशेषण है; और विशेषण व्यक्तिविशेष की मनःस्थिति का मुहताज होता है। जिस पेपर को मैं पैंतीस वर्ष पहले बेकार समझता था, उसे अब ठीक-ठाक मानता हूँ; जिस व्यक्ति को मैं बीस साल पहले अपना परम हितैषी मानता था, उससे अब बात करने से भी कतराता हूँ। इसी तरह, कल का कबाड़ आज उपयोगी साबित हो सकता है और आज काम में आनेवाली आवश्यक वस्तु कल कबाड़ की श्रेणी में सम्मिलित हो सकती है।
तो, हमारे पूजागृह में कबाड़ तो नहीं था, पर रोज़मर्रा के काम में न आने वाली हर चीज़ अमूमन पूजागृह को ही नज़र कर दी जाती थी। अरसे बाद आज पूजागृह में घुसा तो हैरान रह गया। फ़र्श-तो-फ़र्श, दीवार पर भी ख़ाली जगह कम ही बची थी। कहीं पुलिंदे लटके थे तो कहीं बेंत की टोकरियाँ शोभा बढ़ा रही थीं। एक कोने में पेडेस्टल फ़ैन रखा था, दूसरे में बड़े-बड़े बर्तन पड़े थे। स्टील के छः संदूक भी वहीं, दो कतारों में, एक-के-ऊपर-एक धरे थे।
"स्टील के तो चार ट्रंक हैं!" दुर्गा ने मेरी ओर देखते हुए व्यंग्यपूर्वक कहा। थोड़ी देर पहले चार ट्रंकों की बात करते समय मैं बाबूजी के घर से लाए दो ट्रंक गिनना भूल गया था।
मैं चुपचाप खड़ा रहा। दुर्गा एक-एक संदूक को लक्ष्य कर स्वगत् बोलने लगी - "इसमें गर्म कपड़े हैं। इसमें चादर-गिलाफ़ वगैरह हैं। इसमें क़ीमती साड़ियाँ और तुम्हारा सूट है। इसमें गहने, स्कूल-कॉलेज के सर्टिफ़िकेट, ज़मीन का काग़ज़, तुम्हारी सैलरी स्लिप और इन्कम टैक्स रिटर्न, वगैरह हैं।"
मैंने उत्साह से भर कर कहा, "तो पासपोर्ट भी इसी में होना चाहिये।"
"नहीं!" दुर्गा का संक्षिप्त उत्तर था।
जिस संदूक में सब महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हों उसमें पासपोर्ट के न होने के पीछे का तर्क मेरी समझ में नहीं आया। लेकिन ऐसे मामलों में बहस करने से कोई फ़ायदा नहीं होता, उल्टे देर होती है और मुँह-फुलव्वल होता है। दुर्गा चाभियों के गुच्छों से एक-एक चाभी ले कर संदूक का ताला खोलने की कोशिश करती रही और मैं ताकता रहा। दस मिनट के अन्वेषण-पर्यान्त गर्म कपड़ोंवाला संदूक ख़ुला। हालाँकि उसमें पासपोर्ट होने की लेशमात्र संभावना भी नहीं थी, फिर भी दुर्गा एक-एक कपड़ा निकाल कर मुआयना करने लगी - कहीं कीड़ों ने काट तो नहीं दिया।
मेरा धैर्य जवाब दे ही रहा था, कि घंटी बजी। दुर्गा बाहर देखने गयी। फिर उसके किसी महिला से हँस-हँस कर बात करने की आवाज़ आने लगी। यह दुर्गा की दूसरी बड़ी चारित्रिक दुर्बलता है। जब आदमी ज़रूरी काम में लगा हो, तो क्या यह आवश्यक है कि हर ऐरे-ग़ैरे से हँसी-ठिठोली में समय नष्ट किया जाय? यह भी तो कह सकती है कि "भाई, अभी काम में लगे हैं, बाद में आना!" पर, दुर्गा का दुर्गा-रूप केवल मेरे लिये आरक्षित है। दुनिया के सामने वह स्कंदमाता के उदार रूप में प्रकट होती है।
जब पाँच मिनट तक दुर्गा नहीं आयी तो मैंने बैठकख़ाने में जा कर देखा। दुर्गा मुझे देखते ही चहकी, "देखो, पल्लवी आई है। आज ही विदेश से लौटी है। कितना सारा सामान लायी हो, पल्लवी!"
पल्लवी झपट कर मेरे गले लग गयी। वह पल्लवी ही थी जिसने ज़बर्दस्ती ठेल-ठेल कर हमारा पासपोर्ट बनवाया था। एक समय दुर्गा उसे संदेह से देखती थी, पर उसकी ग़लतफ़हमी कुछ ही दिनों में दूर हो गयी थी। अब पल्लवी मेरे गले लगे या मुझे चूमे, उसे फ़र्क नहीं पड़ेगा।
पल्लवी लगभग आधा घंटा बैठी। वह एक महीने के लिए भारत आई है। उसके सफल जीवन के बारे में जान कर बड़ा सन्तोष हुआ। वह अपनी सफलता का श्रेय मुझे देती रही, और मैं सकुचाता रहा। अंत में, फिर आने का वादा कर वह चली गयी। मैंने उसे दुबई यात्रा के बारे में कुछ नहीं बताया। पहले ही ढिंढोरा पीट देने से काम बनता नहीं, बिगड़ जाता है।
दुर्गा ने दोनों पासपोर्ट ढूँढ़ निकाले। दोनों एक साल से ज़्यादा अवधि के लिए वैलिड थे। एक जंजाल तो समाप्त हुआ, लेकिन फ़ोटो खोजनी अभी बाक़ी थी। भानु ने कहा था कि फ़ोटो "रीसेन्ट" होनी चाहिये। "रीसेन्ट", यानी हाल की। "कबाड़" की तरह ही "हाल" भी एक विशेषण है, व्यक्तिविशेष की मनःस्थिति का मुहताज। बाबूजी कहते थे कि भगवान शिव बहुत पहले पैदा हुए थे जबकि ईसा मसीह हाल के थे!
दुर्गा और मैं फ़ोटो खोजने लगे। फ़ोटो खोजने में ज़्यादा देर नहीं लगी। मेरे अवकाशग्रहण समारोह की फ़ोटो बड़ी अच्छी आई थीं। उन्हीं में से हम-दोनों का एक युगल चित्र मिल गया, "विदाई समारोह" लिखे बैनर के आगे। मैंने मोबाइल फ़ोन से उस चित्र की फ़ोटो खींची, और पासपोर्ट विवरण के साथ भानु को भेज दी।
एक हफ़्ते बाद भानु का संक्षिप्त-सा उत्तर आया - वह बहुत व्यस्त है, इसलिए फ़ोन नहीं कर पा रहा। और हाँ, फ़ोटो अच्छी है लेकिन वीसा की फ़ोटो में चेहरे का क्लोज़ अप होता है पासपोर्ट साइज़ का।
कहाँ मैं सोच रहा था कि वीसा मिल गया होगा और कहाँ हम फ़ोटो में ही अटके पड़े हैं! अब फ़ोटो कहाँ से लायी जाये? दुर्गा और मैं बड़ी देर तक माथा-फुटव्वल करते रहे। उहूँ! और कोई फ़ोटो तो है ही नहीं।
मैं निराश हो ही चला था कि दुर्गा बोली, "विनय की शादी के फ़ोटो देखो। बड़े अच्छे आये थे।"
हाँ, पिछले साल मेरे भांजे विनय की शादी की फ़ोटो एक लिफ़ाफ़े में पड़ी थीं। सभी फ़ोटो बड़ी अच्छी थीं। छाँटते-छाँटते दो फ़ोटो ऐसी मिल गयीं जिनमें हमारा चेहरा साफ़-साफ़ दिख रहा था। मैंने उनकी फ़ोटो खींच कर भानु को भेज दीं।
दो दिनों में ही भानु का जवाब आ गया - वह अब भी बहुत व्यस्त है। फ़ोटो में हम दोनों आकर्षक लग रहे हैं। लेकिन वीसा की फ़ोटो में चेहरा बिल्कुल सामने, बिना चश्मे के, सफ़ेद प्लेन बैकग्र्राउन्ड के आगे होना चाहिये।
वीसा की फ़ोटो न हुई, जी का जन्जाल हो गई। मेरा मन चिड़चिड़ा गया। यह भानु एक बार फ़ोन करके साफ़-साफ़ बता क्यों नहीं देता कि कैसी फ़ोटो चाहिये? पता नहीं वीसा बनानेवाले से पूछ भी रहा है कि ख़ुद ही फ़ोटो के अनुपयुक्त होने की घोषणा किये जा रहा है!
दुर्गा मेरी मुखमुद्रा देख कर मेरी मनोदशा समझ गयी। बोली, "परेशान क्यों होते हो? मोबाइल से फ़ोटो ख़ीच कर भेज दो। या स्टूडियो में जा कर फ़ोटो खिंचवा लेते हैं।"
बात तो ठीक कही उसने। जब मैं मोबाइल फ़ोन से फ़ोटो की फ़ोटो खींच कर भेज सकता हूँ, तो अपनी फ़ोटो खींच कर क्यों नहीं भेज सकता! मैंने कहा, "तो चलो, अभी खींचे लेते हैं।"
"नहीं, आज शैम्पू कर लेती हूँ। कल खींच लेना।" दुर्गा बोली। मैंने सोचा, ठीक है, मैं भी आज शैम्पू कर लेता हूँ। फ़ोटो कल ही सही।
लेकिन फ़ोटो खींचना इतना आसान न था। हम दोनों ने बाल ठीक कर लिये, दुर्गा ने आकर्षक बॉर्डर की साड़ी पहन ली, मैं टाई-शर्ट-कोट मैं लैस हो गया, पर सफ़ेद बैकग्राउन्ड एक समस्या था। हमारे कमरों की दीवारें रंगीन थीं। किचन और बाथरूम में रंगीन टाइल्स लगी थीं। पर जहाँ चाह, वहाँ राह! मैंने दीवार पर टेप से सादे-सफ़ेद फ़ुलस्केप कागज़ चिपका दिये। हम दोनों ने एक-दूसरे की चार-पाँच तस्वीरें खीचीं और उनमें से सबसे अच्छी भानु को भेज दीं।
तीन दिन बाद भानु का फ़ोन आया। पिता-पुत्र का सम्बन्ध कैसा अद्भुत होता है! दोनों के बीच का स्नेहसूत्र कितना पवित्र होता है। पर दोनों ही स्नेह प्रदर्शन से कितना कतराते हैं! भानु बड़े आदर के साथ बात कर रहा था। वह हमारे दुबई पहुँचने में दिन गिनने लगा था। उसने बताया कि अब तक भेजी फ़ोटो में से कोई भी वीसा के लिये प्रयुक्त नहीं हो सकती। वीसा की फ़ोटो से चेहरे का मिलान हो जाने के बाद ही दुबई हवाईअड्डे से शहर में घुसने की अनुमति मिलती है। उसने आग्रह किया कि हम अब और देर न करें, स्टूडियो जा कर फ़ोटो खिंचवा लें।
घर की चहारदीवारी के अन्दर तो टाई-षर्ट-कोट पहनना ठीक है, पर इन्हें पहन कर सड़क पर फ़ैशन-परेड करने में मुझे संकोच होता है। ऐसे कपड़े मैंने जीवन में शायद दस बार से अधिक न पहने होंगे। सादे कपड़ों में फोटो खिंचा लूँ या इन लबादों को ज़बरन ओढ़ूँ, मैं इसी ऊहापोह में था कि पल्लवी फिर आ धमकी। उसने अन्य छात्र-छात्राओं के साथ मिल कर अगले सप्ताह हमारे लिये एक पार्टी का आयोजन किया था। वह हमारी अनुमति लेने नहीं बल्कि हमें सूचित करने आयी थी, उसने ज़ोर दिया। कितने अधिकार से बात करती है वह! बातों-बातों में उसे दुबई यात्रा और स्टूडियो में फ़ोटो खिंचवाने में मेरी सकुचाहट के बारे में पता चल गया। उसने आव देखा न ताव, झट से कह बैठी, "आप दोनों ड्रेस अप हो जाइये। फिर हम मेरी कार में स्टूडियो चलेंगे। दस मिनट में फ़ोटो खिंच जायेगी, फिर मैं आपको वापस ड्रॉप कर दूँगी।"
गाड़ी में ढँक-छिप कर जाना सड़क पर पैदल या रिक्षे में जाने से कहीं ज़्यादा शालीन था। मुझे संकोच तो हुआ, पर इससे अच्छा कोई दूसरा विकल्प नहीं था मेरे पास।
फ़ोटो खिंचने में दस मिनट से भी कम ही समय लगा। पल्लवी ने फ़ोटोग्राफ़र के मॉनीटर पर फ़ोटो देख कर स्वीकृत की, और हम वापस आ गये। पल्लवी इतनी ख़ुश थी मानो हमारी बजाय वही अपने किसी निकट सम्बन्धी से मिलने दुबई जा रही हो। रास्ते भर चहकती रही। हमें घर छोड़ते समय मुस्कुराते हुए बोली, "सर! बड़ी अच्छी फ़ोटो आई है आपकी। दुबई का वीसा तो झट से मिल ही जायेगा, और भी बहुत दूर का वीसा मिलेगा इससे।"
वह अवश्य कोई चक्कर चला रही होगी। ज़रूर मुझे अपने पास विदेश बुलाना चाहती है पेपर-वेपर पढ़ने के लिए। मैंने उसे घूरा तो वह एक शरारती मुस्कान बिखेरती चली गयी। क्या पहेली है यह? शायद अगले सप्ताह पार्टी में इसका राज़ ख़ुले।
दोपहर बाद फ़ोटो की सॉफ़्ट कॉपी और आठ-आठ प्रिंट मिल गये। मैंने भानु को फ़ोटो तुरन्त भेज दीं। उसी शाम उसने वीसा के लिये आवेदन कर दिया। मैं सत्रह पृष्ठ का दुबई यात्रा का पुलिन्दा ले कर बैठ गया। कुछ काम प्रारम्भ करने का समय हो चुका था, पर न जाने क्यों मेरा मन वीसा मिलने से पहले कुछ भी करने से हिचक रहा था। भानु को चार-पाँच दिनों में वीसा मिल जाने की उम्मीद थी। जहाँ इतने दिन प्रतीक्षा की, चार-पाँच दिन और सही, मैंने सोचा!
गिनते-गिनते आज चौथा दिन भी आ गया। आज नींद बहुत जल्दी ख़ुल गयी। दुर्गा सोयी थी। मैं बाथरूम से लौट कर ताज़ी हवा लेने खिड़की के पास खड़ा हो गया। एकबारगी विश्वास नहीं हुआ! बाहर माँ-बाबूजी खड़े थे। अँधेरे में ठीक से सुझाई नहीं दे रहा था, पर वे दोनों ही थे, धुँधले-धुँधले कोहरे में लिपटे से। मैं बाहर का दरवाज़ा खोलने को बढ़ा, लेकिन तब तक वे बैठक में आ चुके थे। उन्हें देख कर मुझे बड़ा आनन्द आया। मैं बैठक में ही लेट गया। वे चुप थे, मैं भी चुप था। कुछ बोलने की ज़रूरत ही क्या थी!
तभी दुर्गा कमरे में बदहवास-सी आयी। उसने मेरा हाथ पकड़ा, मेरा माथा छुआ, मेरी छाती टटोली। अब तक मैं माँ-बाबूजी के साथ रोशनदान के पास ऊपर पहुँच गया था। दुर्गा परेशान थी। वह हिचकियाँ लेते-लेते किसी को फ़ोन कर रही थी।
माँ-बाबूजी ग़ायब हो चुके थे। मेरा दम घुट रहा था। दुर्गा बार-बार मेरा नाम पुकार रही थी। मैंने उसे देखा, तो वह धुँधली-सी दिखाई पड़ी। जैसे कोई झीना सफ़ेद लबादा ओढ़े हो। दुर्गा कभी स्पष्ट दिखाई देती तो कभी लबादे में कई दूसरी आकृतियों के बीच गुम हो जाती। मेरी आँखें मुँद रही थीं।
भानु अचानक चिहुँक कर उठ गया। मैं तो सिर्फ़ दूर से उसे देखने गया था, उसे मेरी उपस्थिति का आभास कैसे हो गया?
मेरी नाक पर ऑक्सिजन मास्क लगा था। कोई मेरी छाती बार-बार दबा रहा था। मुझे बड़ा कष्ट हो रहा था। दुर्गा मेरे पास थी। मैं शायद एम्बुलेन्स में था।
दुर्गा फिर कई आकृतियों में गुम होने लगी। मैं उसकी हर आकृति से परिचित था। मैंने उसका आँचल पकड़ कर उसे आश्वस्त करना चाहा, पर उसे पता ही नहीं चला।
हास्पिटल में डॉक्टर ने एम्बुलेंस में ही मेरा मुआयना किया और सिर हिला दिया। दुर्गा पछाड़ें खाने लगी। पल्लवी उसे सान्त्वना दे रही थी। पल्लवी की भी कई आकृतियाँ थीं। एक आकृति उस महिला की थी जिसे मैं दादी कहता था।
मेरा शरीर मॉर्चुअरी में रख दिया गया। मेरी अन्तिम क्रिया भानु के आने के बाद कल होगी। पल्लवी अख़बार में मेरी ऑबिच्यूरी छपवाने का इंतज़ाम करने लगी। उसने जल्दी-जल्दी कुछ पंक्तियाँ लिखीं, और कलम मुँह में दाबे शून्य में उसी ओर ताकने लगी जहाँ मैं अवस्थित था।
मैं रात भर मॉर्चुअरी के इर्द-गिर्द ही मँडराता रहा। सुबह-सुबह दुर्गा और भानु आए। दुर्गा रातों-रात दस वर्ष बूढ़ी हो गयी थी। भानु बड़ा प्यारा लग रहा था। मुझे उसमें कई परिचित आकृतियाँ दिखीं। मेरा शव देखते ही वह बच्चों की भाँति मुझे छू-छू कर रोने लगा, "मैं आपको बहुत प्यार करता था, पापा, बहुत प्यार!" दुर्गा ने थोड़ी देर तक उसे रोने दिया, फिर सम्भालते हुए कहा, "वो भी तुम्हें बहुत प्यार करते थे बेटा। तुमसे मिलने की बात सोच कर बहुत ख़ुश थे!" मैंने भानु के आँसू पोंछने की चेष्टा की, पर उसे पता नहीं चला। जीते-जी भी मैं कब पोंछ पाया था उसके आँसू?
पल्लवी अपने घर में रुआँसी बैठी थी। उसके सामने आज के अख़बार में छपी मेरी ऑबिच्युरी थी। वह एकटक मेरी फ़ोटो देख रही थी। वही फ़ोटो, जिसे पहली बार देख कर उसने कहा था, "सर! बड़ी अच्छी फ़ोटो आई है आपकी। दुबई का वीसा तो झट से मिल ही जायेगा, और भी बहुत दूर का वीसा मिलेगा इससे।"
मेरा शव अग्नि को समर्पित हो गया। कई मित्र छायाओं के साथ मैं बढ़ने लगा, बहुत दूर जाने को।