नयी धुन
अमिताभ वर्माझम झम झम झम - पानी बरस रहा है तो बरसता ही जा रहा है, पागलों की तरह। कहीं इतनी भी बरसात होनी चाहिए! घर में ही बैठे रहिए, कहीं बाहर नहीं जा सकते। भूख लगे, तो चाय बना कर पीते रहिए। चाय बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है; पर कप धोना, बर्तन साफ़ करना, पत्ती फेंकना किसी जंजाल से कम होता है क्या? ऊपर से होम डिलिवरीवाला अलग पैंतरे दिखाता है। मानो खाना नहीं पहुँचाता, एहसान करता है। तीन सौ रुपये से कम का ऑर्डर नहीं लेता, और बरसात का बहाना कर दो-दो घंटे बाद खाना पहुँचाता है। कल डाँटा तो ढिढाई पर उतर आया। पूछने लगा - ’’वापस ले जाऊँ?’’ दो महीने पहले एक बार वापस किया था, तो एक सप्ताह तक ऑर्डर ही नहीं लिया था। वह तो उस समय बरसात नहीं थी, सो बाहर खा कर काम चल गया था। भूखे-पेट स्क्रिप्ट भी तो नहीं लिखी जाती। गीत भी दिमाग में नहीं उतरते।
यह स्क्रिप्ट-गीत वगैरह सब छलावा हैं। छः महीने होने को आये, अब तक अपने नाम से न तो एक भी गीत बिका और न ही कोई स्क्रिप्ट। क्या-क्या सुना था - बम्बई में हर साल तीन सौ फ़िल्में बनती हैं, हुनरमंद के यहाँ बेकार रहने का सवाल ही नहीं है ... हुँह! सब बकवास है! जो फ़िल्में बनती हैं उनमें से नव्वे प्रतिशत घटिया होती हैं, और बाक़ी दस प्रतिशत भी अक्सर मौलिक होने की बजाय चुराई हुई होती हैं - कथानक, संगीत, दृश्य - पूरे या थोड़े-बहुत, किसी-न-किसी देसी-विदेशी फ़िल्म पर आधारित होते हैं। अगर खोटा सिक्का बाज़ार में चल गया, तो उस पर करोड़ों रुपये न्यौछावर कर देगी, लेकिन ख़रे सिक्के को दुरदुरा कर धूल में फेंक देगी। वाह रे हमारी बम्बई की फ़िल्मी दुनिया!
वाशी में यह एक कमरे का सेट लेते समय क्या-क्या सपने देखे थे! ग्यारह महीने की पगड़ी के तौर पर ढाई लाख रुपये थमाते समय यही सोचा था कि ग्यारह महीने ख़त्म होंगे बाद में, और मैं पहले ही ख़ालिस मुम्बई के किसी सम्भ्रान्त मुहल्ले में घर ले लूँगा। क्या पता था, जो फ़िल्मी दिग्गज टी वी चैनेल पर मेरी ख़ुलेआम इतनी तारीफ़ कर रहे हैं, वे ही टाल-मटोल करने लगेंगे, बहाने ढूँढ़ने लगेंगे। दग़ाबाज़ कहीं के!
मैं जानता हूँ कि इस तरह सोचने से कोई हल नहीं निकलने वाला। यह भी जानता हूँ कि मेरा परिवार लाख धनी सही, वह चार-छः महीने और मुझ पर ख़र्च करने के बाद थम कर पूछेगा - ’’बेटा, बात कुछ बन नहीं रही तो घर वापस आ कर बिज़नेस क्यों नहीं सम्भालते?’’ ठीक भी तो है, यहाँ कब तक लावारिस पड़ा रहूँगा? कब तक रोज़ सुबह ब्रेड-अंडा और रात को चाऊ मीन खा कर सोता रहूँगा? कब तक फ़िल्मी पार्टियों में बिन-बुलाये घुसने की कोशिश करता रहूँगा? ... वापस ही जाना होता तो यहाँ आता ही क्यों? ... लेकिन जब यहाँ कुछ हो ही नहीं रहा तो अंधे कुएँ में कब तक छलाँग मारता रहूँ?
उफ़्! भरी दोपहर मैं कैसा अन्धकार उतर आया है! जैसे शाम के छः बज रहे हों। आसमान काले-धूसर बादलों से पटा पड़ा है। दूर ऊँचे-ऊँचे पेड़ हवा में लहरा रहे हैं। सड़क पत्तों और डालियों से पटी पड़ी है। सुना है, कल इधर ही कहीं एक पेड़ भी गिर गया था। दो कारें बरबाद हो गयीं थीं। इस बीच बरामदे की जाली पर एक क़बूतर आ कर बैठ गया है, काँपता-सा। मुझे संशय से देख रहा है, पर उड़ कर कहीं और नहीं जा रहा। बरसात में कुत्ते भी बाहर नहीं निकलते। भींगने से हिचकते हैं। सिर्फ़ आदमी ही है जो तब भी बाज नहीं आता। निकल पड़ता है कफ़न सिर पर बाँधे - पैदल, कार में, बस में, मोटर साइकिल पर। हॉर्न बजाता, मानो एक क्षण की भी देर हो गयी तो बड़ा-भारी अनर्थ हो जाएगा। सभी हॉर्न एक-से-एक कर्कश, कान में चुभने वाले। माधुर्य से, संगीत से, कोमलता से तो जैसे किसी का भी दूर-दूर तक वास्ता ही नहीं।
’’नज़र तुम बिन तरसती है, मुहब्बत हाथ मलती है ...’’ पियानो पर यह धुन मिस मार्था बजा रही होंगी। मुझसे ठीक ऊपर, तेरहवीं मंज़िल पर रहती हैं वे। जब भी मैं उदास होता हूँ पता नहीं उन्हें कैसे मालूम पड़ जाता है, और वे किसी ऐसे गीत की धुन बजा देती हैं जो मुझे बरबस ही सब भूल-भाल कर किसी दूसरी दुनिया में ले जाता है। एक मीठी-सी महक छा जाती है मेरे इर्द-गिर्द। ’’जहाँ भी है आ जा मेरे पास’’ - कितनी अच्छी तरह, कितनी सफ़ाई से वे धुन को अंतरे की ओर मोड़ रही हैं - ’’नैना बरसें, रिमझिम रिमझिम’’। धुन कभी स्पष्ट सुनायी देती है और कभी बरसात के शोर में गुम हो जाती है।
मिस मार्था से मैं तीन बार ही मिला हूँ। पहली बार तब, जब मुझे यहाँ आए तीन-साढ़े तीन महीने हुए थे। मैं दिन भर गीतकारों, निर्माताओं, निर्देशकों के दफ़्तरों के चक्कर काट कर, आश्वासन बटोर कर, देर रात ख़ाली हाथ घर लौटा था। नशे में भी था, थका भी था। बस, नहा कर बिस्तर में घुस जाने वाला था। बाथरूम में घुसा ही था कि बिजली गुल हो गयी। घुप अँधेरे में हाथ-को-हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। खड़ा-खड़ा सोच रहा था कि क्या करूँ, कि तभी पहली बार पियानो का संगीत सुनाई दिया था। जैसे कोई बगल के कमरे में ही बजा रहा हो। मैंने वह धुन पहली बार सुनी थी। विदेशी थी। बड़ी मधुर, पर बहुत उदास। मैं सम्मोहित-सा न जाने कितनी देर संगीत सुनता रहा था। फिर, संगीत जैसे आरम्भ हुआ था, वैसे ही समाप्त भी हो गया था। यकायक। या, शायद बिजली आ गयी थी और मैं संगीत की जगह स्नान पर ध्यान देने लगा था। नहा कर निकला ही था कि घंटी बजी थी। ’’रात बारह बजे कौन आया होगा? शायद बहादुर होगा, कोई बिल या सर्कुलर देना चाहता होगा।’’ - सोचते हुए मैंने लापरवाही से तौलिया लपेट दरवाज़ा खोला था।
बाहर एक महिला खड़ी थीं। मैं सकपका गया था। तौलिये को ठीक से पकड़ कर कहा था, ’’अन्दर आइये!’’
वे थोड़ी देर मुझे देखती रही थीं। जैसे आँखों के भीतर झाँक रही हों। मेरे विपरीत, उनका सम्पूर्ण शरीर कपड़ों से ढ़ँका था। हाथों में लम्बे दस्ताने थे। सिर पर स्कार्फ़ था। गले में भी कुछ लपेटा हुआ था उन्होंने। केवल उनकी आँखें, नाक और गालों का कुछ हिस्सा ही दिख रहा था मुझे। वैसे भी, मैं तो झेंपा हुआ था ही, भला उन्हें क्या देखता! मैंने फिर कहा था, ’’अन्दर आइये!’’
वे बोली थीं, ’’नईं, अम तुमकूँ सॉरी बोलने के वास्ते आया था। अमको खयाल नई रहा कि इत्ता रात गुजर गया है, अऊर अम मैड के माफ़िक इत्ता जोर से पियानो प्ले कर दिया।’’
मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा था। ’’वह पियानो आप बजा रही थीं। बिलकुल हैवेनली था। मैं तो सब भूल कर पियानो सुनता रहा!’’ मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ा था।
’’तुमकूँ अच्चा लगा?’’ वे मेरी ओर थोड़ा झुक गयी थीं। एक मीठी-सी ख़ुश्बू का झोंका मुझे मदहोश करने लगा था।
वे शायद समझ गयी थीं। मुझे कुछ देर ग़ौर से ताकने के बाद बोली थीं, ’’अच्चा, अम जाता ऐ, गुड नाइट!’’ और, मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ती चली गयी थीं।
मैं बिस्तर पर इस उम्मीद के साथ लेट गया था कि शायद मध्यम ही सही, पियानो की मधुर आवाज़ फिर सुनाई दे। पर आवाज़ नहीं आई, नींद न जाने कब आ गयी थी।
कुछ दिन गुज़रे होंगे। फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश की मेरी जद्दो-ज़हद ज्यों-की-त्यों जारी थी। एक बड़े गीतकार को प्रेरणा-हेतु कुछ गीत चाहिए, किसी ने बताया था। उसने यह भी बताया था कि बड़े गीतकार किस तरह शब्दों में मामूली हेर-फेर कर के उस गीत के लाख रुपये तक ले लेते हैं, और बेचारे असली गीतकार को सिर्फ़ दो-चार सौ रुपयों में टरका दिया जाता है। कुछ वैसा ही हाल स्क्रिप्ट लेखन का भी है। यहाँ तक कि बड़े गायक-गायिका भी पहले किसी होनहार गायक-गायिका के स्वर में उस गाने की स्क्रैच रिकॉर्डिंग सुनते हैं, और फिर थोड़ा फेर-बदल कर गा देते हैं। संगीतकार डमी बाजों के साथ साजिन्दे बिठा कर बड़े ऑर्केस्ट्रा के पैसे वसूलते हैं।
मतलब, फ़िल्मी दुनिया में कलाकारों और लेखकों का शोषण होता है। यहाँ अनगिनत होनहार गुमनामी की ज़िन्दग़ी जीते भी हैं, और गुमनाम ही मर भी जाते हैं। कोई किसी चॉल में, कोई झोपड़े में, और कोई बदनसीब सड़क पर ही दम तोड़ देता है। मैंने अभी गीत की पहली पंक्ति ही रची थी कि मेरा मन अवसाद से भर गया। क्या मेरा भी यही हश्र होगा? मैं क्यों लिखूँ किसी दूसरे के लिए? अगर ऐसा ही है, तो वापस जाना क्या बुरा है? लेकिन वापस जाऊँ भी तो कौन-सा मुँह ले कर? क्या बस चार महीनों में ही हार मान लूँ? दाँतों में क़लम दबाये मैं क्षितिज की ओर देख रहा था कि कानों में पियानो की हल्की-हल्की धुन सुनायी पड़ी। धुन निस्सन्देह विदेशी थी, और पहले की ही तरह मधुर और उदास थी। जैसे कोई अपनी प्रियतमा से अन्तिम बार मिल रहा हो। मेरे मस्तिष्क में अनायास ही कब्रिस्तान का दृश्य उभर आया। कमरे में मीठी-सी महक फैल गयी। मैंने क़लम मुँह से निकाली और झटपट गीत लिखने लगा। प्रथम प्रयास में ही इतना अच्छा गीत मैंने कभी नहीं लिखा था।
उस रात मिस मार्था मुझसे दूसरी बार मिलीं। बात ज़ीने में ही हुई। वे शायद पचास वर्ष की रही होंगी। वे पहले फ़िल्मी संगीतकारों के दल में थीं। उन्होंने अपना नाम भी उसी दिन बताया। मैंने उनसे आग्रह किया कि वे हिन्दी फ़िल्मी गीतों की धुन भी बजाया करें। वे बड़ी संकोची थीं। वे यही जानने को व्यग्र थीं कि अब मैं पियानो की आवाज़ से डिस्टर्ब तो नहीं होता, और उनकी मित्र-मण्डली की धमाचौकड़ी और शोरशराबे से मेरी नींद तो ख़राब नहीं होती। उसी दिन पहली बार मुझे पता चला कि ऊपर कोई ’धमाचौकड़ी’ भी होती थी। मुझे तो सदा शान्ति का ही अनुभव होता था।
एक क्षण को ख़याल आया कि मिस मार्था शायद मुझे मेरी मंज़िल तक पहुँचा दें। लेकिन फिर तुरन्त ही दूसरा ख़याल आया - अगर वे इतना ही दबदबा रखतीं तो ख़ुद ऐसी हालत में क्यों रहतीं? अब तो वे शायद ही कहीं काम करती होंगी। उनकी ज़रूर किसी संगीत निर्देशक या गीतकार या किसी बड़े आदमी से अनबन हुई होगी। उनका ज़िक्र, यक़ीनन, मुझे समृद्धि नहीं, विनाश की ओर ले जायेगा। मैंने उनकी चर्चा किसी से भी नहीं की। भला अपने पैरों पर ख़ुद ही कुल्हाड़ी क्यों मारता?
मेरा वह कब्रिस्तान वाला गीत एक सम्मानित गीतकार ने बतौर प्रेरणास्रोत एक हज़ार रुपये में ख़रीद लिया। उसने भविष्य में भी गीत देते रहने को कहा। उस समय तो बड़ा अच्छा लगा, पर एक महीने बाद जब पता चला कि गीत की रिकॉर्डिंग बिना किसी फेरबदल के उन गीतकार के नाम हो गयी, तो लगा कि किसी ने गीले हाथ से मुँह पर तड़ातड़ तमाचे रसीद कर दिये हों। एक दिन उस सम्मानित गीतकार से मिला तो मैंने उस गीत का ज़िक्र छेड़ा। गीतकार बेशर्मी से बोले - ’’यह व्हिस्की देख रहे हो? आरसी की बोतल में भरो तो आरसी के मोल बिकती है, और शिवास की बोतल में उड़ेलो तो शिवास के दाम बिकती है। समझ गये?’’ मेरे मुँह में थूक भर आया था, इच्छा हुई थी कि फेंक दूँ उसके मुँह पर, लेकिन जज़्ब कर के चला आया था।
रात में घर लौटा तो मन गुस्से से भरा था। जी हो रहा था कि सब तोड़-ताड़ दूँ, तहस-नहस कर डालूँ। या जो भी मिले, उसकी गर्दन मरोड़ डालूँ। अपनी विवशता पर बड़ा रोना आ रहा था। मैं बरामदे से बाहर देखने लगा था, कि पियानो पर यह धुन मानो लहराती हुई आकर कानों से लिपट गयी थी - ’’झूम झूम ढलती रात।’’ जब तक मैं समझ पाता, अंतरा बजने लगा था - ’’हाल है ये मस्ती का, साँस लगी थमने; उतने रहे प्यासे हम, जितनी भी पी हमने!’’ मेरे ज़हन में मिस मार्था का चित्र उतर आया। वे सिर से पैर तक कपड़ों में ढँकी पियानो बजा रही हैं, और ...। और? और क्या? मुझे तो उनके बारे में कुछ भी नहीं मालूम! बस उन्हें एक-दो बार देखा है, उनकी वह अजीब-सी ख़ुश्बू सूँघी है।
तभी घंटी बजी थी, और मैं समझ गया था कि मिस मार्था ही आयी होंगी। दरवाज़ा खोला था। वही थीं। उनका चेहरा कितना गोरा था! जैसे संगमरमर का हो। वे मुझे कुछ कहतीं, उससे पहले ही मैंने कह दिया था, ’’मिस मार्था, आज मेरे गाने की रिकॉर्डिंग हुई है। मतलब नाम तो किसी और का है पर गाना मैंने लिखा है। जब मार्केट में आएगा तो ज़रूर बजाइयेगा।’’ उन्होंने कहा था, ’’अइसा ई ओता ऐ। अम जरूर प्रैक्टिस करेंगा।’’
’’मिस मार्था, आप हमेशा सैड ट्यून क्यों बजाती हैं?’’ मैंने पूछा था।
’’ट्यून सैड ऐप्पी कुच नईं ओता। अमारा माइन्ड सैड ऐप्पी ओता ऐ।’’ बोल कर वे चली गयी थीं, ख़ुश्बू का ग़ुबार छोड़तीं। ’’अकेली जान’’ बुदबुदाते हुए मैंने दरवाज़ा बन्द कर दिया था।
दोपहर के साढ़े तीन बज रहे हैं। होम डिलिवरीवाला अब तक नहीं आया है। भूख से आँतें कुलबुला रही हैं। उधर बरसात थमने क्या, मन्द पड़ने का भी नाम नहीं ले रही। ’’नैना बरसे’’ कभी का ख़त्म हो चुका है, और पियानो पर अब नयी धुन बजने लगी है। धुन जानी-पहचानी है। अरे! यह तो उसी गीत की है जो मैंने लिख कर उस सम्मानित गीतकार को नज़र कर दिया था। यह गीत तो अभी बाज़ार में आया ही नहीं। मिस मार्था को इसकी धुन कैसे पता चल गयी? इसका मतलब, मैंने उन्हें ग़लत समझा था। वे अब भी फ़िल्म इन्डस्ट्री में सक्रिय हैं। शायद इस गीत की रिकॉर्डिंग में उन्होंने ही पियानो बजाया हो। शायद वे मुझे मेरी मंज़िल तक पहुँचा सकें। कितना अच्छा बजा रही हैं! मुझसे रहा न गया। आनन-फानन में दरवाज़ा खोल, एक बार में दो-दो सीढ़ियाँ फलाँगता, मैं तेरहवीं मंज़िल पर पहुँच गया। उनके फ़्लैट का दरवाज़ा ख़ुला था। अन्दर बहादुर था। मैंने अपनी व्यग्रता पर क़ाबू पाने की चेष्टा करते हुए कहा, ’’मैं मिस मार्था से मिलने आया हूँ।’’
बहादुर बेवक़ूफ़ों की तरह मेरा मुँह ताकता रहा, फिर बोला, ’’यह फ़्लैट तो बहुत साल से ख़ाली पड़ा है।’’ उस ज़ाहिल से बहस लड़ाना बेकार था। मुझे मेरा गीत स्पष्ट सुनाई दे रहा था, मिस मार्था की ख़ुश्बू मैं साफ़ महसूस कर रहा था। बहादुर को लगभग ठेलते हुए मैं कमरे में घुस गया। ड्रॉइंग रूम बिलकुल ख़ाली था। यही हाल दूसरे कमरे का भी था। मिस मार्था बालकनी में पियानो बजा रही थीं। मुझे देख कर, बस, सिर हिला कर आने का इशारा कर पियानो बजाती रहीं। मेरा गीत! मैं पियानो के पास पहुँच गया। पियानो और मिस मार्था दोनों थोड़ा आगे खिसक गये। मैं फिर आगे बढ़ा। पियानो और मिस मार्था अब हवा में थे। संगीत था कि थम ही नहीं रहा था। और मधुर, और मधुर होता जा रहा था। मंत्रमुग्ध-सा मैं आगे बढ़ा। और आगे। अब मैं बरामदे को पार कर हवा में कदम रख रहा था।
मिस मार्था एक हॉल की छत के पास थीं। सफ़ेद कपड़ों में लिपटीं। मैं भी उनके पास था। नीचे, टाइल लगे फ़र्श के एक कोने में स्ट्रेचर पर मेरा निर्जीव शरीर पड़ा था। शव गृह की मीठी गंध मुझे मदहोश कर रही थी। पियानो पर मेरे गीत की धुन हवा में अब भी गूँज रही थी।