प्राथमिकता

15-06-2023

प्राथमिकता

अमिताभ वर्मा (अंक: 231, जून द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

“बट दिस इज़ ए ब्लेटेंट वायोलेशन ऑफ़ द इनकम टैक्स रूल्स!”

प्रियदर्शीजी आक्रोश में थे। वे जब भी विचलित होते, अंग्रेज़ी की बैसाखी का ही इस्तेमाल करते थे। यह दूसरी बात है कि अंग्रेज़ी उच्चारण करते हुए उनकी जीभ कुशल भरतनाट्यम नर्तकों की अभिव्यक्ति को मात दे दिया करती थी और श्रोता दावे के साथ अंदाज़ लगा सकता था कि प्रियदर्शीजी दक्षिण भारत के सिवाय कहीं और के हो ही नहीं सकते। लेकिन बात दरअसल ऐसी थी नहीं; वे मूल निवासी थे बिहार के। हिन्दी बोलते समय उनका लहजा और शब्दों का चयन इस तथ्य की चुग़ली उसी सुगमता से कर देता था जिससे पेटीकोट की मटमैली झालर और पैरों की बिवाई में जमा काला मैल बनी-ठनी स्त्रियों के फूहड़पन की पोल खोल देता है। 

“हम सोचे न कि फॉरेन से असाइनमेंट कम्प्लीट कर के लौटने के बाद भी दो दिन का टाइम बचिए रहा है, उसी में डॉक्युमेंट खोज कर सबमिट कर देंगे। लेकिन डॉक्युमेंट मिलिए नहीं रहा है, और इनकम टैक्स-वाला-सब एक्सटेंशन देइए नहीं रहा है। बोलिए, पाँच साल पुराने बैंक ट्रांक्जैक्शन पर कहीं नोटिस भेजा जाता है?” बाएँ कान से फोन चिपकाए वे बात करने के साथ-साथ चश्मा नीचे खिसका कर दाहिनी भौं के बाल भी नोंच रहे थे; मानों दस्तावेज़ों का अंतिम सुराग़ भौं की जड़ों में ही छुपा हो। 

फोन पर बातचीत समाप्त होने के बाद भी वे विचारमग्न मुद्रा में बाल नोंचते रहे। तीन घंटे की पड़ताल ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था कि दस्तावेज़ चाहे और कहीं भी हों, उनके घर में तो नहीं हैं। आधा दिन बीत चुका था। बचे हुए डेढ़ दिन बीतने से पहले उन्हें जवाब भेज देना था। वैसे, याद्दाश्त के सहारे उन्होंने जवाब का ख़ाका तैयार भी कर लिया था, पर ज़रूरी विवरण और दस्तावेज़ के बिना वह बिन-दूल्हा बारात जैसा बेमानी था। 

“अब क्या पूरा भौं कबाड़ कर ही दम लोगे?” उनकी पत्नी झल्लाईं। चिड़चिड़ापन उनके स्वभाव का अभिन्न अंग था। अपरिचित हो या सगा-सम्बन्धी, उनकी झल्लाहट की फुहार से देर तक सूखा रह पाना किसी के लिए भी असम्भव था। पत्नी और प्रियदर्शीजी के बीच रोज़ पचीस-पचास झड़पें उनके वैवाहिक जीवन के सामान्य, स्वस्थ और सुचारु होने का द्योतक थीं। उनका पहला मनमुटाव शादी के मंडप पर बैठने से पहले ही हो गया था, और दोनों प्राणी इस आपसी तू-तू मैं-मैं की परम्परा को चालीस वर्षों से बड़ी निष्ठा के साथ निभाते आ रहे थे। 

पत्नी के कटाक्ष को नज़रअंदाज़ कर प्रियदर्शीजी तन्मयता से भौं नोंचते रहे। पत्नी सद्यः प्रसूता कुतिया की तरह फिर गुर्राईं। प्रियदर्शीजी ने भौं की बाग़वानी में तनिक भी ख़लल डाले बग़ैर स्वतः कहा, “वो डॉक्युमेंट सिद्धार्थ के पास होना चाहिए। डैडी का घर बेचते समय हमने म्युनिसिपैलिटी से वंशावली निकलवाया था, ताकि कोई मिसचिवस क्लेम एंटरटेन न हो। अगर वंशावली मिल गया, तो साबित हो जाएगा कि हमने घर का सेल से मिला पैसा जेनुइन क्लेमेंट्स के बैंक अकाउंट में जमा कर दिया था। इसमें ऑब्जेक्शनेबल कुछ भी नहीं है। बल्कि पैसा नहीं ट्रांसफ़र करते, तब ऑब्जेक्शनेबल होता।”

बात सोलहों आने सच थी। पिता के स्वर्गवास के बाद उनका मकान बेचने में प्रियदर्शीजी ने बला की समझबूझ और ग़ज़ब की स्फूर्ति का प्रदर्शन किया था। ग्राहक खोजने, मोलभाव करने, रक़म वसूलने का तरीक़ा तय करने और सबकी सम्मति लेने में उन्होंने सिंह-समान भूमिका निभाई थी। सारी रक़म ख़ुद लेने के बाद उन्होंने नियत राशियाँ हिस्सेदारों में बाँट दी थीं। आयकर विभाग की शंका शायद इसी आदान-प्रदान के बारे में थी। 

“लेकिन बैंक तुमको बंसावली के बिना पैसा ट्रांसफ़र करने कैसे दिया?” पत्नी ने टेबल पर पेपरवेट नचाते हुए पूछा। 

प्रियदर्शीजी को अपने अधिकार क्षेत्र में चुनौतियों से नफ़रत थी। किसी की क्या मजाल कि क़तार में उन्हें धकेल कर आगे निकल जाए, या जल विभाग का टैंकर उनके सूखे घर की अनदेखी कर दे! वे बिफर पड़े, “वेदर आई गिव मनी टू एक्स ऑर वाई, हाउ कैन ए ब्लडी बैंक डेयर क्वेश्चन मी? और, बंसावली नहीं, वंशावली बोलो। तुम्हारा हिन्दी कितना ख़राब है!”

“हाँ, और तुम्हारा हिन्दी जैसे बहुत बढ़िया है!” पत्नी ने पलटवार करने में रत्ती-भर भी समय न गँवाया। पेपरवेट को ज़ोर से चकरघिन्नी की तरह नचा कर उन्होंने जिरह की, “तब तुम सारा पेपर-सब अपने पास काहे नहीं रखे? सिद्धार्थ को काहे दे दिए?” 

“अरे, वह गधा डैडी की मैग्ज़ीन, बुक्स, पर्सनल फ़ाइल्स वग़ैरह ले ही रहा था, तो हम उसको वंशावली भी लेने दिए। वो सब चीज़ का कमर्शियल वैल्यू क्या था? और वंशावली का सॉफ़्ट कॉपी तो हम रखिए लिए थे न,” प्रियदर्शीजी अब अपने अँगूठे के नाखून की सफ़ाई में व्यस्त हो गए थे। 

प्रियदर्शीजी अच्छी तरह जानते थे कि किन देवताओं के सम्मुख “जी सर, यस सर” का भजन गाना चाहिए, किन्हें विदेशी शराब और सामान काअर्घ्य चढ़ाना चाहिए, और किन अभागों को मुस्कुराते हुए ठोकर से हटा देना चाहिए। उनका छोटा भाई, सिद्धार्थ, कभी इस लायक़ हुआ ही नहीं था कि उसे आदर के साथ पुकारा जाए। पढ़ाई हो या संगीत, चुटकुले सुनाना हो या शायरी, शक्ल-सूरत हो या भाव-भंगिमा—सिद्धार्थ उनसे हर क्षेत्र में बेहतर माना जाता था। दूर-पास के रिश्तेदारों की कौन कहे, स्वयं प्रियदर्शीजी की पत्नी का भी यही विचार था। अब जिस कमबख़्त के चलते प्रियदर्शीजी को घर-बाहर नीचा देखना पड़ता था, उसे वे सम्मान कैसे दे सकते थे? उम्र और लम्बाई में उनसे थोड़ा छोटा सिद्धार्थ जब भी मिलता और उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेता, प्रियदर्शीजी पर उनके छोटेपन की एक और मुहर जड़ देता था। उन्हें ईश्वर की नाइंसाफ़ी पर चिढ़ होती और वे सिद्धार्थ के मुँह पर ही उसे मुस्कुरा-मुस्कुरा कर गालियाँ देने लगते, मानों हर गाली उनके स्नेह और सरलता का प्रमाण हो। जब सिद्धार्थ के बच्चे भी उनके पुत्र से आगे निकलने लगे, तो प्रियदर्शी जी के हृदय की धू-धू करती ज्वाला को ठंडा करने के लिए कोई मरहम न बचा। पिता का मकान बिक जाने के बाद ऐसा कोई काम बाक़ी नहीं रह गया था जो सिद्धार्थ की सहमति के बिना पूरा न हो सके। सिद्धार्थ की माली हालत सामान्य थी और बड़े लोगों से उसकी जान-पहचान भी नहीं थी। उससे सम्बन्ध बनाए रखने में नुक़्सान ही हो सकता था, फ़ायदा नहीं। प्रियदर्शीजी ने मकान बेचने के बाद सिद्धार्थ से सम्पर्क धीरे-धीरे तोड़ दिया था। एकाध साल तक नववर्ष, जन्मदिन, वर्षगाँठ इत्यादि पर बधाई के संदेश भेजने के बाद सिद्धार्थ और उसकी पत्नी, महिषी, शांत हो गए थे। प्रियदर्शीजी और उनकी पत्नी ने किसी भी संदेश का जवाब नहीं दिया था। और अब हाल यह था कि तीन साल से दोनों भाइयों तथा उनके परिवारजनों के बीच कोई बात नहीं हुई थी। 

“पता नहीं सिद्धार्थ बंसावली रखा भी होगा कि फेंक दिया होगा! और अगर उसके पास होगा भी, तो काहे देगा? उससे तो बातेचीत बन्द है कितना साल से,” पत्नी का संशय था। 

प्रियदर्शीजी काम निकालने में माहिर थे, प्राथमिकता के बारे में कभी दुविधा नहीं होती थी उन्हें। दाएँ अँगूठे से बाएँ के नाखून की जड़ खुरचते हुए बोले, “उसको हम अच्छे से जानते हैं, वो नहीं फेंका होगा वंशावली! और देगा कैसे नहीं? प्यार से माँगेगे तो देबे करेगा। ख़ाली टैक्टफुली माँगना होगा, क्योंकि अब हार्डली कुछ टाइम बचा है।”

“तो सोच क्या रहे हो, लगाओ न फोन!” पत्नी एक बार सीबीआई का छापा झेल चुकी थीं, और दुबारा किसी झमेले में नहीं पड़ना चाहती थीं। 

फोन में असफल छानबीन करने के बाद प्रियदर्शीजी ने कहा, “दोनों गधों का नम्बरे नहीं है हमारे पास! देखो, तुम्हारे पास होगा। दो तो!”

अगर फोन उनके पास पड़ा होता, तो वे पति की ओर अवश्य बढ़ा देतीं। लेकिन यहाँ तो बड़ी समस्या थी! फोन घर के अन्दर कहीं पड़ा था, और प्रियदर्शीजी की पत्नी आलस्य का प्रतिमान थीं। उठ कर बत्ती जलाने का श्रम करने की बजाय वे घंटा-दो घंटा अँधेरे में लेट कर ऊर्जा का संरक्षण करने को श्रेयस्कर मानती थीं। टूटे बटन सिलना उनके लिए बड़ी फ़ज़ीहत का काम था, इसलिए प्रियदर्शीजी अपनी कमीज़ों के ढीले बटन ख़ुद ही दुरुस्त करते थे। उनकी आलमारी हर चार-छः महीने में उनकी बड़ी बहन व्यवस्थित कर जाती थीं। जिस दिन दोनों नौकरानियों में से एक भी छुट्टी लेती, या तो घर में सफ़ाई नहीं होती या खाना बाहर से मँगवाया जाता। अपना फोन लाना उन्हें बड़ा भारी मालूम पड़ा। अलसाई-सी बोलीं, “देखो, वहीं बेड रूम या डाइनिंग टेबल पर कहीं पड़ा होगा।”

प्रियदर्शीजी आज्ञाकारी बालक की तरह तत्परता से उठ कर अन्दर चले गए। फोन साइड टेबल पर उल्टा पड़ा था। उसकी स्क्रीन टेबल पर छलकी चाय से सनी हुई थी। प्रियदर्शीजी के होंठों के अन्दर एक भद्दी गाली सीले पटाखे की तरह फूट गई। फोन पोंछ कर उन्होंने सिद्धार्थ का नम्बर डायल किया। उनके हाथ का सफ़ाईवाला कपड़ा अब टेबल पोंछने में व्यस्त हो चुका था। एक बार, दो बार, तीन बार—संपर्क साधने का उनका हर प्रयास व्यर्थ हुआ। कभी नम्बर व्यस्त बताया जाता, कभी कवरेज क्षेत्र के बाहर, और एक बार तो “यह नम्बर मौजूद नहीं है” की घोषणा भी सुनाई पड़ी। सिद्धार्थ शहर के जिस सीमावर्ती इलाक़े में रहता था वहाँ फोन-संपर्क अच्छा नहीं था। प्रियदर्शीजी अपने चमकते हुए फ़र्नीचर, सुसज्जित घर, और खिड़की के बाहर के मनोरम दृश्य पर नज़र फिरा कर मुस्कुराए। टेबल पर गिरी चाय अब भी चट-चट कर रही थी। उन्होंने ग़ुस्लख़ाने जाकर सफ़ाईवाला कपड़ा धोया, लेकिन उसे टेबल पर रगड़ने से पहले महिषी का नम्बर डायल किया। घंटी मुश्किल से दो बार बजी होगी कि महिषी की चिर-परिचित आवाज़ सुनाई पड़ी, “नमस्ते, भाभी!”

महिषी का फोन पर तुरन्त जवाब, उसका अभिवादन, और आवाज़ की नर्मी शुभ-संकेत थे। प्रियदर्शीजी के होंठों पर मधुर मुस्कान रच गई, उनका हाथ टेबल पोंछने में पुनः व्यस्त हो गया, और उन्होंने मिश्री-घुली स्नेहसिक्त आवाज़ में कहा, “भाभी नहीं, हम भाभा बोल रहे हैं!” ‘फिस्स’-से थोड़ी देर हँसने के दौरान उन्होंने तय कर लिया कि सिद्धार्थ से बात करने की बजाय महिषी से ही मीठा-मीठा बोल कर काम निकलवा लेना बेहतर होगा। 

“सुनो, महिषी! हम अभी बहुत बिज़ी हैं इसलिए फटाक से काम की बात बोल रहे हैं। डोंट माइंड! हाँ, तो डैडी का मकान बेचते समय म्युनिसिपैलिटी से एक वंशावली बनवाया गया था। वो तुमलोग के पास है कि नहीं, ज़रा जल्दी से बताओ।” उन्होंने टेबल से सबसे बड़ा धब्बा मिटाते-मिटाते कहा। 

“वो तो . . . ” महिषी की आवाज़ से संशय टपक रहा था। 

“कहा न, अभी हम बहुत बिज़ी हैं, किसी वजह से ज़्यादा नहीं बता सकते,” प्रियदर्शीजी ने धब्बा मिटाने पर और ज़ोर लगा दिया। “वो स्टाम्प पेपर वग़ैरह के साथ होना चाहिए। तुमलोग देखो, हम पंद्रह मिनट में दोबारा फोन करते हैं।”

प्रियदर्शीजी ने फोन काट कर पूरा ध्यान धब्बा मिटाने पर लगा दिया। उन्हें भरोसा था, वंशावली सिद्धार्थ ने सहेज कर रखी होगी। रखेगा क्यों नहीं, वह काग़ज़ ही एकमात्र ऐसी जगह थी जहाँ उनका पूरा परिवार अब भी एक साथ था। प्रियदर्शीजी यह भी जानते थे, कि जानकारी के अभाव में सिद्धार्थ-महिषी वंशावली खोजने में देर नहीं करेंगे।  ‘जानकारी उतनी ही देनी चाहिए, जितनी बेहद ज़रूरी हो’—उनका ब्रह्मवाक्य था। 

पंद्रह मिनट बाद उनकी उँगलियाँ फिर फोन पर थीं। इस बार घंटी थोड़ी ज़्यादा देर तक बजी। प्रियदर्शीजी का दाहिना हाथ एक बार फिर उनकी भौं के ऊपर मँडराने ही वाला था कि महिषी का स्वर उभरा, “हाँ, भैया! एक पीला कार्ड मिला है जिस पर ‘कार्यालय अंचलाधिकारी’ लिखा है . . . “

प्रियदर्शीजी ने बेसब्री से पूछा, “नीचे क्या लिखा है?” 

महिषी ने धीरे-धीरे जो पढ़ कर सुनाया उससे प्रियदर्शीजी को विश्वास हो गया कि सिद्धार्थ के पास वही दस्तावेज़ है जो उन्हें चाहिए। उनकी बाँछें खिल गईं। वे बोले, “थैंक गॉड, वंशावली मिल गई! ऐसा करो, सिद्धार्थ से कहो कि आज शाम को हमारे यहाँ आकर दे जाए।”

“वो तो नहीं जा सकते!” महिषी की आवाज़ बिलकुल संवेदनहीन थी। 

इतनी देर से वे उस दो कौड़ी की औरत की चिरौरी कर रहे थे, और वह थी कि उनका एहसान मानने की बजाय ऐंठ रही थी। प्रियदर्शीजी का ग़ुस्सा पंचम स्वर में फूट पड़ा, “व्हाई कांट ही कम? आई से, इज़ ही अशेम्ड ऑफ़ मीटिंग हिज एल्डर ब्रदर? ऑर इज़ ही डेड?” 

पत्नी ने आँखें तरेरीं, उन्हें वापस होश में आने का संकेत दिया। ज़रूरत से ज़्यादा कसने पर वाद्य सुर में आने की बजाय टूट भी जाता है, उनका अनुभव कहता था। 

प्रियदर्शीजी ने आसमान से वापस ज़मीन पर गोता लगाया। क्या किया जाए? एक तो वैसे ही वे टुच्चे लोगों के घर नहीं जाते थे, ऊपर से महिषी का रवैया भी मित्रवत् नहीं था। पता नहीं, वहाँ जाने पर क्या हो? उन्होंने तत्काल निर्णय लिया, “अच्छा, वह नहीं आ सकता है तो कोई बात नहीं। हम कल सुबह दस बजे दशरथ नाम का आदमी तुम्हारे घर भेज देंगे। उसे वंशावली सौंप देना। ठीक है?” 

“ठीक है,” महिषी ने सपाट-सा उत्तर दिया। 

“चलो फिर, कल बात करते हैं।”

‘कल’ बात करने का उनका न कोई इरादा था न कोई इच्छा, यह शायद महिषी को भी पता था। उसने ‘नमस्ते’ के साथ फोन काट दिया। 

पति-पत्नी में मशवरा हुआ, और अगले दिन दस बजे दशरथ शिवास रीगल विस्की की बोतल के साथ सिद्धार्थ के घर जा पहुँचा। दस मिनट बाद ही प्रियदर्शीजी ने फोन पर दशरथ से वंशावली मिलने की तसल्ली कर ली और उसे फ़ौरन वापस आने का निर्देश भी दे दिया। वह आँधी की तरह गया था, तूफ़ान की तरह लौट आया। 

वंशावली पाकर प्रियदर्शीजी की के सर से जैसे भारी बोझ उतर गया। उनकी समस्या का समाधान हो गया था। वंशावली में दिए विवरण और उसकी एक प्रति आयकर वालों का मुँह बन्द करने के लिए पर्याप्त थी। वे कम्प्यूटर के आगे बैठ गए। 

दशरथ थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर विस्की की बोतल देते हुए हिचकिचाया, “मैडम बोलीं कि इसको इन्जॉय करने वाले चले गए।”

कम्प्यूटर से नज़र हटाए बिना प्रियदर्शीजी लापरवाही से बोले, “ठीक है! वहीं रख दीजिए।”

जवाब को अंतिम बार पढ़ कर वे संतुष्ट हुए। 

उनकी पत्नी ने हर्ष से कहा, “दीदी ने स्विटजरलैंड से कितना मज़ेदार रील अपलोड किया है!”

प्रियदर्शीजी ने जवाब भेज दिया, और रील देख कर मुस्कुराने लगे। 

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