हवेली का सुख
अमिताभ वर्मा(कुछ लोग सड़क से कुछ हट कर खड़ी एक बस से उतरते हैं।)
गाइड (पुकार कर):
मुसाफ़िरो! शहर के टूर का आधा हिस्सा पूरा हो गया है। अब बस यहाँ रुकेगी, लेकिन सिर्फ़ आधे घण्टे के लिए। सामने होटल में खाने-पीने, बाथरूम, सबका इंतज़ाम है। जिनको जाना हो, जा सकते हैं। जिनको खाना हो, खा सकते हैं। लेकिन जाने से पहले, खाने से पहले, याद रखिएगा कि ठीक आधे घंटे के अंदर यहाँ वापस आ जाना है। वरना बस चली जाएगी फुर्र से, और आप रह जाएँगे दूर पे!
नीता:
कितनी मज़ेदार बात करते हैं गाइड अंकल, है न मम्मी?
आशा:
हाँ, नीता! ... तुम्हारे पापा कहाँ गए? ... वो देखो, वह उधर अकेले खड़े हैं! ... ए जी, (हँसते हुए) उधर उस मकान की तरफ़ क्या देख रहे हैं इतने ग़ौर से? ... चलिए, कुछ खा-पी लेते हैं।
विनय:
हूँ! चलो आशा। ... आओ बेटी नीता।
नीता:
पापा, मेरा मन नहीं कर रहा कुछ भी खाने का। मितली-जैसी आ रही है।
आशा:
मन तो वैसे मेरा भी नहीं है। बस में इतनी देर बैठे-बैठे कमर अकड़ गई है।
विनय:
तो चलो, यहीं कुछ चहलक़दमी कर लेते हैं। ... उधर वह आदमी नींबू की शिकंजी बेच रहा है। ... नींबू की शिकंजी पियोगी नीता? मन ठीक हो जाएगा।
नीता:
नींबू की शिकंजी क्या होती है?
अजनबी:
नींबू की शिकंजी नहीं जानती, शहर की लड़की ... (ठहाका मारता है) ... नींबू की शिकंजी नहीं जानती!
नीता (डर कर):
मम्मी!
अजनबी:
डरो नहीं, डरो नहीं!
विनय:
चलो बेटा, चलो। शिकंजीवाले के पास चलते हैं।
अजनबी:
जाना है तो जाओ। लेकिन बढ़िया काग़ज़ी नींबू की ख़ुश्बूदार लज़्ज़तदार मिश्री-डली शिकंजी पीने लोग मेरे ही पास आते थे!
आशा (धीरे से):
बावला मालूम होता है।
विनय:
दो भैया! तीन शिकंजी बनाना।
आशा:
पहले गिलास साफ़ कर लेना ठीक से।
शिकंजीवाला:
गिलास साफ़ है बीवीजी! ... बर्फ़ डाल कर दूँ या बिना बर्फ़ की?
विनयः
बिना बर्फ़ की!
नीताः
क्यों पापा? बिना बर्फ़ की क्यों?
आशा:
पता नहीं बर्फ़ कैसी गन्दी-सन्दी होगी!
अजनबीः
मेरे घर की बर्फ़ एकदम साफ़ होती थी!
आशाः
अरे! ये बावला यहाँ भी आ गया।
शिकंजीवालाः
ठीक कहा आपने! बैरिस्टर साहब बावले ही हो गए हैं। ... (अजनबी से) बैरिस्टर साहब, माफ़ कीजिए! इन लोगों को चैन से शिकंजी पीने दीजिए!
विनय (शिकंजी की चुस्की लेते हुए):
बैरिस्टर साहब! ... बड़ा चुन कर नाम रखा है इस बावले का!
शिकंजीवालाः
नाम नहीं रखा है, ये सचमुच इस शहर के सबसे बड़े वकील थे। ये बंगला इन्हीं का तो है! हमसब पहले इनको रोज़ पचीसों बार सलाम करते थे!
विनयः
अच्छा? बस से उतर कर मैं इसी बंगले को देख रहा था। ... किसी ज़माने में बड़ा शानदार रहा होगा। लेकिन आज तो बस, खंडहर दिखता है।
अजनबीः
खंडहर तो पहले था ये, अब महल बन गया है। ... जो दिखता है वह होता नहीं, और जो होता है वह दिखता नहीं। ... ये टूरिस्ट बस रोज़ मेरे महल के सामने रुकती है, लेकिन मेरे इस महल को कोई नहीं देखता। सब सड़क की दूसरी ओर, उस ढाबे को ही देखते हैं।
विनयः
इस खंडहर में ... मेरा मतलब है, आपके इस महल में ऐसा है ही क्या जो इसे देखा जाए?
अजनबीः
सतरह एकड़ में बने इस महल का चप्पा-चप्पा, इसका एक-एक दरख़्त, इसकी एक-एक ईंट पुकार-पुकार कर कहती है, ज़िदग़ी में ख़ुश रहना है, कामयाब होना है, तो एक बार हमारी बात सुन लो, हमारी दास्तान सुन लो, हमारी कहानी सुन लो – फिर मानना-न-मानना तुम्हारी मर्ज़ी! जीतना या हारना, तुम्हारी मर्ज़ी!
आशा:
हे भगवान, ये हम कहाँ फँस गए!
शिकंजीवालाः
परेशान न होइए। बैरिस्टर साहब कोई बेजा बात नहीं करेंगे। अभी तो बस छूटने में पंद्रह-बीस मिनट बाक़ी हैं। ... सुन लीजिए बूढ़े आदमी की बात!
अजनबीः
आओ मेरे साथ। डरो नहीं! जो मुझे चाहिए था वह कभी मिला नहीं, और जो मिला उसे मैं कभी सँभाल ही नहीं सका। ... सँभल कर आओ ... (चारों धीरे-धीरे बंगले की ओर बढ़ते हैं) ... ये देखो ... यह मेन गेट है मेरे महल का, सिंह द्वार ... कितने बड़े-बड़े रईस इससे हो कर मेरे महल में आए, कितनी लम्बी-लम्बी चमचमाती गाड़ियाँ इससे गुज़रीं, यह आज ख़ुद भी भूल गया होगा।
नीताः
इसके दोनों तरफ़ मूर्तियाँ बनी हैं।
अजनबीः
यह यक्ष की मूर्तियाँ हैं। सौभाग्य, गुड लक, के लिए। बड़ी चिंता रहती थी मुझे अपने भविष्य को सँवारने की! ... देखो ... यहाँ से वहाँ, उस तालाब तक, फूलों की क्यारियाँ थीं। रंग-बिरंगे, प्यारे-प्यारे फूल! ऐसे फूल जो शायद ही कहीं और देखने को मिलें। लैवेन्डुला, विंका, जैकमौंटी, पारिजात, मैलवैविसकस! नाम तक नहीं जानते लोग उनका! इस बगीचे को हर बरस इनाम मिलता था।
आशा:
अब फूल नहीं हैं!
अजनबीः
मेरे फूल भी मेरी ही तरह थे। जब तक देख-रेख की, चमक दिखलाते रहे। छोड़ दिया, तो मुर्झा गए! ... लेकिन ये पेड़ वैसे नहीं हैं। सेवा-टहल के बग़ैर फल देते रहते हैं। आम, लीची, पपीता, इमली, कटहल, चीकू ... आज भी हाथ ऊपर करो तो कोई-न-कोई फल हाथ में आ ही जाएगा।
विनयः
तो आप इन फलों का करते क्या हैं? बेचते हैं?
अजनबीः
जो ख़ुद बिक चुका हो, वह और क्या बेचेगा? मैं कुछ नहीं बेचता। जिसे जो चाहिए, आकर, तोड़कर, ले जाता है। आपको चाहिए, तो आप भी तोड़ लीजिए। ... लो, यह आ गईं महल की सीढ़ियाँ। संगमरमर की हैं। ऊपर झूमर लगा है। चालीस साल पहले सात हज़ार का पड़ा था। इस महल में सोलह कमरे हैं, और हर कमरे में झूमर लगा है।
नीताः
यह घर आपका है?
अजनबीः
घर? यह घर नहीं है। ना, यह घर नहीं है ... इमारत है, महल है, लेकिन घर नहीं है! हाँ, कभी इस इमारत में एक घर बन ज़रूर रहा था, लेकिन बनने से पहले ही टूट गया, बिखर गया, तहस-नहस हो गया।
आशा:
क्या हो गया था?
अजनबीः
आदमी जैसे-जैसे सभ्य होता जाता है, इमारतें बड़ी होती जाती हैं, आदमीयत बौनी होती जाती है ... सड़कें चौड़ी होती हैं, नज़रिया सँकरा होता है। सब कुछ पा लेने की हवस में आदमी अंदर-ही-अंदर कंगाल हो जाता है।
नीताः
अंकल! क्या आप भी कंगाल हैं?
आशा:
चुप!
अजनबीः
बोलने दो इसे। हाँ बेटी। मैं कंगाल हूँ। कंगला! ... मेरी ये ज़मीन-ज़ायदाद करोड़ों रुपयों की है, लेकिन सच पूछो तो मैं कंगाल हूँ।
विनयः
यह क्या कह रहे हैं? इतनी संपत्ति होने के बावजूद कोई कंगाल कैसे हो सकता है?
आशा:
क्या आप पर बहुत कर्ज़ चढ़ा हुआ है?
अजनबीः
हाँ! मुझ पर रुपए-पैसे का कर्ज़ नहीं चढ़ा, लेकिन मेरी आत्मा पर बड़ा भारी कर्ज़ ज़रूर चढ़ा हुआ है। तुम जैसे जवान लोगों को देखता हूँ, तो डरता हूँ कि जल्दी-से-जल्दी तरक़्क़ी की सीढ़ियाँ चढ़ने की उतावली में कहीं तुम भी मेरी तरह कर्ज़दार न बन जाओ, करोड़ों की सम्पत्ति पा कर भी कंगाल न बन जाओ।
विनयः
करोड़ों की सम्पत्ति पा कर भी कंगाल?
अजनबीः
हूँ! आज से क़रीब पचास-पचपन साल पहले, मैं एक ऐसा किशोर हुआ करता था, जिसकी आँखों में सपने थे, दिल में महत्वाकांक्षा थी, मन में ललक थी। लेकिन जिसकी जेब बिलकुल ख़ाली थी, ठन्-ठन् गोपाल! जब कोई गाड़ी मेरी बगल से गुज़रती, मैं कल्पना में उसे चलाने लगता। किसी को अच्छे कपड़े पहने देखता, तो मैं यही सोचने लगता कि मेरे पास वह कपड़ा कैसे आए। किसी को कुछ अच्छा खाते देखता, तो हसरत होती कि मैं भी वैसा ही, बल्कि उससे भी अच्छा, पकवान खाऊँ! ... बावला था मैं!
विनयः
नहीं, ऐसी बात तो कभी-न-कभी हर किसी के दिमाग़ में आती ही है।
अजनबीः
आती होगी। ख़ैर! मैंने वकालत की पढ़ाई पूरी की। एक पेड़ के नीचे कुर्सी-टेबिल भी लगा ली, कि मुवक्किल आएँगे। रोज़ सुबह उम्मीद से आता, मुवक्किलों की बाट जोहता, और शाम को कुर्सी-टेबिल समेट कर ख़ाली हाथ घर वापस चला जाता।
आशा:
... च् च् च् ...
अजनबीः
दो महीने बीतते-न-बीतते मुझे पता चल गया कि पेड़ के नीचे टेबिल लगा कर बैठने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। मैंने जगह बदल ली। एक ऐसे सरकारी दफ़्तर के पास चला गया, जहाँ लोगों को एफ़िडेविट बनवाने पड़ते थे। मेरे पास भी लोग आने लगे। कुछ-न-कुछ कमाने लगा।
नीताः
फिर तो आपने भी अच्छे कपड़े सिलवाए होंगे, अच्छा खाना खाया होगा!
अजनबीः
ऊँ-हूँ! मेरी कमाई कोई इतनी ज़्यादा नहीं होती थी। दुकान का किराया-कमीशन काटने के बाद हाथ में बस इतना ही आता था कि भूखा न सोना पड़े। बाक़ी लोगों को देखता, तो वह भी मालगाड़ी के डिब्बों जैसी सुस्त ज़िंदग़ी जीते नज़र आते। ... लेकिन इन्हीं लोगों के पार, ऐसे लोगों का संसार भी था जहाँ चमचमाती गाड़ियाँ थीं, वर्दी पहने नौकर थे, हीरों से लदी औरतें थीं, ख़ूबसूरत बंगले थे। रौनक़ थी, ख़ुशी थी। ... मुझे भी उसी संसार में जाना था।
विनयः
कौन नहीं जाना चाहेगा वैसे संसार में!
अजनबीः
शायद! ... लेकिन मुझे वहाँ पहुँचने की बहुत जल्दी थी। मैं मालगाड़ी के डिब्बे की तरह दूसरों के पीछे नहीं चलना चाहता था। मैं अपनी राह ख़ुद बनाना चाहता था। ... मेरे जैसे ख़यालात वाले कुछ और लोग भी थे। ... जैसे, उसी दफ़्तर के आगे मेरा एक डॉक्टर दोस्त भी बैठता था। असली-नक़ली मेडिकल सर्टिफ़िकेट बनाता रहता था। ... वह भी बड़ा झल्लाता था अपनी ज़िंदग़ी की धीमी रफ़्तार पर।
आशा (धीरे से):
वैसे हमारी ज़िंदग़ी भी दूसरों के मुक़ाबले धीमी-ही चल रही है।
अजनबीः
हर किसी को ज़िंदग़ी से शिक़ायत है! उस दफ़्तर के पास अपनी छोटी-सी दुकान में बैठे-बैठे मैंने देखा कि ज़िंदग़ी से शिकवा उनको भी होता है जिनको कुछ नहीं मिलता, और उनको भी होता है जो दूसरों का हिस्सा भी हड़प जाते हैं। (हँसता है) आने वाले कल में ज़िंदगी सुखचैन से बीते, इसके लिए आदमी को हमेशा लड़ते देखा है मैंने। ... कैसे अजीब-अजीब डर पालता है आदमी! एक आदमी इस सोच में डूबा रहता था कि मरने के बाद उसकी चिता में आग लगाने को कोई लड़का नहीं था उसे, तो एक आदमी को यह ग़म खाए जा रहा था कि अगर उसे कभी अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, तो रात-बिरात दवा-दारू का इंतज़ाम करने को कोई लड़का नहीं था उसका। ... कोई लड़की की शादी में दहेज़ देने के डर से कुलबुला रहा था, कोई अपनी विधवा लड़की के भविष्य को ले कर परेशान था।
विनयः
इसीलिए तो पुराने समय में लोग लड़के की चाह में दस-दस बच्चे तक पैदा कर लेते थे।
अजनबीः
बहुत पुराने समय में! मेरे समय में यह जानना मुमक़िन हो गया था कि पेट का बच्चा कैसा है, ठीक-ठाक है कि नहीं, लड़का है कि लड़की है। ... बस, मैंने लड़कों के लिए कमज़ोरी में अपनी तरक़्क़ी का रास्ता ढूँढ़ निकाला। मैंने उस डॉक्टर के साथ मिल कर नया कारोबार शुरू किया। सरकारी दफ़्तर के पास वाली दुकान बंद कर के हमने शहर की सरहद पर एक मकान ले लिया किराए पर। एक हिस्से में डॉक्टर का क्लीनिक था, दूसरे में मेरा चेम्बर था। डॉक्टर औरतों की जाँच करके बताता कि पेट में पल रही संतान लड़का है या नहीं।
आशा:
इसमें वकील क्या करेगा?
अजनबीः
डॉक्टर लोगों को अक़्सर ग़लत रिपोर्ट देता था। जिसके पेट में लड़का हो, उसे भी बता देता था कि लड़की है। कभी-कभी तो पेट में संतान न होने पर भी बोल देता था कि पेट में लड़की पल रही है। बच्चा गिराने का झूठमूठ का नाटक रचता, और मोटी रक़म ऐंठता। अगर असलियत पता चलने पर हंगामा होता, तो मैं क़ानून का डर दिखाता, एम टी पी एक्ट को उल्टा-पुल्टा इंटरप्रेट करता, और बेचारे मरीज़ से और भी पैसे झींट लेता।
विनयः
ऐसा भी होता है?
अजनबीः
ग़ैरकानूनी काम वह दलदल है, जिसमें आदमी एक बार फँसा, तो जल्दी बाहर नहीं निकल पाता! ... ख़ैर! तो, मेरी और डॉक्टर की पार्टनरशिप थी। वह तो पैसा कमाने के लिए दीवाना था। न जाने कितनी औरतों का उसने ऐसा गर्भपात करवाया, कि वे दोबारा माँ बनने के क़ाबिल ही न रहीं। कुछ ने ऑपरेशन टेबिल पर ही दम तोड़ दिया। ... लेकिन मैंने डॉक्टर को हर बार बेदाग़ बचा लिया।
आशा:
हे भगवान! ये काम इतना ख़तरनाक है, मुझे तो अंदाज़ ही नहीं था।
अजनबीः
तभी तो कहा, जो दिखता है वह होता नहीं, और जो होता है वह दिखता नहीं। ... मैं केस पर केस जीतता गया, जीतता गया। मेरा नाम हो गया। मेरी वकालत चल निकली। पैसा आने लगा। मैंने मकान ख़रीदा, गाड़ी ख़रीदी। ... रुतबा हो गया। ... शादी होने के बाद रही-सही कसर भी पूरी हो गई। मेरी बीवी का नाम था लक्ष्मी, और लक्ष्मी की तो जैसे बरसात ही होने लगी हम पर। हमारा एक प्यारा-सा बेटा हुआ, वरुण। उसे हमने विदेश में पढ़ाया। बड़ी प्यारी-सी एक लड़की से उसकी शादी कर दी।
नीताः
फिर क्या हुआ?
अजनबीः
ख़ुशियाँ थीं कि रोके नहीं रुकती थीं। हम सबमें बड़ा प्यार था। बहू "बाबूजी-अम्माजी" कहते नहीं थकती थी। इतने नौकर-चाकर थे, फिर भी ख़ुद अपने हाथ से दार्जीलिंग टी बना कर पिलाती थी बेचारी। वरुण तो जैसे अब भी बच्चा ही था। मेरे गले से लटक जाता था। उसे सबसे बेहद लगाव था, यहाँ तक कि कुत्ते-बिल्लियों से भी।
विनयः
बिल्कुल सपनों का संसार था आपका!
अजनबीः
वरुण की शादी के तीन साल बाद उसे पता चला कि वह बाप बनने वाला है। लक्ष्मी ने कितनी ही बार बहू की बलाएँ लीं। बहू शरमाई-सी रहती। और वरुण के तो जैसे पाँव ही ज़मीन पर नहीं पड़ते। उसने तो विदेशों में अपने दोस्तों को भी बता दिया था।
आशा:
आप भी तो बहुत ख़ुश होंगे।
अजनबीः
हूँ, लेकिन एक डर भी था। मैं चाहता था कि वरुण की संतान लड़का हो। मुझे सम्पत्ति बढ़ानेवाला वारिस चाहिए था। पोता चाहिए था। मैंने अपने डॉक्टर दोस्त को कहा, कि वह बहू के पेट में पल रहे बच्चे की जाँच करे, और अगर ... और अगर वह लड़की हो तो चुपचाप गर्भ गिरा दे।
विनयः
उफ़्!
अजनबीः
ज़ाहिर है, इसका पता न मेरी बीवी को था, न बेटे-बहू को। उन्हें तो सिर्फ़ यह पता था कि बहू के सामान्य टेस्ट होने हैं। बहू शरमाई-सी टेस्ट के लिए गई। वरुण, लक्ष्मी और मैं बाहर इंतज़ार करने लगे। आधे घंटे से एक घंटा, और एक घंटे से दो घंटे बीते। मैं समझ गया कि देर क्यों लग रही थी। लेकिन वरुण और लक्ष्मी को क्या समझाता! उनका उतरा हुआ चेहरा देख कर मैं अपने आप को कोसने लगा। तभी दरवाज़ा ख़ुला। हम स्ट्रेचर की ओर लपके। लेकिन स्ट्रेचर पर बहू नहीं थी।
नीताः
तो?
अजनबीः
उसकी लाश थी ... स्ट्रेचर पर मेरी बहू की लाश थी। उस बहू की लाश, जो मुझे अपने बाप से भी ज़्यादा चाहती थी, मुझ पर विश्वास करती थी। जो दो घण्टे पहले मुझे आदर से देख रही थी। ... मैं आपे से बाहर हो गया। ग़ुस्से में तमतमाते हुए मैं अंदर गया और डॉक्टर से कहा, "ये क्या कर डाला तुमने?" डॉक्टर भी घबराया हुआ था, बोल पड़ा, "तुम्हीं ने तो कहा था!" .... मुझे नहीं मालूम था कि मेरे पीछे मेरा बेटा और बीवी भी खड़े थे, सब सुन रहे थे।
विनयः
ये तो बहुत बुरा हुआ!
अजनबीः
उस रात मेरे बेटे ने आत्महत्या कर ली। मेरी बीवी ने मेरी ओर देखना तक छोड़ दिया। छः महीने में वह भी गुज़र गई। ... लड़का पैदा होने की चाह, वारिस की चाह, ने साठ साल की पकी उम्र में मुझे अकेला छोड़ दिया, बिलकुल अकेला। बारह साल बीतने के बाद भी मैं आजतक अपने आप को माफ़ नहीं कर पाया हूँ। बारह साल से मैं लोगों को यह बता रहा हूँ कि लड़का पैदा होने की चाह आदमी को किस तरह बर्बाद कर सकती है। ... मेरी मानो, तो चाहे लड़का हो या लड़की, उसे गले लगाओ, प्यार दो। वरना मेरी तरह सब कुछ गँवा सकते हो!
(बस का हॉर्न)
विनयः
बैरिस्टर साहब! हमारी बस चलने को तैयार है।
आशा:
हम समझते थे, हवेलियों में बड़ा सुख होता होगा। आज जान लिया, सुख तो मानने से होता है, सन्तोष से होता है।
नीताः
बाय, अंकल!
(अजनबी को सीढ़ियों के पास छोड़ तीनों धीरे-धीरे हवेली के सिंहद्वार की ओर बढ़ते हैं।)