दुर्गा की प्रतिमा

15-09-2024

दुर्गा की प्रतिमा

अमिताभ वर्मा (अंक: 261, सितम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

बात 1984 की है। या, शायद 1985 या 1986 की हो। बहरहाल, साल उतना अहम नहीं है यहाँ। 

चौड़ी सड़क। मध्यम आकार का मकान। छोटा-सा दरवाज़ा, मकान के पिछवाड़े। दरवाज़े से अंदर दाख़िल हों, तो सामने तंग-सा एक गलियारा पड़ता है। इसी गलियारे में एक कामचलाऊ रसोईघर है। इतना छोटा, कि बाँहें फैलाएँ तो दीवारों से टकरा जाएँ। गलियारे से दो सीढ़ी ऊपर एक कमरा है। कोई बारह फ़ुट बाई बारह फ़ुट का होगा। 

सुबह साढ़े दस बजे इस कमरे में एक लड़की दिखा करती है। हूर या परी तो नहीं; पर सुतवाँ नाक, घुटना चूमते काले घने बाल, गेहुँआ रंग और हँसमुख चेहरा उसे भीड़ से अलग ज़रूर कर देते हैं। ग़ौर करें, तो कमरे में देखने लायक़ कुछ है ही नहीं उस लड़की के सिवाय। न महँगी पेंटिंग, न सजावटी सामान—टेलीविज़न तक नहीं है इस कमरे में। 

फिर भी, लड़की ख़ुश है। हर शाम साढ़े चार बजे मुँह धोने, दाँतों के बीच क्लिप फँसा कर बाल काढ़ने, सजने-सँवरने और बाहर जाने के कपड़े पहनने के बाद वह बेताबी से दीवारघड़ी ताका करती है। घड़ी की टिक-टिक में मोटर साइकिल की धक-धक का पुट आते ही उसकी बाँछें खिल जाती हैं। वह बिजली की तेज़ी से दरवाज़ा खोला करती है। एक लड़का अंदर आता है, ब्रीफ़केस कमरे में रखता है, और पाँच मिनट के अंदर दोनों फुर्र हो जाते हैं। दोनों बाज़ार में घूमते हैं, कुछ खाते हैं, बतियाते हैं, एक-दूसरे की आँखों में ख़्वाब देखते हैं, और लौट आते हैं टीन के दरवाज़ेवाले अपने स्वर्ग में। 

लड़के के बाल थोड़े घुँघराले हैं। लड़की को अक्सर उन बालों में उँगलियाँ फिराने का मन होता है। लड़के को बेतरतीब बाल पसंद नहीं। लड़की को लड़के के कंधे पर हाथ रखने में मज़ा आता है—गर्दन की भूरी चमड़ी पर चूड़ियों का रंग निखर आता है। 

आज भी लड़की कुछ ऐसा ही नज़ारा देख रही थी कि लड़का बोल उठा, “सुमि!” 

“हूँ ऽऽऽ . . .” सौम्या ने जैसे नींद में कहा। 

“मुझे एक जॉब ऑफ़र मिला है। कलकत्ता में। यहाँ से दस हज़ार ज़्यादा मिलेंगे हर महीने।” 

“स ऽऽऽ च?” सौम्या की ख़ुमारी हवा हो गई। “कब जाना होगा?” फिर सँभलते हुए बोली, “वैसे तो अब भी कोई तकलीफ़ नहीं, पर बढ़े हुए दस हज़ार रुपयों का इस्तेमाल तो हो ही जाएगा।” 

लड़का सौम्या के भोलेपन पर मुस्कराया। उसने मन-ही-मन सोचा, ‘काश! जीना उतना आसान होता जितना सौम्या समझती है।’ 

उसके लिए सौम्या गुलाब पर गिरी शबनम की मानिंद थी। सूरज की किरण हो या हवा का झोंका, शबनम को सबसे बचा कर रखना पड़ता है। ज़माने की बुराइयों, अनुभवों की खटास—सबका ज़िक्र किए बिना छोटा-सा उत्तर दिया उसने, “उनके पास तीन कैंडिडेट हैं। पता नहीं मेरा सेलेक्शन होगा भी या नहीं।” 

उसके सपनों के देवता से कोई बेहतर-भी हो सकता है, यह सौम्या की कल्पना से बाहर था। वह बोली, “आप ही का सेलेक्शन होगा, सुमित! अपने को अंडर एस्टिमेट क्यों करते हैं?” 

दूसरे दिन सौम्या ने भगवान की तस्वीर के आगे थोड़ी ज़्यादा देर तक हाथ जोड़े। 

 

 

एक महीना हो गया सौम्या-सुमित को कलकत्ता आए। काली-पीली टैक्सियाँ, टन-टन करती ट्रामें, हाथ रिक्शे, नुक्कड़ पर एग रोल की दूकान, और कलाई में शंख का कड़ा पहने मकान-मालकिन—सौम्या के जीवन में एक नया अध्याय जुड़ गया। बस, शाम को सुमित के साथ घूमना बन्द हो गया। वह सुबह जल्दी जाता और शाम ढले घर लौटता। कभी-कभी तो रात हो जाती। सौम्या खिड़की के पास खड़ी रहती नीचे गली की ओर टकटकी लगाए। कॉरपोरेशन के टिमटिमाते बल्ब के गंदले उजाले में भी उसे सुमित का साया साफ़ नज़र आ जाता। उसे देखते ही सौम्या के चेहरे पर हज़ारों वॉट के बल्ब जैसे एक साथ चमक उठते। वह ज़ीने से दौड़ती हुई नीचे उतरती, दरवाज़ा खोलती। परेशान-सा सुमित अंदर आता। खाना खाने के बाद पति-पत्नी में बातें होतीं। सौम्या के पतंग की डोर से लम्बे सवालों का जवाब सुमित हाँ-हूँ में देता और जल्दी-ही नींद के आगे घुटने टेक देता। सौम्या मुस्कुराती, सुमित के बालों में उँगलियाँ फिराती, तनख़्वाह में बढ़े दस हज़ार रुपयों से किश्तों में फ़्रिज ख़रीदें या टेलीविज़न, सोचती, और सो जाती। 

सौम्या की मुस्कुराहट पूनम के बाद के चाँद की तरह घटती गई। सुमित को सिर्फ़ चार हज़ार रुपयों का फ़ायदा हुआ, क्योंकि कम्पनी की सामर्थ्य उससे अधिक की न थी। चार हज़ार रुपये की बढ़त की बलिवेदी पर सौम्या की मुस्कुराहट ही सती नहीं हुई, सुमित का आराम, चैन और स्वास्थ्य—सब न्योछावर हो गए। इतवार की छुट्टी गई। रात दस बजे तक, और कभी-कभी रात भर दफ़्तर में सिर ख़पाना आम बात हो गई। तीन महीने पहले तक हमेशा ख़ुश रहने वाला सुमित हमेशा चिड़चिड़ा, परेशान रहने लगा। ख़ाँसी ने उसके ठहाकों को बेदख़ल कर दिया। सौम्या के टेलीविज़न-फ़्रिज के ख़ुशगवार ख़्वाब परेशानी की भेंट चढ़ गए। 

सौम्या अक्सर सोचती, यह तो लेने के देने पड़ गए। सुमित का तेज़ी से गिरता स्वास्थ्य तनख़्वाह में सिर्फ़ चार हज़ार रुपयों की बढ़ोत्तरी से ज़्यादा कचोटता उसे। गर्मी की एक दोपहर छत से लटके पंखे को घूमता देख उसने सोचा, “ज़िंदग़ी भी क्या-क्या खेल खिलाती है। आदमी सोचता कुछ और है, और हो जाता है कुछ और!” उसे सुमित पर गर्व भी हुआ और प्यार भी आया। आख़िर उसी की ख़ुशी के लिए तो सुमित इतनी ज़द्दोज़हद कर रहा है! अभी, जब वह पंखे की ठंडी हवा में लेटी है, सुमित न जाने किस परेशानी से जूझ रहा होगा। पता नहीं, उसने ठीक तरह से खाना भी खाया होगा या नहीं। उसे एक पल के लिए ही सही, आराम करने की फ़ुर्सत मिली भी होगी या नहीं। 

वह खिड़की के पास परेशान-सी खड़ी हो गई। सड़क उसके जीवन की ही तरह सूनी थी, जिस पर लू के थपेड़े साँय-साँय चल रहे थे उसकी मुश्क़िलों की तरह। उसकी निगाह बरबस ही अटक गई तीन बच्चों पर। नीली स्कूल ड्रेस में, कंधे पर बस्ता लटकाए, बच्चे उत्साह में चले जा रहे थे, गर्मी से पिघलती सड़क और लू के थपेड़ों से बेख़बर। 

सौम्या के मस्तिष्क में एक विचार कौंधा—क्या मैंने पढ़ाई-लिखाई सिर्फ़ पंखे की हवा खाने या खाना पकाने के लिए की थी? ख़ास करके अब, जब मेरे पति के कंधे गृहस्थी के बोझ से चरमरा रहे हैं, क्या मैं उन्हें थोड़ा-सा सहारा भी नहीं दे सकती? सुमित का गिरता स्वास्थ्य मेरे आत्मसम्मान को भला कैसे गवारा हो रहा है? आज तो नारी आत्मनिर्भर है। पायलट, वैज्ञानिक, सैनिक—नारी हर रूप में मौजूद है आज। 

बस, सौम्या ने कमर कस ली। मकान-मालकिन के पास गई, पड़ोसियों के पास गई, न जाने किस-किस से क्या-क्या बात की, पर एक सप्ताह बीतते-न-बीतते उसके घर दो बच्चे आने लगे। वह दोपहर में उन बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती। सौम्या हँसमुख भी थी, कुशाग्र बुद्धि भी। सौम्या को बच्चे भाए, बच्चों को सौम्या। हफ़्ते-दो-हफ़्ते में छात्रों की संख्या दो से चार और चार से आठ हो गई। सौम्या दो महीनों में पाँच-साढ़े पाँच हज़ार रुपये महीना कमाने लगी। 

थोड़ा-थोड़ा ही सही, जैसे-जैसे सौम्या की आमदनी में इज़ाफ़ा होता गया, उसका आत्मविश्वास भी बढ़ता गया। कलकत्ता की उमस भरी रात में सुमित का बार-बार जाग कर घड़े का पाना पीना सौम्या से देखा न गया। सौम्या ने किश्तों पर फ़्रिज ख़रीद लिया। उस रात सौम्या ने अच्छे कपड़े पहने, आइसक्रीम जमाई, और बैठ गई सुमित के इंतज़ार में पलक-पाँवड़े बिछा कर। सुमित रोज़ रात की तरह क़रीब दस बजे घर में दाख़िल हुआ। सौम्या को सजी-धजी देख कर चौंका—“क्या बात है, भाई? कहीं से आ रही हो क्या?” 

सौम्या भला उस छोटे-से घर में फ़्रिज का क्या सरप्राइज़ दे पाती! नई चीज़ें चमकती भी कुछ ज़्यादा हैं। सुमित की नज़र फ़्रिज पर पड़ी तो आग बबूला हो उठा—“अब तुम इतनी महँगी चीज़ें भी ख़रीदने लगीं बिना पूछे-माते? इधर मेरी नौकरी पर बनी है, और उधर तुम हो कि फ़िज़ूलख़र्ची में पैसे उड़ाए जा रही हो! कैसे भरेंगे इसके पैसे? आख़िर तुम कब समझोगी कि जब दो जून की रोटी के ही लाले पड़े हों, तो . . . ख़ैर! छोड़ो। भला तुम समझ भी कैसे सकती हो? तुम्हें सजने-सँवरने से फ़ुरसत मिले, तब तो!” 

सौम्या को काटो, तो ख़ून नहीं! उसका सर कभी अपराधबोध से झुक जाता, तो कभी अपमान से उसका हृदय सुलग उठता। दाँतों में साड़ी का पल्लू दबाए उसने सिसकियाँ जज़्ब कीं, सुमित के लिए खाना परोसा, और औंधे मुँह निढाल हो गई बिस्तर पर। दिल में कहीं एतबार था कि सुमित हौले-से उसकी पीठ पर हाथ फेरेगा, फुसफुसाते हुए पूछेगा, ‘सो गईं क्या?’ और तब तक खाना नहीं खाएगा जब तक वह ग़ुस्सा थूक कर मुस्कुरा न देगी। 

लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। सौम्या को लेटे-लेटे ही पता लग गया कि सुमित ने कब खाना खा लिया, और कब वह बिस्तर की दूसरी तरफ़ आ कर लेट गया। कितनी जल्दी नींद भी आ गई उसे! 

आधी रात को सौम्या उठी, और आइसक्रीम बहा डाली नाली में। आइसक्रीम के साथ न जाने क्या-क्या और बहा डाला आँसुओं ने। आत्मनिर्भर होने का उसका निश्चय और दृढ़ हो गया। 

सौम्या ने उस दिन से पढ़ाने में और ज़्यादा दिल लगाना शुरू कर दिया। पहले सिर्फ़ एक घंटा पढ़ाती थी; अब वह दोपहर तीन बजे से शाम सात बजे तक पढ़ाने लगी। क़रीब तीस बच्चे पढ़ने आते उससे। 

उसे वह दिन अब बहुत दूर नहीं लगा जब वह अपना एक छोटा-सा स्कूल चला पाएगी। नन्हे-नन्हे बच्चे रिक्शे में पहुँचेंगे उसके स्कूल। वह उन्हें बहुत प्यार से पढ़ाएगी, उनकी छोटी-से-छोटी ज़रूरत का ख़्याल रखेगी। 

एक दिन शाम सात बजे वह बच्चों के आख़िरी बैच को विदा कर ही रही थी कि सुमित घर में दाख़िल हुआ। आम तौर पर पत्नी पति को घर जल्दी आया देख कर ख़ुश होती है, लेकिन सौम्या भौचक रह गई। मानो उसकी चोरी पकड़ी गई हो। सुमित इन दिनों छोटी-छोटी बातों पर उसे झिड़क दिया करता था। आज तो जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा। 

“अच्छा! तो अब दो रुपल्ली का ट्यूशन लेना भी शुरू कर दिया तुमने। तुम्हारे ऐशो-आराम के लिए मेरी तनख़्वाह काफ़ी नहीं, यह जताने का अच्छा तरीक़ा ढूँढ़ा है तुमने!” 

सौम्या में आज पता नहीं कहाँ से इतना आत्मविश्वास आ गया। वह न तो हिचकिचाई, न ही घबराई। बस, इतना बोली, “जिस बात के लिए आप आज मुझे ताना दे रहे हैं, एक दिन उसी बात के लिए भगवान का शुक्र अदा करेंगे।” 

पति-पत्नी के बीच तनाव और गहरा गया। जो दो प्राणी टीन के दरवाज़े के घर में एक-दूसरे की आँखों में स्वर्ग तलाशा करते थे, वे बेहतर सुविधाओं वाले घर में एक-दूसरे से कतराने लगे। सुमित का तो जैसे मन ही उचट गया। रोज़ तड़के दफ़्तर के लिए रवाना होने वाला सुमित अब कभी आठ बजे निकलता तो कभी नौ बजे। कभी-कभी तो साढ़े नौ भी बज जाते। वापसी का भी वही हिसाब। कभी छह बजे लौट आता तो कभी रात के दस भी बजा देता। 

सौम्या को धक्का-सा लगा। आदमी अपनी दिनचर्या में इतनी फेरबदल तभी करता है जब किसी को रंगे-हाथ पकड़ना चाहता हो, या किसी से बचना चाहता हो। रंगे-हाथ पकड़ना! ऐसा कौन-सा अपराध कर रही थी सौम्या जो सुमित उसे रंगे-हाथ पकड़ना चाहता था? 

सौम्या का मन आक्रोश से भर उठा—‘जब ये मेरी जासूसी कर सकते हैं, तो मैं भी वैसा ही करूँगी।’ पहले वह सुमित की जेब में रखे काग़ज़ के टुकड़ों पर ध्यान न देती थी। पहले सुमित के कपड़े बिना निरीक्षण के धो दिए जाते थे। पहले वह सुमित के हाथ-ख़र्च का ब्योरा नहीं रखती थी। अब सब बदल गया। अटूट प्रेम के कल्पवृक्ष को संदेह का दीमक चाटने लगा। 

सौम्या ने देखा, सुमित की जेब में पड़े बस-ट्राम के टिकट रोज़ एक समान नहीं होते। जेब में अक्सर मूँगफली के छिलके और दानों के टुकड़े मिलते। कभी-कभी उसकी कमीज़-पतलून पर गीली मिट्टी के दाग़ होते। एक दिन घास के टुकड़े भी चिपके मिले। 

सौम्या का माथा ठनका। वह समझ गई, सुमित दफ़्तर के अलावा भी कहीं और जाता था! अक्सर किसी बग़ीचे में बैठता-लेटता था। किसके साथ? वह कौन थी जिसकी वजह से सुमित सौम्या से उखड़ा-उखड़ा रहता था? 

दशहरे को पाँच दिन बाक़ी थे। सौम्या के छात्रों के दशहरे के दो दिन बाद तक छुट्टी के अनुरोध की वजह से ट्यूशन सात दिनों के लिए बंद था। सुमित की छुट्टी सिर्फ़ दशहरे के दिन थी। वह नौ बजे दफ़्तर के लिए निकला तो सब्ज़ी ख़रीदने के बहाने सौम्या भी झोला लेकर निकल पड़ी। 

गली के आगे सुमित बाईं ओर मुड़ा बस-स्टॉप की ओर, और सौम्या दाईं ओर, हाट की तरफ़। दो अलग-अलग रास्तों पर मुड़ते समय पति-पत्नी ने ऐसे हाथ हिलाया जैसे जान छूटी हो। 

दस क़दम बढ़ कर सौम्या ने पीछे मुड़ कर देखा। सुमित बस स्टॉप की ओर बढ़ा जा रहा था। सौम्या भी पलट कर पेड़ों, गाड़ियों, खोमचों की आड़ में सुमित के पीछे हो ली। सुमित ने दो बार पलट कर देखा, पर सौम्या दोनों बार पकड़े जाने से बाल-बाल बच गई। 

सुमित के एक पैर को बिबादी बाग़ की खचाखच भरी बस के पायदान के एक छोटे-से हिस्से पर जगह मिली। दरवाज़े के हैंडल को पकड़ने की स्पर्धा करते दर्ज़नों हाथों में एक हाथ सुमित का भी था। उसका दूसरा पैर और ब्रीफ़केस वाला हाथ हवा में झूल रहा था। 

सौम्या का कलेजा मुँह को आ गया। सोचा, सुमित को बस से उतर कर अगली बस का इंतज़ार करने को कहे, लेकिन वह बस से क़रीब दस फ़ुट दूर थी। जब तक बस के पास पहुँच पाती, बस चल पड़ी। 

दफ़्तर जानेवालों की चाल की चुस्ती सुमित की चाल में न थी। प्रेमिका से छुप कर मिलनेवालों की चाल का उमंग भी न था। वह तो बस, उद्देश्यहीन-सा चल रहा रहा था। कभी एक दूकान के आगे ठिठकता तो कभी दूसरी के। इसी तरह पंद्रह-बीस मिनट की चहलक़दमी के बाद सुमित एक पार्क में दाख़िल हो गया। 

सौम्या ठिठक गई। थोड़ी देर तक सुमित को ताकती रही। सुमित निश्चिंत भाव एक पेड़ से पीठ टिका कर बैठ गया था, शून्य में कुछ तलाशता। सौम्या हैरान थी—‘ये आराम से यहाँ क्यों बैठ गए हैं? दफ़्तर क्यों नहीं जा रहे?’ 

सौम्या ने पर्स से एक चिट निकाली, सुमित के दफ़्तर का पता पढ़ा, और अनुमान लगाया कि दफ़्तर पास ही कहीं होगा। दस मिनट के अंदर वह सुमित के दफ़्तर के सामने थी। दफ़्तर के दरवाज़े पर पीतल के दो मोटे-मोटे ताले लगे थे। दीवार पर बँगला में नोटिस लगी थी। 

“ओह! तो सुमित के दफ़्तर में भी दशहरे की छुट्टी है, जिसकी नोटिस लगी है। देखो तो! अब सुमित को मेरा इतना-सा साथ भी मंज़ूर नहीं कि छुट्टी घर में बिताएँ।” 

सौम्या सीढ़ियाँ उतरने लगी। तभी ख़्याल आया, ज़रा ये भी पता कर लिया जाए कि छुट्टी कब से कब तक है। सीढ़ियाँ दोबारा चढ़ कर वह एक बार फिर दफ़्तर के सामने खड़ी हो गई। बँगला पढ़ना उसे आता न था। सोच ही रही थी कि क्या किया जाए, कि एक आदमी चाय के गिलास लिए गुज़रा। सौम्या को कुछ पूछने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। वह ख़ुद ही बोल उठा, “इधर छुट्टी हो गया! खैला सोमाप्तो!” 

“छुट्टी हो गई? अरे आज ऑफ़िस ख़ुला ही कब जो छुट्टी हो गई?” 

“ऑपिश पोनोरो दीन थेके बौंदो।” 

“ऑफ़िस पंद्रह दिनों से बंद है? क्यों? खुलेगा कब?” 

“क्या जाने कौब खुलेगा, खुलेगा भी कि नेहीं। कोम्पानी का बाबू लोग को भी पाता नेहीं। ओ दैखो, ए बाबू रोज़ आता है। इसको मालूम होगा।” चायवाले ने सीढ़ियाँ चढ़ कर आते सुमित की ओर इशारा किया। 

सौम्या सुमित को देख कर मुस्कुराई—कुछ वैसे ही जैसे टीन के दरवाज़े वाले घर में मुस्कुराया करती थी। हकबकाया-सा सुमित भी मुस्कुरा उठा। इससे पहले कि कोई कुछ बोल पाता, सौम्या ने सुमित का हाथ थामा और सीढ़ियाँ उतरने लगी। 

“तुम . . . यहाँ?” सुमित ने झेंपते हुए पूछा। 

“हाँ!” छोटा-सा उत्तर दिया सौम्या ने। 

“मैं तुम्हें इस बारे में बताने ही वाला था . . .” सुमित सफ़ाई देने लगा। 

सौम्या चुप रही। 

दोनों बस-स्टॉप की ओर बढ़ने लगे। 

“तुम यहाँ आईं क्यों?” 

“अपनी गृहस्थी और आपके सम्मान की रक्षा के लिए!” 

सुमित के मुँह में शब्द आने से पहले बस आ गई। बस में ज़्यादा भीड़ नहीं थी। सौम्या महिलाओं वाली सीट पर बैठ गई। सुमित को बस में पीछे सीट मिल गई। 

लगभग आधे घंटे की यात्रा के दौरान पति-पत्नी विचारों के झंझावात झेलते रहे। बस से उतरने से लेकर घर पहुँचने तक दोनों चुपचाप रहे। सुमित चुपचाप बैठ गया कोने में। सौम्या कपड़े बदल कर रसोई में घुस गई। 

सुमित ने धीरे से कहा, “मेरे टिफ़िन का डिब्बा भी है।” 

सौम्या ने सामान्य लहजे में कहा, “हाँ, बस थोड़ा-बहुत कुछ और बना लेती हूँ। डिब्बे का खाना भी गर्म कर लूँगी।” 

सुमित के दिल का चोर ऐसे सामान्य व्यवहार के लिए तैयार न था। अगर सौम्या रूठती, या ग़ुस्सा होती, तो सुमित भी आसमान सर पर उठा लेता। बोलता, कि सौम्या के इसी अप्रिय आचरण ने उसे पंद्रह दिनों तक चुप रहने, ऑफ़िस जाने का नाटक करने पर मजबूर कर दिया था। लेकिन, सौम्या तो यूँ शान्त थी जैसे कुछ हुआ ही न हो। 

सौम्या ने खाना परोसा। दोनों चुपचाप खाते रहे। खाना ख़त्म हुआ। सौम्या ने बरतन समेटे। सुमित अख़बार पढ़ने का नाटक करने लगा। सौम्या रसोई से बाहर आ कर सुमित के पास बैठ गई। बोली कुछ नहीं, बस, सुमित का हाथ थाम लिया उसने। 

सहानुभूति भरा स्पर्श पाते ही सुमित के अन्दर न जाने कब का ज्वार फूट पड़ा। उसकी आँखें छलक उठीं। “मैं क्या करता? मेरा क्या दोष है, बोलो? कैसे बताता कि मेरी कम्पनी अचानक बन्द हो गई?” 

सौम्या ने सुमित के बालों में उँगलियाँ फेरते हुए कहा, “कम्पनी के बंद होने में आपका कोई दोष नहीं। आप तो मन लगाकर, ख़ून पसीना एक कर, काम करते रहे। पंद्रह दिन इंतज़ार भी कर लिया कि कम्पनी शायद फिर ख़ुल जाए। अगर ख़ुल गई और नौकरी वापस मिल गई, तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन इसके लिए वहाँ रोज़-रोज़ जाने की क्या ज़रूरत है? एक फोन ही काफ़ी होगा।” 

“तुम समझती नहीं, सुमि! अगर मैं रोज़ बाहर नहीं जाऊँगा तो मुहल्लेवालों को पता चल जाएगा कि मैं बेकार हूँ। क्या इज़्ज़त रह जाएगी हमारी? मकान मालिक घर ख़ाली करने को कहेगा। दुकानदार सामान देने में हिचकिचाएँगे।” 

“आपकी बात सोलहों आने सही है। लेकिन काम पर जाने का नाटक आख़िर कब तक चलेगा? सच कभी-न-कभी सामने आ ही जाएगा। तब कितनी भद होगी!” 

“तो क्या करूँ? दूसरी नौकरी इतनी जल्दी कहाँ मिलेगी? और वह भी इस परदेस में? जब तक नौकरी हाथ में रहती है, दूसरी नौकरी के प्रस्ताव आते रहते हैं। लेकिन हाथ से नौकरी जाते ही सारे प्रस्ताव भी बंद हो जाते हैं। कोई बात करने को तैयार भी होता है तो पिछली तनख़्वाह से कम पैसों पर,” सुमित रुआँसा हो गया। 

“बात बिलकुल सच है। हमारी समस्या गम्भीर है। इस अनजान शहर में नौकरी के बिना कितना समय काट लेंगे हम? एक महीना? दो महीने? क्या गारंटी है कि दो महीनों में कम्पनी वापस ख़ुल जाएगी या दूसरी नौकरी मिल जाएगी? किसके आगे हाथ फैलाएँगे? और, कोई देगा भी तो क्यों और कब तक?” 

सुमित ने हाथों में सर थाम लिया। “काश! दस हज़ार रुपयों के लालच में मैंने नौकरी न छोड़ी होती। अब तो वह लोग भी जवाब नहीं दे रहे।” 

“ऐसा नहीं कि कोई रास्ता ही नहीं हमारे आगे। एक रास्ता है।” 

“कौन-सा रास्ता?” सुमित उत्सुक हो गया। 

“बच्चों को पढ़ाने का।” 

“मैं भला बच्चों को क्या पढ़ाऊँगा? और उससे क्या कमाई हो जाएगी?” 

“बच्चे मुझसे बहुत सारे विषय पढ़ते हैं, पर कुछ विषय पढ़ने किसी दूसरे के पास जाते हैं। मुझे मालूम है, आपको वे सारे विषय बड़ी अच्छी तरह से आते हैं। और रही पैसों की बात, तो वो कुछ इतने कम भी नहीं।” 

“देखो! क्या गारंटी है कि बच्चे मुझसे पढ़ेंगे? और कितने पैसे मिल जाएँगे इस माथापच्ची से?” 

“बच्चों को अभी दो जगहों पर जाना पड़ता है। अगर सारे विषय एक ही छत के नीचे अच्छी तरह पढ़ा दिए जाएँ तो वे कहीं और क्यों जाएँगे? रही कमाई की बात, तो हर बच्चा सात सौ रुपये देता है।” 

“वही तो! छः-सात बच्चों को पढ़ा भी दिया तो क्या मिलेगा? चार-पाँच हज़ार रुपये?” 

“बच्चों की संख्या छः-सात नहीं, तीस है। आपने उस दिन सिर्फ़ एक बैच देखा था। जहाँ कुछ नहीं मिल रहा, वहाँ इक्कीस हज़ार रुपए मिल जाएँगे। दफ़्तर जाने का ख़र्च भी बचेगा। हम तो दस हज़ार के लालच में शहर और लगी-लगाई नौकरी छोड़ आए थे! साल बीतते-न-बीतते हमारे पास बहुत से बच्चे आने लगेंगे।” 

“इक्कीस हज़ार! कहाँ चालीस हज़ार की नौकरी और कहाँ इक्कीस हज़ार की कमाई! . . . लेकिन ये कमाई अपनी होगी। आत्मसम्मान की होगी। किसी का भविष्य बनाने की होगी। कम्पनी खुलने या दूसरी नौकरी की उम्मीद में बैठने से कहीं अच्छा है कुछ सार्थक करना। ठीक है!” सुमित उत्साहित हो गया। 

शाम हो रही थी। सौम्या ने बत्ती जला कर भगवान के आगे हाथ जोड़े। सुमित ने भी हाथ जोड़े। ढाक की आवाज़ और जयजयकार सुनाई दी। दुर्गा की प्रतिमा पंडाल में स्थापित होने जा रही थी। 

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