अहिल्या

01-04-2023

अहिल्या

अमिताभ वर्मा (अंक: 226, अप्रैल प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

“ई. मृणमय मजुमदार”—दीवार पर काले पत्थर की नेम-प्लेट पर सफ़ेद अक्षरों में लिखा था। नाम के नीचे, छोटी इबारत में, इंजीनियरिंग डिग्री और कॉलेज के बारे में जानकारी थी। उनमें नया कुछ भी नहीं था, वह सब मुझे पहले से मालूम था।

वैसे, दीवार पर एक नहीं, दो-दो नेम-प्लेट नुमायाँ थीं। दूसरीवाली लकड़ी की थी। वह दीवार पर कीलों के सहारे टँगी थी। वह प्लेट पत्थरवाली प्लेट से छोटी थी, और उसके ठीक नीचे लगी थी। पत्थरवाली प्लेट लकड़ीवाली प्लेट पर एक तरह से हावी हो रही थी। एक नज़र में ही ख़ुलासा हो जाता था कि लकड़ी की प्लेट वाले का ओहदा पत्थर की प्लेट वाले से यक़ीनन कमतर था।

लकड़ी की प्लेट पर किसी मर्द का नहीं बल्कि एक औरत का नाम लिखा था—“डॉ. मुग्धा मजुमदार”। ऊपरवाली प्लेट की ही तरह उस प्लेट पर भी डिग्रियों और कॉलेज के नाम अंकित थे। उस प्लेट में नाम के अलावा मेरे लिए सब कुछ नया था, वह सब मुझे पहले से मालूम नहीं था।

मैं नेमप्लेट वाले दोनों व्यक्तियों को जानता था—आदमी को भी, औरत को भी। नहीं, “जानता था” कहना बढ़ाबढ़ी करना होगा। ऐसे कहना ज़्यादा ठीक होगा कि “वे लोग कौन थे, मुझे पता था”।

छब्बीस साल पहले ही मुझे उस आदमी से मिलने में चिढ़ होने लगी थी, और आज भी उससे मुलाक़ात की इच्छा बिलकुल नहीं थी मुझमें। वह काइयाँ था। कोई ऐसा-वैसा नहीं, अव्वल दर्जे का। इच्छा तो वैसे उस औरत से मिलने की भी कोई ख़ास नहीं थी, लेकिन उसके नाम के आगे लगे ‘मजुमदार’ शब्द ने मुझे ललकार दिया था—“इतनी दूर से, इतने साल बाद, ऐसे ही, दरवाज़े से पलट जाने के लिए आए थे? पता नहीं लगाओगे कि उसका सरनेम क्यों नहीं बदला? उसका पति भी ‘मजुमदार’ ही है या कोई और? या, उसने शादी ही नहीं की है? अगर शादी नहीं की, तो क्यों?”

छब्बीस साल ख़ासा लम्बा अरसा होता है। हो सकता है, वह आदमी अब तक मर-खप गया हो। अगर ज़िन्दा भी होगा तो इतना बूढ़ा तो हो ही गया होगा कि जल्दी सोने चला जाता होगा। मैंने घड़ी की ओर देखा—सात बजे थे। इतनी जल्दी कौन-सा बूढ़ा सोता है? कई बूढ़े तो देर रात तक जाग कर बकबकाते रहते हैं।

मृणमय से मुझे इतनी चिढ़ शुरू से नहीं थी। पहली मुलाक़ात में वह मुझे बड़ा सहृदय आदमी मालूम हुआ था, घर के बुज़ुर्ग़-जैसा। मैं चौबीस साल का था, और वह पचास के क़रीब रहा होगा। मुझे रहने के लिए एक आशियाने की तलाश थी, और मृणमय का दो कमरों का एक सेट तब ताज़ा-ताज़ा बना था। इतना ताज़ा, कि दीवारों से रिसती चूने की गंध मद्धिम भी नहीं हुई थी। दो कमरे, रसोईघर, ग़ुसलख़ाना, और एक कमरे के बराबर खुली जगह। उस खुली जगह से दूर-दूर तक खेत, झोंपड़ियाँ, नदी, वगैरह दिखते थे। पहली मंज़िल पर बने उस सेट तक जाने के लिए एक सँकरा ज़ीना था। वह सेट बाक़ी बँगले से सटा, पर अलग, था। जो वहाँ रहेगा, वही उस ज़ीने और खुली जगह का इस्तेमाल करेगा।

इतनी स्वाधीनता! मुझे भला और क्या चाहिए था?

किराये की बात करते समय मृणमय की पत्नी ने हल्के-से ताक़ीद कर दी थी। उनके तीन बच्चों में सबसे बड़ी लड़की मेडिकल कॉलेज में पढ़ती थी—कोई ऐसी-वैसी बात नहीं होनी चाहिए। वह तो अकेले कुँवारे लड़के को घर किराये पर देने के पक्ष में ही नहीं थीं, पर उन्हें अपने पति की इच्छा के आगे समर्पण करना पड़ा था। दूसरी तरफ़, मृणमय मेरे इंजीनियर होने और अमरीकी कम्पनी में काम करने से बड़ा मुतमइन था। फिर, मेरा नाम भी मजुमदार होने की वजह से उसकी स्नेह-सरिता का कलकल प्रवाह और अधिक प्रबल हो गया था।

“मैं सप्ताह में एक दिन ही घर पर रह पाता हूँ, शेष दिन दौरों में निकल जाते हैं। कल भी जा रहा हूँ।”—मैंने श्रीमती मजुमदार को आश्वस्त किया था।

मैंने झूठ नहीं कहा था। मैं रेलगाड़ी और टैक्सी से इतने दौरे करता था कि शरीर को हरदम हिलते रहने की आदत हो गई थी, पैर हमेशा थरथराते रहते थे। मेरी एक दिलचस्प रेलयात्रा का विवरण 15 अप्रैल 2020 के ‘साहित्य कुंज’ में ‘आँखों की कहानी’ नाम से शाया भी हो चुका है। लेकिन, उस रेलयात्रा का इस क़िस्से से कोई लेना-देना नहीं है। उसका ज़िक्र तो मैंने यूँ ही कर दिया। लेखकों, कवियों, की आदत होती है न, दूसरों को अपना लिखा पढ़ा-सुना कर परेशान करने की!

“आप खाने-पीने का क्या करेंगे? हफ़्ते में एक दिन ही रहते हैं, तो यहीं खा लिया करिएगा।”

“नहीं, मेरे आने-जाने का कोई ठीक नहीं। यह मेरे परिचित मेरी मदद कर देंगे उस मामले में,” मैंने अपने साथ आए महतोजी की ओर इंगित किया था। वे बग़ल के मुहल्ले में दसेक साल से रह रहे थे और सरकारी कर्मचारी थे। महतोजी ने ही मुझे उस घर का पता दिया था, और उन्हीं के भरोसे पर वह घर मुझे मिल रहा था।

किराया ज़्यादा था, पर मैंने हुज्जत नहीं की थी। नौ महीने होटल में रहने और कई मकानमालिकों का इन्कार झेलने के बाद मेरा विवेक उसकी सलाह नहीं दे रहा था। समझदारी इसी में थी कि मृणमय का इरादा बदलने से पहले ही मैं तीन महीने का एडवान्स देकर बात पक्की कर दूँ।

फिर क्या था? मैंने वैसा ही किया।

एक घण्टे में महतोजी और मैं सूटकेस लेकर घर आ गए। थोड़ी देर बाद हाथ-पैर धोने की ज़रूरत महसूस हुई तो देखा, ग़ुसलख़ाने के दोनों नलों से पानी नहीं आ रहा। पानी की छोड़िए, नल, पानी बन्द होने पर, जैसे “सू-सू” की आवाज़ करते हैं, वैसी आवाज़ भी नहीं कर रहे थे। पूरा सन्नाटा था।

रसोईघर के नल की हालत भी कोई अलहदा नहीं थी। शायद पानी के वाल्व की चाभी बन्द थी। मैंने पाइपलाइन के साथ चल कर वाल्व तक पहुँचने की कोशिश की, पर वह ज़ीने की दीवार से कुछ दूर तक सटी रहने के बाद बँगले की ओर कहीं ग़ायब हो गई थी।

मैंने महतोजी से मृणमय को कहला भेजा। उन्होंने वापस आकर बताया, सेट पर पानी की टन्की जल्दी ही लगने वाली है। शायद एक हफ़्ते में ही लग जाए। तब तक मैं बँगले का ग़ुसलख़ाना इस्तेमाल कर सकता हूँ, या अहाते के नल से दो-दो बाल्टी पानी सुबह-शाम लेकर काम चला सकता हूँ।

“छिः! बँगले जाकर कौन नहाएगा? और आदमी सिर्फ़ नहाने के लिए ही तो बाथरूम नहीं जाता न!”

महतोजी मेरे विचार से सहमत थे। मैंने दो बाल्टियाँ ख़रीदीं, और काम चलाने लगा। दिन हफ़्तों में बदले, और हफ़्ते-बीत महीना पूरा हुआ। मैं मृणमय के पास गया। उसने बड़ी आवभगत की, हमदर्दी जताई, ग़ुसलख़ाना इस्तेमाल करने का न्यौता दोहराया, टैंक न लगवा पाने पर अफ़सोस जताया, देरी की वजह बताई, और अगले हफ़्ते टैंक ज़रूर लगवा देने का वायदा भी किया। मैं चिढ़ गया, उसके रोकने पर भी झटके से उठ कर चला आया। दो बाल्टियों के राशन ने मुझे पागल कर डाला था। मुझे लगा, मृणमय मेरी भलमनसाहत का नाजायज़ फ़ायदा उठा रहा था, मेरे सब्र का जबरन इम्तहान ले रहा था।

मैंने वापस आकर ग़ुस्से पर क़ाबू पाने की कोशिश की, मेंहदी हसन की ग़ज़ल बजा कर लेट गया।

“देखो तो दिल कि जाँ से उठता है, ये धुआँ-सा कहाँ से उठता है” के बोलों में डूबते-उतराते अचानक एहसास हुआ, कोई जालीवाला मुख्यद्वार खटखटा रहा है।

महतोजी के खाना लाने में तो मेरे हिसाब से अभी एक घण्टा बाक़ी था। “आज इतनी जल्दी आ गए?” सोचता मैं बाहर निकला तो हैरान रह गया! जाली के उस पार बढ़ी दाढ़ीवाले महतोजी नहीं, मकानमालिक की लड़कियाँ खड़ी थीं। तेरह-चौदह साल की छोटी लड़की ऐसे हिल-हिल कर इठला रही थी जैसे सिर्फ़ उसी उम्र की लड़कियाँ इठला सकती हैं। सतरह-अठारह साल की बड़ी लड़की ने शरमाते हुए रुमाल से ढँकी एक प्लेट मेरी ओर बढ़ाई—“माँ ने भेजी है। आप तो इतनी जल्दी उठ कर चले आए कि . . .“

“क्या है यह?” मैंने उसकी ओर देखा। शाम के धुँधलके में भी उसके सर की सफ़ेद ओढ़नी और बदन पर सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा-कुर्ता बेसाख़्ता नमूदार थे।

“आप ख़ुद ही देख लीजिए न!” वह हौले से मुस्कुराई।

दरवाज़ा खोले बिना प्लेट लेना मुमक़िन न था, और उन्हें वापस भेज देना बदतमीज़ी होता।

दरवाज़ा खुलते ही छोटी लड़की बोली, “आप ये गाना ख़ूब सुनते हैं। आपके यहाँ से गाने की आवाज़ आते ही हमलोग समझ जाते हैं कि आप घर आ गए, और दीदी और हम छत पर आ जाते हैं। बहुत अच्छा लगता है।”

“चुप रह!” बड़ी बहन ने आँखें तरेरीं।

मेरी समझ में नहीं आया, क्या कहूँ। एक तरफ़ तो उसकी माँ ने “ऐसी-वैसी बात” नहीं होने की चेतावनी दी थी, और दूसरी तरफ़ उसी माँ ने शाम-ढले बेटियों के हाथ खाने का सामान भिजवाया था।

“भाई कहाँ हैं आपके?” मैं पूछ बैठा।

“भैया पढ़ रहा है। उसका इम्तिहान है,” छोटी लड़की बोली।

“तू जा तो! बहुत बकबक करती है!” बड़ी बहन ने उसे झिड़का, फिर मुझसे बोली, “पकौड़े ठण्डे हो जाएँगे। मैंने बनाए हैं।”

चौबीस साल के आदमी को खाना खाने के लिए ज़्यादा न्यौता नहीं देना पड़ता। वह हर समय खा सकता है—खाना खाने से पहले भी, खाना खाने के बाद भी, और शायद खाना खाने के दौरान भी।

मैंने लड़की के हाथ से प्लेट ले ली। उस पर बिछे सफ़ेद रुमाल के कोने पर गुलाबी धागे से अंग्रेज़ी के दो अक्षर, “एम एम“, कढ़े थे।

“ये दीदी का रुमाल है। आपस में गुम न जाए, इसलिए अपना नाम काढ़ दी है—मुग्धा मजुमदार।” छोटी बहन बोल पड़ी।

“और तुम्हारा नाम क्या है?” न चाह कर भी मैं मुस्कुरा उठा था।

“हमारा नाम मालती है।”

“तो यह रुमाल तुम्हारा भी तो हो सकता है?”

“नहीं, सिर्फ़ दीदी के रुमाल पर ही कढ़ाई रहती है।”

मैंने मुग्धा को देखा। वह मुस्कुराई, और मेरे कुछ बोलने से पहले ही “हम जाते हैं” कहती, सकुचाती, चली गई।

मैंने चैन की साँस ली। दरवाज़े पर ताला जड़ा, और पकौड़े खाते-खाते सोचा, “ग़ुस्सा जताने का असर अच्छा हुआ। इसकी माँ ने पकौड़े भिजवा दिए, अब इसका बाप पानी भिजवाएगा!”

पकौड़े गर्म भी थे और नर्म भी। मेरा रवैया भी ऐसा ही होना चाहिए, मैंने सोचा।

अगली सुबह महतोजी के इंतज़ार में बाहर देखा, तो निगाह के कोने में बँगले की छत आ गई। मुँडेर से कुछ पीछे हट कर मुग्धा खड़ी थी। वह मुझे देख कर मुस्कुराई।

“पकौड़े खा लिए थे?” उसने इशारों में पूछा।

“हाँ, खा लिए थे,” मैंने भी इशारों में जवाब दिया।

“कैसे लगे?” उसका अगला इशारा हुआ।

मुश्किल यह थी कि उसे नीचे से नहीं देखा जा सकता था, पर मेरी हर गतिविधि बँगले से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर थी। मेरे छत की ओर इशारे कोई भी देख सकता था, अर्थ का अनर्थ बना सकता था।

“बढ़िया थे,” बता कर मैं खिड़की से पीछे हट गया। थोड़ी देर में महतोजी आ गए और उनके हाथों मैंने प्लेट और रुमाल वापस भिजवा दिया।

उस सप्ताह के अंत में दौरे से लौटने पर मुझे ज़ीने के पास ईंटों का ढेर दिखा। सुबह मज़दूर और राजमिस्त्री आ गए और ज़ीने के ऊपर पानी का टैंक बनाने का काम शुरू हो गया। एक घण्टे में मृणमय अपने तीनों बच्चों के साथ काम का मुआयना करने आया।

“अब आपका पानी का प्रॉब्लेम सॉल्व हो जाएगा। गर्मी में थक कर वापस आएँगे और शावर के नीचे पाँच मिनट ही खड़े हो जाएँगे, तो कितना रिलीफ़ मिलेगा!” उसने कहा।

उस सुखद कल्पना से मेरे होठों पर मुस्कान आ गई, और मुझे मुस्कुराते देख पापा के पीछे छुपी मुग्धा भी मुस्कुरा उठी। मृणमय ने ताड़ लिया कि मैं उसकी बेटी को देख रहा हूँ, बोला, “यह तो पीछे पड़ गई है—अभी टंकी बनवाओ, अभी पानी लगवाओ! एक महीने से हम इधर थे ही नहीं, कल फिर चले जाएँगे आफ़िस के प्रोजेक्ट में,” वह फिर सफ़ाई देने लगा। अन्त में बोला, “देखिए, ये सब काम बिना किसी के सुपरविज़न के होता नहीं है। ऐसा करिएगा, अपनी टेबिल-चेयर यहीं बाहर छोड़ दीजिएगा। मानस यहीं बैठ कर एक्ज़ाम की तैयारी भी करता रहेगा और काम पर भी नज़र रख लेगा। क्यों बेटा?”

उसके बेटे, मानस, ने गर्दन हिलाई। वह मुग्धा से साल-दो साल छोटा रहा होगा।

मैंने भी हामी भरी। और चारा भी क्या था? थोड़ी देर बाद मृणमय तीनों बच्चों के साथ ज़ीना उतरने लगा। मुग्धा सबसे पीछे हो गई। उसने उतरते-उतरते मेरी ओर एक मुस्कान उछाली। मैं भी मुस्कुरा दिया। एक हफ़्ते में पानी जो आने वाला था! महतोजी भी आह्लादित हुए, “सुबह-शाम चार-चार बाल्टी पानी चढ़ा-चढ़ा कर कंधा दर्द कर जाता था,” उन्होंने पहली बार अपने दिल का भेद खोला।

टैंक उस सप्ताह बन कर तैयार हो गया। पर टैंक बनना एक बात होती है, उससे पानी आना दूसरी। जब तक टैंक की क्योरिंग न हो जाए और पम्प फ़िट न कर दिया जाए, उससे पानी नहीं आ सकता—मुझे कठोर वास्तविकता का पता लगा।

“बाबा के प्रोजेक्ट से वापस लौटने पर उन्हें पम्प लगवाने को कहेंगे,” मुग्धा का कथन था। मुझे गम्भीर होते देख बोली, “आप जब नहीं होते हैं, तो न आपके गाने की आवाज़ आती है, न आपके टेप की। उधर बाबा नहीं, इधर आप नहीं। बड़ा सूना-सूना लगता है!” फिर कुछ सोचती हुई बोली, “आपकी गानों की पसन्द कितनी अलग है! इतना अच्छा कैसे गा लेते हैं आप? हर सिंगर की आवाज़ मिला लेते हैं! आपको ‘निकाह’ के गाने आते हैं? पता है, हमको लोग सलमा आगा कहते हैं कॉलेज में। हम क्या सचमुच सलमा आगा जैसे दिखते हैं?” उसने बड़ी मासूमियत से मेरे चेहरे पर दृष्टि टिका दी।

“‘निकाह’ की सलमा आग़ा में मुझे बड़ा नक़लीपन लगता है। दुखी औरत को मेकअप करने की परवाह होती है? हो सकती है? और सलमा आग़ा की ही बात क्यों करें, क्या सचमुच कोई जेलर ‘शोले’ के असरानी-जैसा बेवक़ूफ़ हो सकता है? क्या तीन लोगों का ब्लड एक साथ कलेक्ट कर उसी समय रेसिपियेन्ट को चढ़ाया जा सकता है, जैसे ‘अमर अकबर एन्थनी’ में दिखाया गया है? ‘तोहफ़ा’ के जीतेन्द्र की तरह सफ़ेद पैंट पहन कर कितनी देर कीचड़ में नाचा जा सकता है? इक्का-दुक्का को इग्नोर करो, तो यह फ़िल्में हमें झूठ परोसती हैं, और हम उस झूठ की छाया अपनी ज़िन्दग़ी में तलाशने लगते हैं, उसकी झलक पाकर ख़ुश होने लगते हैं . . .” मैं बोलता गया और मुग्धा हैरत-भरी मुस्कान के साथ मेरा मुँह ताकती रही।

मुझे वहाँ रहते तीन महीने गुज़र चुके थे। वैसे तो मैं दौरों पर ही रहता, पर जो एक-दो दिन भी वहाँ गुज़ारता, उनमें मुग्धा मेरे पास ज़रूर आती। वह मेडिकल कॉलेज के पहले वर्ष में थी। कभी-कभी मेडिकल साइंस के बारे में बताती। मेरे पल्ले कुछ न पड़ता। मैंने उसे बता दिया कि मेरी माँ भी मुझे डॉक्टर बनाना चाहती थीं, लेकिन मुझे ख़ून से खेलने की जगह ग्रीज़ से खेलना, और उससे भी ज़्यादा स्याही से खेलना, पसन्द था।

“लेकिन आप इतना टूर क्यों करते हैं? मुश्किल से एक दिन रह पाते हैं घर में!” उसकी जिज्ञासा थी।

“भाई काम है, तो काम तो करना पड़ेगा न?”

“क्यों, आपके बॉस इतने स्ट्रिक्ट हैं?”

“बॉस तो बाद में देखेगा, पहले तो मैं ही देखता हूँ न? कोई भी काम करो तो इतनी अच्छी तरह से करो कि उससे बढ़िया करना पॉसिबल ही न हो। अगर फ़र्श पर पोंछा मारना हो तो ऐसे मारो, कि लोग कहें, ‘वाह! क्या पोंछा मारा है!’ अगर कपड़े धोओ तो ऐसे धोओ कि लोग कहें, ‘वाह! क्या कपड़े धुले हैं।’ इलाज करो तो ऐसे करो कि लोग कहें, ‘वाह! क्या डॉक्टर है!’ टाल-मटोल करना ठीक नहीं।”

“शादी करो तो ऐसे करो कि लोग कहें, ‘वाह! क्या शादी की है!’” बोल कर वह हँसती-हँसती भाग गई।

दिन बीतते गए। आख़िर एक दिन पम्प भी लग गया और टैंक में पानी गिरने की मधुर छटकार भी सुनाई पड़ी। उस दिन नहाने में इतना आनन्द आया कि क्या बताऊँ! बाहर निकले दो मिनट भी नहीं हुए होंगे कि मुग्धा आ धमकी। मुहल्ले में किसी शादी में लाउडस्पीकर पर बज रहे गीत की आवाज़ आ रही थी, “एक राधा, एक मीरा”।

मुग्धा बोली, “यह गाना गाना आसान नहीं।”

मैंने हामी भरी। वैसे मेरे विचार में उस गाने को बेवजह क्लिष्ट बना दिया गया था। अगर तानें और मुरकियाँ कम डाली गई होतीं, तो गाना ज़्यादा कर्णप्रिय हो सकता था।

“आप क्या सोचते हैं? राधा और मीरा के प्यार में क्या अन्तर है?”

“देखो, राधा सचमुच थीं या कोरी कल्पना की उपज हैं, मुझे नहीं पता। अलबत्ता, मीरा सचमुच इस दुनिया में थीं! कल्पना और वास्तविकता की तुलना करना ठीक नहीं।”

“मीरा मैरिड थी, फिर भी अपने हसबैण्ड को इग्नोर करके ‘कृष्ण-कृष्ण’ कहती रहती थी। यह न कृष्ण के लिए ठीक था, न उसके हसबैण्ड के लिए, और न ही मीरा के लिए।”

“मैरिड होने से पहले मीरा इंसान थीं। इंसान को भले बाँध लें, उसके मन को नहीं बाँध सकते।”

“लेकिन पति के होते किसी और से प्यार . . .”

“हम बड़ी जल्दी मन की लगन को प्यार की अलग-अलग कैटेगरी में डाल देते हैं। ‘यह’ प्यार ठीक है, ‘वह’ प्यार ग़लत! इसीलिए प्यार छुपाया जाता है, जबकि नफ़रत का ढिंढोरा पीटा जाता है।”

मुग्धा मुझे बड़े घ्यान से देख रही थी, जैसे मेरा एक शब्द भी न सुनने से उसका भारी नुक़सान हो जाएगा। बोली, “लेकिन, प्यार तो अलग-अलग ही होता है न! भाई का प्यार अलग है, माँ का अलग . . .”

“क्यों? प्यार को कैटेगराइज़ किए बिना काम नहीं चलेगा? यह प्यार की कमज़ोरी नहीं है, हमारी अपराध-भावना है। जानवरों से प्यार करने पर तो हम नहीं कहते कि हम ‘इसे’ कुत्ते की तरह प्यार करते हैं और ‘उसे’ बिल्ली की तरह? फिर आदमियों को प्यार करने पर यह लिमिटेशन क्यों आ जाती है? प्यार तो प्यार होता है। मीरा ने वही किया। लोगों ने उसे ग़लत-सही ठहरा दिया।”

“हूँ . . .”

वह कुछ कहती, उससे पहले मैंने उसे इशारे से रोक कर आगे कहा, “शायद अपराध-भावना इसलिए आती है कि आदमी की नीयत ठीक नहीं होती। वह पहले से ही एक एंड-रिज़ल्ट सोच कर, एक टाइम-फ़्रेम लेकर, चलता है। उसे सच्चा प्यार होता ही नहीं! अगर किसी से सच्चा प्यार है तो उसकी कल्पना करो। फिर यह कल्पना करो कि वह बदसूरत हो गया है या हो गई है, उसके कपड़े फट चुके हैं, उसके बाल झड़ गए हैं। क्या तब भी तुम्हें उससे उतना ही प्यार है? और आगे बढ़ो। उसके शरीर से चमड़ी हटा दो। जगह-जगह लाल-लाल माँस दिखने दो, ख़ून रिसने दो। अगर तुम्हारे प्यार में कमी होती है तो वह प्यार था ही नहीं। अब अगली स्टेज पर आओ। उस आदमी को सिर्फ़ हड्डियों का ढाँचा, कंकाल-भर, रह जाने दो। क्या अब भी तुम्हें उससे प्यार है? अगर है, तो शायद तुम्हारा प्यार सच्चा है। लेकिन आख़िरी स्टेज अभी बाक़ी है। अब उस आदमी को ही ग़ायब कर दो। जो प्यार उस समय भी तुम्हें मदहोश रखे, वहीं सच्चा प्यार है। बाक़ी सब ढोंग है।”

मुग्धा चुपचाप मेरी ओर देखती रही, कुछ बोली नहीं। फिर धीरे से उठी और चली गई। मैं भी महतोजी के आने का इंतज़ार करने लगा। भूख जो लग आई थी।

टैंक के पानी से नहाने का मेरा सुख गर्म रेत पर ओस की बूँद-जैसा अल्पजीवी निकला। नल फिर सूख गए और महतोजी को बाल्टियाँ भर-भर कर लाने की क़वायद दोबारा शुरू करनी पड़ी। मृणमय ने इस बार भी सफ़ाई दी, पर मेरा मन पूरी तरह खट्टा हो चुका था। मैंने महतोजी को दूसरा घर तलाशने को कहा, भले ही उसका किराया दोगुना ही क्यों न हो।

दौरे से वापस लौटने पर महतोजी ने ख़ुशख़बरी दी। घर मिल गया था। अगले दिन ही मैंने घर बदल लिया। मृणमय ने कोई झंझट नहीं किया।

दस दिनों के बाद दफ़्तर में मुग्धा की चिट्ठी मिली। उसने मेरे यूँ अचानक चले जाने पर दुःख प्रकट किया था। कहा था कि उसका मन किसी चीज़ में नहीं लग रहा, पढ़ाई में भी नहीं, और इस वजह से क्लास में कई बार उसका मज़ाक़ बनाया जा चुका है। मैंने पत्र का उत्तर नहीं दिया। एक झूठे और मक्कार बाप की बेटी से मैं सम्बन्ध नहीं रखना चाहता था। उसका फ़ोन भी आया ऑफ़िस में एक-दो बार, पर मैं हमेशा बाहर ही था। हमारी बात न हो सकी।

हमारा सम्पर्क टूट गया।


मैं मुग्धा को हरग़िज़ याद न करता, अगर मेरे एक मित्र ने उसका ज़िक्र न छेड़ दिया होता। वह डॉक्टर है। कुछ महीने पहले मैं उसके पास बैठा था। बातचीत के दौरान उसने कहा, “एक दिन मुझे तुम्हारी रचना इतनी अच्छी लगी कि मैंने अपनी कलीग को भी उसके कुछ हिस्से सुना दिए। वह बड़ी सीरियस टाइप की है, लेकिन लिटरेचर और म्यूज़िक में इंटरेस्ट है उसका तुम्हारी तरह। बातों-बातों में पता लगा, वह तो तुम्हें जानती है। शादी से पहले तुम जिस घर में रहते थे, उसी के मकानमालिक की लड़की है वह!”

“अच्छा! क्या नाम है उसका?” मैंने पूछा।

“मुग्धा मजुमदार!”

“मजुमदार? मजुमदार तो उसके बाप का नाम था!”

“शादी नहीं हुई है उसकी। हम डॉक्टर तुम इंजीनियरों की तरह थोड़े ही हैं कि फटाफट शादी कर लें!”

बात सच थी। डॉक्टरों को व्यवस्थित होने में ज़्यादा समय लगता था उन दिनों। मेरा मित्र मेरी उम्र का था पर सतरह-अठारह साल पहले ही गृहस्थी जमा सका था, जबकि मैं दो बच्चों का बाप बन चुका था, कई शहरों में काम कर चुका था, और पाँच नौकरियाँ बदल एक ऊँचे ओहदे पर पहुँच चुका था।

आज सुबह मैं मुग्धा के शहर आया था एक सेमिनार में प्रेज़ेन्टेशन देने। सेमिनार चार बजे समाप्त हो गया, और मेरी वापसी का प्लेन अगले दिन दोपहर बारह बजे था। अपने पुराने दफ़्तर गया तो पता चला, वह ब्रांच बन्द हो चुकी है। टहलते-टहलते मैं अपना पुराना घर देखने चला आया। रास्ते में बहुत कुछ बदला दिखा। परचून की दुकानें, चाय के टप्पर, ऑटो स्टैण्ड—सब की जगह बड़े-बड़े स्टोर खुल गए थे। लेकिन, मुख्य-सड़क अब भी वही पुरानी थी, कई मकानों ने अब भी चोला नहीं बदला था। हाँ, मेरे पुराने घर के सामनेवाले अहाते में एक पाँच-मंज़िला मकान बन गया था जिसकी वजह से वह घर अब सड़क से दिखाई नहीं देता था। बग़ल में ऊँची इमारत बन जाने से मृणमय का बँगला बौना दिखने लगा था। उसके दरवाज़े के पास दो नेमप्लेट लग गई थीं जिनका ज़िक्र मैं पहले ही कर चुका हूँ।

हिचक पर किसी तरह क़ाबू पाकर मैंने कॉलबेल का स्विच दबाया। दरवाज़ा खुलते ही मैं अचकचा गया। मेरे सामने मानस खड़ा था। वही पंद्रह-सोलह साल का मानस, जो कभी टैंक कन्सट्रक्शन का सुपरविज़न करने के लिए मेरे घर की खुली जगह में बैठा करता था, बाद में जिसने दोपहर में वहाँ बैठने की आदत बना ली थी पर जो मेरे घर लौटने से पहले भाग जाया करता था, जो वहाँ टॉफ़ियों के रैपर बिखरा के चला जाता था।

“मानस?” मेरे मुँह से निकल पड़ा।

“पापा से काम है आपको?” वह निश्चय ही मानस का बेटा था।

अपने को सँभालते हुए मैंने कहा, “दरअसल, मैं डॉक्टर मुग्धा से मिलने आया हूँ।”

“बुआ मरीज़ नहीं देखतीं।”

“ओह! पर मैं मरीज़ नहीं हूँ।”

“सर्टिफ़िकेट चाहिए आपको?” उसने मुझे ग़ौर से देखा।

“अरे नहीं, बेटा। उनसे कहो कि गौतम मजुमदार आए हैं।”

“अच्छा! आप यहीं रुकिए,” कह कर, ‘गौतम मजुमदार, गौतम मजुमदार’ दोहराता वह अन्दर चला गया। मैं बाहर सीढ़ियों पर खड़ा इन्तज़ार करने लगा। अगल-बग़ल से बच्चों के खेलने की आवाज़ें आ रही थीं। बीच-बीच में उनकी माँओं का अस्पष्ट स्वर सुनाई पड़ता। कहीं टेलिविज़न भी चालू था। छब्बीस वर्षों ने आवाज़ों को कितना बदल दिया था! न लाउडस्पीकर पर गाने सुनाई दे रहे थे, न फेरीवाले हाँक लगा रहे थे, और न ही मवेशियों की पुकार सुनाई दे रही थी।

तीन-चार मिनट बाद उस लड़के ने आकर दरवाज़ा खोला।

“आइए,” वह मुझे बैठक से सटे एक छोटे-से कमरे में ले जाकर बोला, “बैठिए, बुआ आ रही हैं।”

उसने ट्यूबलाइट का स्विच ऑन किया, और समय व्यर्थ किए बिना बाहर निकल गया।

ज़ाहिर है कि वह कमरा कभी मरीज़ों की जाँच करने के काम में आता होगा, पर अब उसका इस्तेमाल ग़ैर-ज़रूरी बातों के लिए किया जा रहा था। कमरे में डॉक्टर की मेज़ तो थी, पर उसके पीछे की रिवॉल्विंग कुर्सी नदारत थी। दूसरी ओर लकड़ी की दो कुर्सियाँ पड़ी थीं। मरीज़ की काउच पर कपड़ों का गट्ठर रखा था। आलमारी में दवाओं के डब्बों और मेडिकल औज़ारों के साथ अधफटा लूडो और पुराने फ़ोन दिख रहे थे। कमरे के कोने में क्रिकेट का बल्ला पड़ा था। दीवार पर लटके मेडिकल चार्ट पर बच्चे के हाथ से खींची आड़ी-तिरछी रेखाएँ नज़र आ रही थीं। ट्यूबलाइट के पास एक छिपकली सो रही थी। न जाने किस दिन या रात तीन बज कर सात मिनट तक समय दिखाने के बाद दीवार घड़ी पस्त होकर बन्द हो चुकी थी।

मुग्धा चुपचाप अन्दर दाख़िल होकर एक कुर्सी पर धप्-से बैठ गई। उसने कुर्सी के हत्थे इतनी मज़बूती से थाम लिए जैसे सहारा हटते ही वह गिर पड़ेगी। थोड़ी देर फ़र्श की ओर देखती रही, फिर धीरे से सिर उठा कर पूछा, “आप यहाँ कैसे?”

छब्बीस साल में इन्सान इतना थक सकता है कि उसका अंग-प्रत्यंग शिथिल हो जाए, उसकी आवाज़ में रत्तीभर खनखनाहट भी बाक़ी न रहे, उसकी आँखों में जाले उतर आएँ, और उसे मामूली-से-मामूली हरक़त के लिए भी इतनी मशक्कत करनी पड़े? मैं दंग रह गया। यह मुग्धा उस मुग्धा की परछाँई भी नहीं थी जो गिलहरी की तरह बिना आवाज़ किए ज़ीने की सोलह सीढ़ियाँ एक साँस में चढ़ जाती थी, जिसके होंठ ही नहीं आँखों के कोने भी मुस्कुराते थे, जिसकी छल्लेदार बातों का अन्त ही नहीं होता था, जिसकी रग-रग से उम्मीद और ज़िन्दग़ी छलकती थी।

ख़ुद पर क़ाबू पाने में मुझे कुछ समय लगा। मैंने दूसरी कुर्सी पर पड़ी किताबें मेज़ पर रखीं, कुर्सी को थोड़ा दूर खिसकाया, उस पर बैठने में सामान्य से अधिक समय लिया, और इतना कुछ करने के बाद ही उसे दोबारा देखने की हिम्मत जुटा पाया, “एक सेमिनार में आया था।”

“हो गया?” उसकी मुट्ठियाँ ढीली हुईं।

“हाँ! कल वापस जा रहा हूँ।”

थोड़ी देर चुप्पी रही। मैं अपने नाख़ूनों का मुआयना करता रहा, मुग्धा कुर्सी के हत्थों पर तर्जनी फिराने लगी।

“अचानक आना हुआ, सो ख़ाली हाथ चला आया,” मैंने सफ़ाई दी।

“आप पहले ही कब कुछ लाते थे?” उसकी आँखों के जाले साफ़ होने लगे, दाहिना हाथ कुर्सी के हत्थे की ग़िरफ़्त से आज़ाद हो गया। “मंगल की शादी में पैकेट लेकर आए और वापस ले गए। सब समझे गिफ़्ट देना भूल गए, पर हम जानते थे, पैकेट में आपका लंच-बॉक्स था,” उसने चिर-परिचित अंदाज़ में हाथ हिलाया।

बात सच थी। मंगल मेरे-वाले सेट के नीचे बने कमरों में रहता था। उससे मेरी मामूली जान-पहचान तक नहीं थी। मुग्धा के इसरार की वजह से मैं शादी में बस बधाई देकर चला आया था। मुझे जाते देख उसने रोका था, पर मैंने मुग्धा की एक न सुनी थी।

मैंने झेंप मिटाने को प्रतिवाद किया, “तुमने भी पकौड़ों के सिवाय कब कुछ खिलाया?”

“आप जब भी घर आते थे, हमारी बनाई चाय ही पीते थे।”

“मैं समझता था कि वह चाय तुम्हारी नौकरानी बनाती थी!”

“वह बड़ी फीकी चाय बनाती थी। वह जो आपके वहाँ आते थे न . . . क्या नाम था उनका . . . जो खाना लाते थे . . .” उसने मेरे चेहरे पर एक पल नज़रें गड़ाईं, और फिर झुका लीं।

“महतोजी?”

“हाँ, महतोजी से पता चल गया था कि आप टप्परवाली उबली, कड़क, चाय पीते हैं। राधा को समझाने से बेहतर था, कि हम ख़ुद ही बना दें। आपके साथ बाबा भी कड़क चाय पी लेते थे, वर्ना उनकी चाय हमेशा पतली होती थी। बड़े ज़िद्दी आदमी थे, सिर्फ़ हमारी सुन लेते थे कभी-कभी। अम्मा भी डरती थीं उनसे। अब तो दोनों ही नहीं रहे।” उसकी आवाज़ दोबारा धीमी हो गई।

मैं थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोला, “यह लड़का . . . मानस का है न?”

“हाँ! मानस अभी घर पर नहीं है। साढ़े-सात पौने-आठ तक आएगा।” वह बाएँ हाथ की तर्जनी पर दुपट्टे का छोर लपेटने लगी।

“और मालती?”

“नाम सबके याद हैं आपको! मालती शादी कर के पूना चली गई। दो बच्चे हैं उसके,” उसने कुर्सी के हत्थे फिर जकड़ लिए।

“वाह! नाम कैसे नहीं याद होंगे। मालती अमिया कुतर-कुतर कर छिलके घर के सामने बिखेर जाती थी, और मानस टॉफ़ी के रैपर फेंक जाता था।”

वह अप्रत्याशित रूप से हँस पड़ी, “मानस और मालती बड़ी अच्छी नक़ल उतारते थे आपकी। मालती डिट्टो आप-जैसे चलती थी, और मानस आपकी तरह चश्मा लगा कर दूर ताकते हुए अंग्रेज़ी में कुछ-कुछ बोलता था। माँ मज़ा भी लेती थी, फिर डाँट भी देती थी। माँ को बहुत पसन्द थे आप। ‘दस मिनट मिल कर आजा,’ बोल कर भेज दिया करती थी आपके पास, और फिर देर होते ही ख़ुद ही घबराने लगती थी—‘इतनी देर क्यों लगा दी? क्या कर रही थी?’ एक-एक बात खोद-खोद कर पूछे बिना चैन नहीं पड़ता था उसे। हमें भी मज़ा आता था। उसी बहाने हर पल को दोबारा जी लेते थे।”

“और बाबा?”

“वे आप से बहुत इम्प्रेस्ड रहते थे। मानस को बोलते थे, ‘देखो! ऐसे डिसिप्लिन से रहना चाहिए। बेचारा अकेला रहता है, अच्छा कमाता है, लेकिन मज़ाल है कि सिगरेट-शराब को हाथ भी लगाए? लड़कियाँ ताके? घर आता है तो दाएँ-बाएँ देखता तक नहीं। ठीक नौ बजे दफ़्तर चला जाता है, और टूर पर तो सुबह छः बजे ही निकल जाता है। आई आई टी ऐसे ही क्लियर नहीं होती! तपस्या करनी पड़ती है, तपस्या!’” बोलते-बोलते मुग्धा हँस पड़ी।

“वह जितना लेक्चर देते, मानस उतना ही चिढ़ता, लेकिन उन्हें पलट कर जवाब देने की हिम्मत नहीं थी उसमें। हम मन-ही-मन ख़ुश होते। अगली बार आपके घर जाते, तो आपके पास आने की कोशिश करते। लेकिन आपको तो जैसे करेंट लगता था हमसे, दो फ़ुट का डिस्टेंस हमेशा बनाए रखते थे। एक उँगली तक नहीं छुई!” उसके स्वर में गर्व और हताशा, हर्ष और विषाद, सब का पुट एकसाथ था।

“एक बार तुम वापस जाने का नाम ही नहीं ले रही थीं। शायद उस रात तुम्हारे माँ-बाबा किसी शादी में गए हुए थे . . .”

“. . . और हम पेट-दर्द का बहाना कर घर में रुक गए थे।” मुग्धा ने बात काटी। “हमने सोचा था कि आपसे ख़ूब सारी बात करेंगे, पर आपका तो जैसे दस मिनट बाद अलार्म चालू हो गया था, ‘घर जाओ, घर जाओ!’ हमने बताया भी कि कोई जल्दी नहीं है, पर आप काहे को समझते?”

“हाँ, आख़िर में तुम्हारे कंधे थाम कर वापस भेजना पड़ा था उस शाम, और फिर भी तुमने जाने में टाइम लिया था!” मैंने बात पूरी की।

मुग्धा का मुँह रक्तिम हो गया, सिर और झुक गया। दो क्षण की ख़ामोशी के बाद उसके होंठ काँपे, “बस, उस एक बार ही आपने हमें छुआ। अच्छा था कि हमारा मुँह दूसरी तरफ़ हो गया था, वरना आप पता नहीं क्या समझते! पूरा बदन गनगना गया था हमारा, चक्कर-सा आ गया था।” उसकी बाँहों पर रोंए खड़े हो गए, पर वह बोलती गई, “दो घण्टे बाद माँ लौटी तो भाँप गई, कुछ हुआ है। जब हमने सच-सच बताया तो पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ, फिर ठठा कर हँसते हुए बोली, ‘तुम लोग तो अशोक कुमार-देविका रानी के भी दादा-दादी निकले!’ उसने दूसरे दिन बड़ी सीरियसनेस से कहा था, ‘ऐसे लड़के भाग्य से ही मिलते हैं।’“

उसकी आँखों के जाले साफ़ हो चुके थे, उनकी गहराई नज़र आने लगी थी। ओढ़नी लपेटते-खोलते हुए उसने बात जारी रखी, “बाबा भी आपका मन टटोलने एक बार दो लोगों के साथ आपके वहाँ गए थे। आपने साफ़ कह दिया था कि आपकी शादी आपके माँ-बाप की मर्ज़ी से होगी। यह बात सुन कर बाबा बहुत ख़ुश हुए थे। ‘कितना संस्कारी है!’ बोले थे। लेकिन जब माँ ने आपके माँ-बाप से बात चलाने के लिए कहा, तो उन्होंने झड़प दिया था। उनका ख़याल था कि हमारी वजह से आप घर नहीं छोड़ेंगे, एक-न-एक दिन महतोजी बाल्टियों में पानी ले जाने से इन्कार कर देंगे, थक-हार कर आप हमारा बाथरूम इस्तेमाल करने पर मजबूर हो जाएँगे, और फिर वे अपने मन-मुताबिक़ हमारी शादी करवा देंगे। हमने बहुत मना किया, पर वह हम सब पर हावी हो जाते थे, सुनते ही नहीं थे, समझना ही नहीं चाहते थे। अंत में, जिसका हमको डर था, वहीं हुआ। आप चले गए, बिना बोले, बिना बताए।”

उसने एक पैर के अँगूठे को दूसरे पैर के अँगूठे से कुरेदा, ललाट से बाल हटाए, और मेरी आँखों में झाँक कर बोली, “हमारी छोड़िए, माँ भी टूट गई। मालती और मानस गुमसुम रहने लगे। हमने बाबा से बातचीत बन्द कर दी। एक बार सोचा कि आपके बॉस से बात करें, पर माँ ने मना कर दिया। बोली, ‘अगर उसके दिल में तेरे लिए थोड़ी-सी भी जगह होगी तो एक-न-एक दिन ज़रूर लौट आएगा तेरे पास।’ पर वह दिन नहीं आया। हम जीते-जी मर गए। इन्द्र की वजह से अहिल्या पत्थर बन गई थी, बाबा की वजह से हम अहिल्या बन गए। बाबा ने हमारा ब्याह तय करने की कोशिश की, पर हम मीरा नहीं बनना चाहते थे। जब मन-ही-मन आपको अपना लिया, तो किसी दूसरे के लिए जगह कैसे बनाते? आप कहते थे न, कोई भी काम करो तो ऐसे करो कि उससे अच्छी तरह करना पॉसिबल ही न हो। बेगारी कैसे टालते? बाबा ने जब बहुत ज़ोर डाला तो हमने अल्टिमेटम दे दिया हिस्टरेक्टमी करवाने का।”

मुग्धा का प्रेम इतना गहरा होगा, मुझे पता न था। काश! मैंने उसे पहले ही समझा दिया होता। लेकिन अब तो बहुत देर हो चुकी थी। बात साफ़ थी कि वह डिप्रेस्ड थी। मुझसे मिल कर इतना कुछ बोल पा रही थी, वही बहुत था। मैं सोच में डूब गया।

“आप किस सोच में पड़ गए? आज इतने साल बाद मिले हैं, हम आपके लिए टप्परवाली चाय लाते हैं।” वह जल्दी-से बाहर निकल गई। मैं हैरान था! बीस मिनट में ही उसकी चाल में ज़मीन-आसमान का फ़र्क आ गया था।

“दीदी, तुम रसोई घर में क्या कर रही हो? डॉक्टर ने अकेले रसोईघर में जाने से मना किया है न?” एक पुरुष स्वर उभरा। शायद मानस घर आ गया था। बाहर से दबी-दबी आवाज़ें आती रहीं, और फिर मुग्धा चाय की ट्रे लेकर मुस्कुराती हुई अन्दर आई।

“मानस आ गया है। आपसे मिलना चाह रहा था। हमने कहा, पहले हाथ-मुँह तो धो ले,” उसने चाय का प्याला पकड़ाते हुए कहा।

चाय टप्परवाली ही थी। वैसी ही, जैसी वह छब्बीस साल पहले बनाती थी।

“तुम नहीं लोगी?” मैंने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।

वह खड़ी रही, “हम कहाँ चाय पीते हैं!” फिर आवाज़ धीमी करते हुए कातर स्वर में बोली, “यह तो नहीं कह सकते कि आप हमारे कन्धे एक बार फिर छुएँ, पर, टु बी फ़ेयर, हमको भी तो आपको छूने का मौक़ा एक बार मिलना चाहिए न?” कहते-कहते वह मेरी बग़ल से होते हुए पीछे चली गई। उसने मेरी गर्दन को स्पर्श किया। सिहरने की बारी अब मेरी थी। मैंने चाय का प्याला दोनों हाथों से सम्भाल लिया। मेरी गर्दन पर ठंडक के साथ चुभन-सी हुई।

“दीदी, ये क्या किया तुमने?” मानस ने अंदर प्रवेश करते हुए कहा।

“डर मत, हम इनका कुछ बुरा कर सकते हैं भला?”

मेरी आँखें मुँद रही थीं, पर गूँजती ध्वनियाँ अब भी सुनाई पड़ रही थीं।

“तो यह सब क्या है?”

“तुम हमारा मज़ाक़ उड़ाते थे न कि हमारे पति हमें भूल चुके हैं? देखो, छब्बीस साल बाद भी ये हमें नहीं भूले। आज इनके हाथ से अपनी माँग भर कर सबका मुँह हमेशा के लिए बन्द कर देंगे। हाँ, हमारे भी पति हैं, हम भी ब्याहता हैं। हम अहिल्या नहीं हैं, हम मीरा नहीं हैं, हम भी एक गृहस्थ औरत हैं . . .”

“यह क्या कर रही हो दीदी? जानती हो, यह जुर्म है। होश आने के बाद अगर इसने पुलिस में रिपोर्ट कर दी तो हम सब अंदर हो जाएँगे।”

“तुम इन्हें नहीं जानते। हमने ऐसे ही इनका व्रत नहीं लिया। इनमें अपार धैर्य है। ये विष पीकर चुप रहनेवाले शिव हैं। बर्दाश्त कर लेंगे पर मर्यादा नहीं लाँघेंगे। सुन, हमने नींद की दवा खा ली है, सोने जा रहे हैं। बीस मिनट में इन्हें पूरा होश आ जाएगा। चाय गर्म कर के पिला देना, और बाथरूम ले जाने के बाद होटल छोड़ देना।”

मुझे होश आने के बाद मानस ने वैसा ही किया जैसा उससे कहा गया था। मैंने बाथरूम में जाकर देखा, मेरी उँगलियों में सिंदूर लगा था। मैंने एक पेपर नैपकिन में उँगली अच्छी तरह पोंछी, और नैपकिन फेंकने की बजाय जेब में सम्भाल कर रख लिया। उसी सिंदूर से तो अहिल्या ने अपना उद्धार किया था!

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