नीरव नीड़
अमिताभ वर्मा
बरसात के दिनों में बाहर निकलते ही मैं आसमान की ओर ऐसे ताकता हूँ जैसे रेलगाड़ी में बिना-टिकट यात्री पकड़े जाने के अंदेशे से बार-बार इधर-उधर देखता है और भूत-प्रेत-चोर के डर की मारी युवती पलंग के नीचे, दरवाज़े के पीछे, और हर परछाईं के इर्द-गिर्द घूरती है। उस दिन भी यही हुआ। दूर ही सही, पर आसमान के कोने में भूरे बादल वैसे ही घुमड़ रहे थे जैसे शादी के तम्बू के बाहर ग़रीब बच्चे कुछ पा लेने के लालच में जमा होने लगते हैं। अगर तुरन्त न निकला गया, तो हवाई-अड्डे तक पहुँचने से पहले बारिश में फँसने की पूरी आशंका थी।
“छाते ले लें?” मैंने सवाल कम पूछा, मंतव्य ज़्यादा ज़ाहिर किया।
बुज़ुर्ग गृह-स्वामी की वही बातें समझी जाती हैं जिनसे परिवार के शेष सदस्यों की योजना में ख़लल पड़ने का ख़तरा हो, बाक़ी पुरोहित के संस्कृत श्लोक की तरह सिर्फ़ सुन कर दरकिनार कर दी जाती हैं। दक्ष पुरोहित और सफल गृह-स्वामी इस उपेक्षा के अभ्यस्त होते हैं।
लेकिन सदा फ़ेल होनेवाला बच्चा भी प्रभु-कृपा से कभी-न-कभी पास हो ही जाता है, जैसे पुराने ज़माने में अंधे के हाथ बटेर लग जाती थी। उस दिन भी वैसा ही हुआ। मेरी पत्नी महिषी झटपट वापस मुड़ी और तपाक से दो छाते ले आई। गाड़ी के बूट में बैग और दोनों छाते रखने के बाद भी इतनी जगह पर्याप्त बची थी कि दो सूअर समा जाते। ये बात मैंने सिर्फ़ कहने के लिए कह दी, बूट में सूअरों को सवारी कराने का मेरा कोई इरादा न था। चार पैर के हों या दो के, खाने की मेज़ पर हों या बैठक की, मैं सूअरों से कन्नी काटता हूँ। चाहे कितने भी पैरों के हों, मुझे कीचड़ में लिपटे सूअरों की आँखों में सदा मुक़ाबला करने की चुनौती दिखती है। मैंने बूट बन्द कर गाड़ी स्टार्ट कर दी।
जैसे आइंस्टाइन को सापेक्षवाद और मार्क्स को साम्यवाद के बारे में हर बात मालूम थी, वैसे ही मेरी पत्नी महिषी और मेरी पुत्रवधू आशा सिनेमाजगत की रग-रग से वाक़िफ़ हैं। थोड़ी देर में उनका चिंतन-मनन आरम्भ हो गया। विषय था, अमुक विज्ञापन में जिस आदमी की एक झलक दिखती है, वह रणबीर कपूर है या नहीं। महिषी उसके रणबीर कपूर होने के बारे में तर्क-पर-तर्क दे रही थी, और आशा यह साबित करने पर तुली थी कि उस व्यक्ति के रणबीर कपूर होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था। मुझे दोनों की बातों में दम लग रहा था, किन्तु एक तो उस वाद-विवाद में मेरी भूमिका भीष्म पितामह से अधिक की नहीं थी, और दूसरे, मेरे टेलिविज़न दर्शन का औरांग-उटान की कलाबाज़ियों और बन्दरों की उठाईगीरी तक सीमित होना कोढ़ में खाज ही पैदा कर सकता था।
“शुरू हो गई!” अद्भुत बुदबुदाया।
“शुरू ‘हो‘ गईं? अरे, ये दोनों तो पिछले पाँच मिनटों से रणधीर कपूर या रणबीर सिंह के बारे में बात कर रही हैं जो शायद बाप-बेटे हैं और जिनमें जो बेटा है उसने ऑटिस्मवाली फ़िल्म में उस लड़की के साथ काम किया था जिसकी कलाई पर उसके पिता के नाम का गोदना है . . .” मैंने हैरत से उसे देखा।
अद्भुत ने सामने के शीशे की ओर इंगित किया। वैसे गाड़ी चलाते समय मैं सामने ही देखता हूँ, बेहद ध्यान से देखता हूँ, और कहीं और नहीं देखता, फिर भी न जाने कैसे बॉनेट और शीशे पर हल्की-हल्की गिरती बूँदें मेरी नज़रों को धोखा देने में कामयाब हो गई थीं। हो सकता है कि दैत्याकार खुदाई मशीनों, विशालकाय ट्रकों, मधुमक्खी-सी चलायमान अन्य गाड़ियों और छुट्टा घूमते आवारा मवेशियों से बच कर निकलने की जुगत में मैं इतना मशग़ूल हो गया था कि पानी की नन्ही बूँदों पर ध्यान ही नहीं गया। बड़ों के आगे छोटों की क्या बिसात?
बरसात अपनी उपेक्षा से ख़फ़ा हो गई। शीशे और बॉनेट पर ’पटापट-पटापट’ की लय के साथ समोसे के आकार की बूँदें गिरने लगीं। बेचारा वाइपर नाच-नाच कर उनकी सेवा में जुट गया, लेकिन उसका प्रयास सांत्वना पुरस्कार से अधिक का हक़दार नहीं था। कुछ देर पहले का मस्त हाथी की तरह झूमता ट्रैफ़िक अब चींटी की क़तारों में सड़क पर नवनिर्मित नदी-नालों के इर्द-गिर्द रेंगने लगा। बेशक, कुछ वीर ऐसी हालत में भी तेज़ रफ़्तार से आसपास जल का मुफ़्त छिड़काव कर गालियों का पुण्य बटोर रहे थे। कोई और दिन होता तो मैं मौसम का भरपूर मज़ा लेता, पर आज बात दूसरी थी—फ़्लाइट छूट जाने का डर था। लिहाज़ा, मैं पचहत्तर किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से गाड़ी चलाता रहा।
पार्किंग टिकट की मशीन को कचरेवाले काले पॉलिथीन का घूँघट उढ़ा कर सादग़ी के सौंदर्य को नया आयाम प्रदान किया गया था। उसकी बग़ल में तैनात कर्मचारी से टिकट लेकर हम ’प्रस्थान’ की ओर बढ़े। बारिश लगभग थम गई थी, फिर भी छातों की ज़रूरत तो थी ही, भीगी हालत में हवाई जहाज़ का सफ़र करवा कर अद्भुत और आशा को बीमार थोड़े-ही करना था! हमसे विदा लेकर वे हवाईअड्डे में दाख़िल हो गए। हम प्रवेशद्वार के पास एक ख़ाली काउंटर के सामने खड़े हो गए। वहाँ से अन्दर साफ़ दिखाई दे रहा था। क़रीब पाँच मिनट चेक-इन काउंटर के आगे खड़े रहने के बाद अद्भुत और आशा ने बोर्डिंग पास लिए और प्रवेशद्वार की ओर देखा। ज़ाहिर है, उन्हें हम नहीं दिख सकते थे, फिर भी हमने हाथ हिलाया और उनकी तरफ़ तब तक ताकते रहे जब तक वे एस्केलेटर से ऊपर जाकर किसी ऐसी जगह नहीं चले गए जहाँ से उनका और दिखाई पड़ना मुमक़िन न रहा।
हवाईअड्डे से रौनक़ ग़ायब हो चुकी थी। मेरा शरीर शिथिल-सा हो गया, हाथ-पाँव में जान न रही। मैंने महिषी को देखा। आसमान के बादल न जाने कब उसकी आँखों में उतर आए थे। एक पल मुझे देख वह बुदबुदाई, “चले गए!” उसके माथे पर उम्र, थकावट, और मायूसी की लकीरें उभर आई थीं। एक-दूसरे का हाथ थामे, कंधे झुकाए, भारी मन हम पार्किंग की ओर बढ़े। थोड़ी-सी देर में कितना बदल गया था सबकुछ!
शाम ढले बग़ैर अँधेरा घिर आया। निर्माणाधीन फ़्लाईओवर, आधी बनी दीवारों और पिल्लर तथा इधर-उधर बिखरी इस्पात की छड़ों और पानी से भरे गड्ढों के बीच मैं यन्त्रवत गाड़ी चलाता रहा। महिषी अब मेरी बग़ल में थी पर हम दोनों ख़ामोश थे।
बादलों का गर्जन-तर्जन पुनः आरम्भ हो गया। इस बार बारिश का ताण्डव भयावह था। वाइपर का होना-न-होना एक बराबर था। ऊपर से, शीशे पर जगह-जगह बन गए अपारदर्शी सफ़ेद धब्बों ने मुश्किल और बढ़ा दी। सड़क पर लैम्पपोस्ट थे ही नहीं। अक्सर पता ही नहीं चलता कि गाड़ी सही तौर पर सड़क पर है या बहक रही है। स्टीयरिंग की मामूली सी चूक गंभीर दुर्घटना का सबब बन सकती थी। गाड़ी का डिवाइडर पर चढ़ कर पलटना और सड़क के किनारे बनी दीवार से टकरा कर चूर-चूर हो जाना, दोनों में से कुछ भी जानलेवा हो सकता था। सड़क पर रुक भी नहीं सकते थे, उसमें पीछे से आनेवाले वाहनों की टक्कर लगने का डर था।
आधे घंटे तक क़हर बरपाने के बाद मौसम का मिज़ाज कुछ नर्म पड़ा। हमारा सही-सलामत घर लौटना किसी चमत्कार से कम नहीं था, लेकिन हमें उसका कोई ख़्याल न था। बच्चों के बिना कौन माता-पिता सही-सलामत रहना चाहते हैं? नीड़ नीरव हो चुका था!
हमने घड़ी की ओर देखा, फिर एक-दूसरे को।
”एक घंटे बाद बच्चों को फोन करेंगे। तब तक वे लैंड कर चुके होंगे,” दोनों की ज़ुबान से एक साथ निकला।