मरीचिका - 4
अमिताभ वर्मा(मूल रचना: विद्याभूषण श्रीरश्मि)
धारावाहिक कहानी
1951-53
नई नौकरी मेरी थी, पर नशा उसका विमल पर क़ाबिज़ था। मेरे देर रात घर लौटने और सप्ताह-सप्ताह-भर एम डी के साथ टूर पर रहने को उसने मेरी सफलता का लक्षण माना, मुझे उन्मुक्त भाव से गले लगाया, और मुझे अन्यमनस्क पाने पर हिम्मत बँधाई। उसे क्या मालूम था कि नौटियाल की दलाली की बदौलत एम डी ने चार सौ रुपए में स्टेनो और कॉल-गर्ल दोनों की व्यवस्था कर ली थी– डेढ़ सौ स्टेनोग्राफ़ी के और ढ़ाई सौ वेश्यावृत्ति के। सौदा सस्ता किया था उसने! मुझे अपने नारीत्व से घृणा होने लगी। विमल को देखते ही मैं सहज न रह पाती। घर लौटते ही बार-बार कपड़ों की जाँच करती, कहीं उसे मेरे विश्वासघात के चिह्न न दिख जाएँ। वस्त्रों पर चिह्न भले ही न दिखें, मेरे हावभाव पूरे संकेत दे रहे थे। विमल पुकारता तो मैं सिहर उठती। वह पास आता तो मुझे पसीना छूटने लगता। उसकी साधारण बात का जवाब देते हुए मेरी ज़ुबान लड़खड़ाने लगती। मेरे होंठों की मुस्कान और हृदय का आह्लाद छिन चुका था, मेरा सुख-चैन हवा हो गया था। मैं प्रेरणा से भी हँस कर दो बातें नहीं कर पाती, उसे देखते ही मेरा दिल भर आता, आँखें छलछला जातीं। कई बार एकान्त में मैं फफक-फफक कर रो देती, पर यह दाग़ आँसुओं से धुलनेवाले नहीं थे।
धीरे-धीरे विमल की ख़ुमारी उतरने लगी। उसे मेरे देर से लौटने पर शिकायत होने लगी, वह खीझने लगा मेरे टूर पर जाने की बात सुन कर। एक दिन जलभुन कर बोला, "यह क्या टूर-टूर लगा रखा है तुम्हारे एमडी ने? जब देखो तब टूर! इमप्लॉई की आख़िर कोई पर्सनल लाइफ़ भी है या उनका बिज़नेस ही सबकुछ है? पीए न रखी, स्लेव रख ली।"
"मैं भी यही सोचती हूँ।" मेरा 'हम' कहीं दब गया था। अब मैं विमल के साथ सावधानी से बात करती थी, जिसमें 'हम' जैसे बेपरवाह शब्द के लिए स्थान नहीं बचा था। "मुझे एकदम पसन्द नहीं है यह नौकरी। रूखा-सूखा खाते थे, पर आराम से रहते थे। अब तो लगता ही नहीं कि मेरा भी कोई घर है, कोई अपनी ज़िन्दगी है। जल्दी जाओ, देर से आओ, चार-चार दिन बच्ची से बात न करो। मैं तो छः महीनों में ही तंग आ गई हूँ! कहिए तो रिज़ाइन कर दूँ।"
"रिज़ाइन?" विमल चौंका, "फिर क्या करोगी?"
"कोई दूसरी नौकरी ढूँढ़ूँगी।"
"अरे दूसरा जॉब मिलना इतना ईज़ी थोड़े ही है! सरकारी नौकरी मिलने का तो सवाल ही नहीं है। इतनी सैलरीवाला प्राइवेट जॉब भी जल्दी नहीं मिलेगा। नौटियाल न होता तो यह ऑपरच्युनिटी भी कहाँ मिलती?"
"लेकिन मुझे स्टेनो का काम पसन्द नहीं है। आई प्रेफ़र टू वर्क ऐज़ ए टीचर इन ए गर्ल्स स्कूल।"
विमल भड़क गया, "टीचर, टीचर! ... साठ-सत्तर की नौकरी करने से अच्छा है, कुछ न करो। घर बैठो और बच्चा सम्भालो।"
"वह तो बेस्ट ऑप्शन है। मुझे प्रेरणा को छोड़ कर बाहर घूमना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।"
विमल ठण्डा पड़ गया, "वह तो ठीक है पर सडेनली इतना पेइन्ग जॉब मत छोड़ो। ... तुम देर तक काम करने के ओटी और टूर के लिए एक्स्ट्रा अलाउंसेज़ की डिमाण्ड क्यों नहीं करतीं?"
मैं अवाक् रह गई, मेरा मन घृणा से भर गया। विमल की दृष्टि में हर चीज़ का मूल्य पैसे से चुकाया जा सकता था। सौ-दो सौ रुपए अधिक मिलने पर वह मेरा विछोह सहने को तैयार था। उसे इस बात की परवाह न थी कि उसकी जवान बीवी किसी के साथ अकेली रहती है, घूमती-फिरती है, न जाने क्या-क्या करती है। उसके लिए पैसे से अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं था।
ऐसा नहीं है कि मुझे पैसे से नफ़रत थी। मैं पैसे की अहमियत से अच्छी तरह वाक़िफ़ थी। मैं विपन्नता में पली-बढ़ी थी, एक पैसे के अभाव में काम अधूरा छोड़ने और लू-भरी दुपहरी में नंगे पाँव चलने के अनुभवों से गुज़र चुकी थी। लेकिन मैं पतिता बन कर सम्पन्न होना नहीं चाहती थी, मेरी समृद्धि की कल्पना में आत्मसम्मान अक्षुण्ण था। यह सच है कि आय में बढ़ोत्तरी के बाद हम लगभग हर महीने कोई-न-कोई मँहगा घरेलू सामान ख़रीद रहे थे, पर उन चीज़ों की बहुत बड़ी क़ीमत भी तो अदा करनी पड़ रही थी मुझे। उस सामान में मुझे कभी एम डी और कभी नौटियाल का लपलपाता चेहरा दिखता, और मेरा शरीर गनगना जाता। पड़ोसियों का मुँह बन्द हो गया था, पर मुझे कोई ख़ुशी न थी। गन्दे बजबजाते नाले से रत्न निकालने वाला औरों की दृष्टि में भले ही चतुर हो, मेरी नज़र में तो वह उसी नाले का हिस्सा था। आज मैं ख़ुद एक नाले में फिसलती जा रही थी, पुकार-पुकार कर विमल से उद्धार करने की याचना कर रही थी, पर उसके कान मेरी आर्तनाद पर नहीं, सोने की खनक पर केन्द्रित थे।
नतीजतन, मैं नाले में डुबकियाँ खाती रही। समय के साथ-साथ मेरी नवीनता धूमिल पड़ती जा रही थी, और उसी अनुपात में एम डी और नौटियाल की कामपिपासा भी, पर गुलामी की ज़जीरें ढीली नहीं पड़ी थीं। उन दोनों के संकेत-मात्र पर मुझे अब भी नग्न होना पड़ता था, उनके बदबूदार शरीर के साथ वहशियाना हरकतें करनी पड़ती थीं, और वह सब करते समय आनन्दित होने का अभिनय भी करना पड़ता था। ऐसे में मेरा रोम-रोम विमल पर क्रोध से सुलग उठता था, लेकिन मेरे चेहरे और बदन की लाली को अक़्सर मेरे आवेग का द्योतक समझ मेरा मानमर्दन करनेवाले और अधिक उत्साहित हो उठते थे।
कम्पनी की लियाज़ाँ आफ़िसर, मिस साइमन, अपनी धूर्तता और आवारागर्दी के लिए बदनाम थीं। अधेड़ उम्र की मिस साइमन में झट से मन की बात ताड़ने की प्रतिभा थी। मैं उनसे दूर-दूर ही रहती थी। फिर भी, काम के सिलसिले में दो-चार दिन में एक बार मिलने को नहीं टाला जा सकता था। इन चंद मुलाक़ातों में हमारी बातचीत बहुत कम होती। मैंने लक्ष्य किया, मिस साइमन का बर्ताव अच्छा था। कार्यस्थल के सहयोगी एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कौन-कौन-सी तिकड़में नहीं आज़माते, पर वे उल्टे मेरी मदद ही किया करती थीं, मेरे अनाड़ीपन को ढाँप दिया करती थीं। धीरे-धीरे मैं उनके क़रीब आ गई, और एक दिन मेरी व्यथा आँसुओं के रूप में बह निकली। स्थिति का बेजा फ़ायदा उठाने, प्रवचन देने, या ताना मारने की बजाय उन्होंने मुझे ढाढ़स बँधाया। वे पहले से ही जानती थीं एम डी और नौटियाल के साथ मेरे अनैतिक सम्बन्धों के बारे में। उन्होंने सलाह दी, "तुम बेकार परेशान हो रही हो, औरत का एक्सप्लॉयटेशन हर जगह होता है। इल्लिटरेट हो या पीएच.डी., भिखारन हो या हॉलीवुड की हिरोइन, बहुत कम ही बच पाती हैं इससे। टैलेण्ट, केपेबिलिटी, सिन्सिएरिटी, एफ़िशियेन्सी, इन्टेग्रिटी, वग़ैरह-वग़ैरह सेकेण्डरी हैं। मर्द को ख़ुश कर सकती हो तो सक्सेसफ़ुल भी बन सकती हो, वरना टेक योर चान्स। तुमने दुनिया देर से देखनी शुरू की है, इसलिए अपने-आप को ब्लेम कर रही हो। ... मैंने तो कॉलेज लाइफ़ में ही इस अग्ली ट्रूथ को फ़ेस कर लिया था। मैंने अपने ब्वॉयफ़्रेण्ड को ट्रस्ट किया, अलाउड हिम टू गो ऑल द वे विद मी, ऐण्ड व्हॉट डिड ही डू? ... ही डिसर्टेड मी इन ए डिफ़िकल्ट सिचुएशन! बाद में मैं एक कॉलेज में इंगलिश लेक्चरर अपाइंट हुई, बट हैड टू लीव व्हाइल अण्डर प्रोबेशन। व्हाई? ... द मैंनेजिंग कमिटी प्रेज़िडेण्ट हैड मेड ए पास ऐट मी ऐण्ड आई हैड रिस्पॉण्डेड बाई गिविंग हिम ए रिसाउण्डिंग स्लैप। उसके बाद मैंने कई जगह जॉब की, और हर जगह ऐसा ही हाल देखा। वेदर इट वाज़ द बॉस और ए कलीग और ए फ्रेण्ड, ऑल दे वर इनटरेस्टेड इन वाज़ ए पाउण्ड ऑफ़ माई फ़्लेश। मैंने डिसाइड कर लिया कि ज़िन्दगी-भर शादी नहीं करूँगी, और अपने को एक्सप्लॉइट नहीं होने दूँगी। लेट इट बी ए टू-वे ट्रान्ज़ैक्शन। ... पहले मैं तुम्हारी ही पोस्ट पर थी, मेरे साथ भी वही सब होता था। एमडी ऐण्ड हिज़ ब्लैकमेलर, नौटियाल, यूस्ड टू बी क्रेज़ी अबाउट मी। ... आई डिन्ड सरेन्डर ब्लाइण्डली। ... मैंने बारगेन किया, उनका गेम उन्हीं के साथ खेला, और लियाज़ाँ आफ़िसर का पोज़िशन क्रिएट करवाया। अब मैं कस्टमर्स से बारगेन करती हूँ, उनको मैनेज करती हूँ। विद ए गुड सैलरी, नॉट टू टॉक ऑफ़ एक्सपेन्सिव गिफ़्ट्स फ़्रॉम क्लायण्ट्स, आई हैव अमास्ड क्वाइट ए फ़ॉरचून। ... रोओ मत! रोने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। जवाब देना सीखो इनको इन्हीं की ज़ुबान में!"
मिस साइमन ने मेरी आँखें खोल दीं। ग़लत नहीं कह रही थीं वे। बचपन से मैं भी तो वही हाल देखती आई थी। और तो और, अपने को विमल के अभिन्न और विश्वासी मित्र कहनेवाले लोगों ने भी मुझसे लिबर्टी लेने की कोशिश की थी। बस एक विमल ही था जो इस तथ्य से अनजान, किसी स्वप्नलोक में विचरण करता रहता था।
मैंने कहा, "आपकी बात में दम है, मिस साइमन। ज़हर का ऐण्टीवेनम भी ज़हर ही होता है। लेकिन आप अनअटैच्ड हैं, सो ज़हर पिला सकीं इन दोनों रास्कल्स को। मैं तो शादी-शुदा हूँ, बाल-बच्चेवाली हूँ। अगर मैं यह गेम खेलने लगी और मेरे हस्बैण्ड को पता लग गया, तो क्या होगा उस बेचारे का, और क्या होगा मेरा, मेरी डॉटर का?"
मिस साइमन ऐसे ठठा कर हँसी मानो लॉरेल हार्डी की लेटेस्ट फ़िल्म 'यूटोपिया' का कोई मज़ेदार दृश्य देख लिया हो। शान्त होने पर गम्भीरता से बोलीं, "तुम क्या समझती हो, वह कुछ नहीं जानता है? हाउ नाइव यू आर! उसकी ढाई-तीन साल के एक्सपीरियेन्सवाली वाइफ़ को चार सौ रुपए में कैसी स्टेनो-टाइपिंग का जॉब मिला है, उसे पहले दिन से ही पता होगा। इतना दिमाग़ होगा उसमें कि समझ ले, एओ ने जॉब का प्रोपोज़ल तुम्हारे ही सामने क्यों रखा, उसके सात साल के एक्सपीरियेन्स को क्यों इग्नोर कर दिया।"
"विमल क्लर्क है, स्टेनो-टाइपिस्ट थोड़े-ही है," मैंने धीमे-से प्रतिवाद किया।
"चलो मान लिया। यह भी मान लिया कि उसे जॉब ऑफ़र होते समय शक नहीं हुआ। पर ऐसा कौन आदमी होगा जो बीवी के देर से घर लौटने और बार-बार टूर पर जाने पर भी कुछ न समझे? ऐसा कौन-सा बूम आ गया है इकॉनमी में कि स्टेनोग्राफ़र्स का इनवॉलव्मेण्ट इतना बढ़ जाए? फ़र्स्ट फ़ाइव ईयर प्लान लागू होना तो अभी शुरू ही हुआ है। ...ना! वह सब कुछ जानता है। आराम से, शान से, रहना चाहता है। ख़ुद केपेबल नहीं है, इसलिए सबकुछ जानबूझ कर भी चुप रहता है, बीवी की कमाई पर ऐश करता है!"
मैं तिलमिला गई। कहीं मैंने मिस साइमन को हमराज़ बना कर ग़लती तो नहीं कर दी थी? कहीं वे मेरे हँसते-खेलते परिवार में आग तो नहीं लगाना चाह रही थीं? जो ख़ुद अपना घर न बसा पाए, वह दूसरों का घर बसते कैसे देख सकता है? मैंने उठते हुए दृढ़ता से कहा, "बेकार बात है! हम दोनों एक-दूसरे पर विश्वास करते हैं, फिर शक क्यों करेंगे?"
"अच्छा!" मिस साइमन भी तैश में आ गईं। "ठीक है! पर एक काम करना। दो दिन लगातार किसी दोस्त को घर बुला कर मीठी-मीठी बातें करना उससे। देखना, अगर दोस्त हम्बली प्लेस्ड हुआ तो तुम्हारे हस्बैण्ड का विश्वास कैसे क्रम्बल करेगा! और अगर वह अमीर हुआ, तो उसे घर बुलाने क्या, उसके साथ बाहर घूमने-फिरने पर भी कोई ऑब्जेक्शन नहीं होगा। ही मे ईवेन आस्क यू टू टेक एडवांटेज ऑफ़ द फ़्रेण्डशिप।"
मुझे बड़ी ज़ोर से चिढ़ लगी, जब मिस साइमन मेरे पति से मिली भी नहीं हैं तो इतने विश्वास से ऐसी उल्टी-सीधी बातें कैसे कह सकती हैं उसके बारे में! बेकार ही इन पर विश्वास किया। "ठीक है!" बोल कर मैं पाँव पटकती बाहर निकल गई।
लेकिन मिस साइमन ने सन्देह का जो कीड़ा मेरे दिमाग़ में छोड़ दिया था, वह कुलबुलाता रहा। उसे मारे बिना समाधान नहीं होने वाला था समस्या का। उसी शाम मैं दफ़्तर के एक क्लर्क को घर ले गई। विमल उससे बड़े तपाक से मिला, लेकिन परिचय होते ही उसके जोश पर घड़ों पानी फिर गया। जैसे-तैसे करके उसने बातचीत में साथ दिया, और अतिथि के विदा होते ही उलाहने-भरे स्वर में बोला, "क्या स्टैण्डर्ड हो गया है तुम्हारा! सच पॉपर्स कान्ट डू ऐनीथिंग टू एनलाइटेन यू!"
दूसरे दिन मैंने एक कम्पनी के सेल्स मैनेजर को चाय पर निमन्त्रित किया। विमल उससे पुराने आत्मीय की तरह मिला। मैं अगले दिन ऑफ़िस से देर से लौटी, और विमल से झूठ कह दिया कि वह सेल्स मैनेजर मुझे सिनेमा दिखाने ले गया था। विमल ने विशाल-हृदयता का परिचय देते हुए कहा, "सिनेमा जाना कोई बुरी बात थोड़े ही है। आई हैव नेवर लाइक्ड ए कन्ज़र्वेटिव अप्रोच।"
एक दिन बाद मैं डेढ़ सौ रुपए की साड़ी ख़रीद कर घर ले गई और विमल से कहा कि वह सेल्स मैनेजर ने ज़बर्दस्ती भेंट में दे थी। विमल ने सेल्स मैनेजर की पसन्द की तारीफ़ की, बोला, "आदमी काम का है। अगर उसके वहाँ कोई वेकेन्सी हो तो छोड़ना मत।"
मेरे स्वप्नमहल में दरारें तो पहले ही पड़ चुकी थीं, अब वह पूरी तरह धराशायी हो गया। विमल मेरा रक्षक नहीं, मेरा विक्रेता था। मैं ग़लत थी, मिस साइमन सही थीं। मैंने तय कर लिया, मैं भी साइमन बनूँगी, अपनी मर्ज़ी की मालकिन। विमल-जैसे काइयाँ बनिए के हाथों की कठपुतली बनना मेरी ग़ैरत को मंज़ूर न रहा। उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना सबसे अच्छा उपाय होता, पर वैसा करने पर पिताजी की बेइज़्ज़ती होती, रेवा और सुकुमार के विवाह में अड़चनें आ जातीं। और विमल के साथ रहने पर नौकरी किए बिना कोई चारा न था। इतने लोगों का ख़र्च कैसे पूरा होता?
मैंने न तलाक़ दिया और न ही नौकरी छोड़ी, लेकिन मेरा नज़रिया बदल गया। अब मैं न तो वह भीरू पत्नी थी जो पति की इच्छाओं का सम्मान करती थी, उसकी भृकुटियाँ तनी देख अपना-आपा खो देती थी, और न ही वह दब्बू कर्मचारी थी जो बॉस के ज़रा-से इशारे पर घुटने-भर पानी में भरी बरसात में भीगने को सहर्ष तैयार हो जाती थी। मैंने मिस साइमन से सम्बन्ध पुनः सुदृढ़ कर लिए, लेकिन मेरे हृदय में कुछ लोगों के प्रति गहरी वितृष्णा हो गई। इनमें सबसे पहले वे वैभवशाली व्यक्ति थे जो अपने से कमज़ोर प्राणियों का शारीरिक और मानसिक शोषण करते हैं। नारी की विवशता का लाभ उठानेवालों, उस पर छींटाक़शी करनेवालों के लिए मेरे दिल में अपार नफ़रत हो गई। विमल मेरे लिए दया का पात्र भी न रहा। उसके स्वार्थ और सुख-भोग की लालसा ने ही तो मुझे नारकीय जीवन व्यतीत करने पर बाध्य कर दिया था। मैं अपनी सबसे बहुमूल्य वस्तु, अपनी आस्था, खो चुकी थी। अब और खोने को कुछ बाक़ी नहीं बचा था मेरे पास।
मिसेज़ साइमन मेरी मार्गदर्शक बन गईं। बड़ी अनुभवी थीं वह जीवनशैली की पतंगबाज़ी में। उन्होंने मुझे ढील देने और डोर ख़ींचने के गुर सिखाए, सहज उपलब्ध होने से बचने के तरीक़े समझाए, ख़ुद को महत्वपूर्ण बनाना सिखाया, और लोगों में प्रतिद्वन्द्विता की भावना पैदा कर उसका फ़ायदा उठाने की तरक़ीबें बताईं। मैंने उनसे कुंठा और आत्मकरुणा से बचने के लिए मदिरापान की कला सीखी। मैंने उनका ब्रह्मवाक्य अपना लिया – "ख़ुद तड़प कर पापियों को आनन्द मत दो, पापियों को तड़पा कर आनन्द लो।"
मिस साइमन की सीख पक्के अनुभव पर आधारित थी। जल्दी ही एम डी और नौटियाल मुझमें दोबारा नवीनता पाने लगे। मेरे ढील देने और डोर कसने के फलस्वरूप उनके पर्स और अधिकार क्षेत्र से पतंगें कट-कट कर मेरे इर्द-गिर्द गिरने लगीं। अब मैं उनकी ग़ुलाम नहीं रह गई थी, जुर्म में बराबर की हिस्सेदार बन चुकी थी। दूसरे धनाढ्य परिचितों के साथ भी मैंने वही युक्ति अपनाई, कभी एक के क़रीब हुई तो कभी दूसरे के। मेरे ज़्यादा निकट आने की होड़ में वे एक-दूसरे से जलने और मेरा मुँह मोतियों से भरने लगे। कुछ तो दीवानगी की हद तक भी पहुँच गए। पाँच सौ रुपए की साड़ी और हज़ार रुपए के गहने मेरे लिए मामूली हो गए। मैं क्लबों में जाने लगी, कलचर्ड सोसाइटी में पूछ होने लगी मेरी। ग़ौर से देखा तो पाया, रईसों की पत्नियाँ भी वही कर रही थीं जो मिस साइमन और मैं कर रहे थे। मेरी आँखों पर पड़े पर्दे ने मुझे धोखे में रखा था। मैंने महसूस किया, आदर्शों के उपदेश सिर्फ़ कायरों के लिए होते हैं, हिम्मतवाले ज़िन्दगी अपने ढंग से जीते हैं, दूसरों के कहे-अनुसार नहीं।
वास्तविकता की यह अनुभूति मेरे लिए बड़ी सन्तोषप्रद थी। नए माहौल में मुझे सुख मिल रहा था। नवीनता मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है, और परिवर्तित जीवन-शैली में नवीनता-ही-नवीनता थी। अलग-अलग पुरुषों के साथ मुझे तुष्टि मिलने लगी। वे मेरी प्रशंसा करते नहीं अघाते, मेरे लिए तड़प दर्शाते, मेरे मिल जाने पर अपना सौभाग्य मान मुझे सौगातों के बोझ तले दबा देते। मुझे लगता कि मैं कोई साधारण स्त्री नहीं रह गई हूँ, वह हीरा बन गई हूँ जिसे कुछ समय पहले तक पत्थर का टुकड़ा समझ ठोकरें लगाई जा रही थीं। विमल के साहचर्य से मुझे कोफ़्त होने लगी। वही बासी बातें, वही नीरस शारीरिक सम्बन्ध, वही उबाऊ दिनचर्या। छः साल में तो गाने के रिकॉर्ड की सूई भी अटकने लगती है, हम तो जीते-जागते मनुष्य थे। शायद इसीलिए पुरातन समाज-शास्त्रियों और धर्मोपदेशकों ने मर्यादा की सीमाएँ निर्धारित की थीं, सन्तोष को परमधन बताया था, मनुष्य को लिप्सा में लीन न होने की हिदायत दी थी। पर उपदेश तो कायरों के लिए होते हैं, उनके लिए नहीं जो अपना रास्ता स्वयं बनाते हैं। नवीनता की चाह न हो, तो आदमी आगे ही क्यों बढ़े, महत्वाकांक्षाएँ ही क्यों पाले, अध्यवसायी ही क्यों बने? संघर्ष से घबराना कैसा, संघर्ष ही तो जीवन है!
मेरी विलक्षण जीवन-शैली बड़ी आनन्ददायक थी। मैं एक ही मुस्कराहट में वैभवशाली घमण्डियों का मान-मर्दन कर देती, पर वे चूँ तक न करते! स्त्रियों को वासनापूर्ति का साधनमात्र समझनेवाले अब मुझे कामोत्तेजना की ऊँचाइयों तक ले जाने का प्रयास करते, और मेरे डपट देने पर भीगी बिल्ली बन जाते। विमल से भी अब मैं बराबरी पर उतर आई थी, उसे आप नहीं, तुम कहने लगी थी। सर्वविदित है कि आदर्श त्याग से चलता है और व्यावहारिकता यथार्थ से। मैं किताबी आदर्शों को तिलांजलि देकर व्यावहारिक बन चुकी थी, अपने स्वार्थ की रक्षा करने लगी थी। विमल मेरे एक स्वार्थ की पूर्ति करता था। पति के साथ रह रही स्त्री के चरित्र पर कम उँगलियाँ उठती हैं, उसके मित्र जल्दी बनते हैं। मेरे मित्र बनने में विमल का भी फ़ायदा था, उसके मँहगे शौक़ पूरे हो जाते थे। फिर भी, एक दिन सम्भवतः अपनी अधिकार सीमा नापने के लिए उसने दबे स्वर में कह दिया कि मेरे मित्रों की वज़ह से उसका समय नष्ट हो जाता है। मैं उसका मन्तव्य अच्छी तरह समझ गई, पर मित्रों की संख्या कम करने की जगह मैंने चार कमरे का एक फ़्लैट डेढ़ सौ रुपए किराए पर ले लिया, और एक कमरा विमल के लिए ख़ास तौर पर निर्धारित कर दिया।
विमल अब मुझसे जलने-भुनने लगा था। किससे सहन होती है अपनी उपेक्षा? पर वह मन मसोस कर रह जाता। और कर भी क्या सकता था? उसके मुँह पर लोकलाज के भय और मेरी आमदनी की पट्टियाँ जो बँधी थीं! मैं मनमर्ज़ी अवश्य कर रही थी, पर घर तो उसका भी भर रहा था, धनी बनने की अभिलाषा तो उसकी भी पूरी हो रही थी। चंद बेहद क़रीबी लोगों के आगे ही उसे शर्मिन्दा होना पड़ता था, बाक़ी के लिए तो वह सभ्य-सम्पन्न था। हमारी ज़िन्दगी एक समझौते में तब्दील हो चुकी थी। विमल जानता था कि मैं क्या करती थी, लेकिन वह शिकायत करने की हालत में नहीं था। मैं जानती थी कि वह मुझे प्यार नहीं करता, पर फिर भी उसका लिहाज़ करती, उसके सामने भद्रता का खोल ओढ़े रहती। दूसरे लोगों के सामने हम अपने सुखी जीवन का आडम्बर रचते, एक-दूसरे के प्रति अकूत प्रेम का प्रदर्शन करते। भौतिक दृष्टि से हमारा जीवन सुखी था भी। रेडियोग्राम, फ़्रिज, कूलर, उम्दा फ़र्नीचर, बढ़िया कपड़े, क़ीमती ज़ेवर–सबकुछ इकट्ठा कर लिया था हमने। अब सम्भ्रान्त लोग हमें निमन्त्रित करने में हिचकिचाते नहीं थे, बल्कि ख़ुद भी हमारे घर आ धमकते थे। पड़ोसियों की आँखों में हमारे लिए अक़्सर ईर्ष्या झलकती थी, और हमारी आँखों में एक-दूसरे के लिए सवालिया निशान तैरते थे।
समझौते के बावजूद, विमल की छटपटाहट बढ़ने लगी थी। पैसे की झनकार के मध्य वह मेरे प्रेम की मनुहार भी सुनने को आतुर हो रहा था। एक दिन बोल बैठा, "प्रतिमा, इतना-कुछ जमा हो गया है हमारे पास, लेकिन न जाने क्यों, लगता है जैसे हमने कुछ खो दिया है। कुछ सूना हो गया है।"
मैंने लक्ष्य किया, महत्वाकांक्षा की उड़ान में बात-बात पर अंग्रेज़ी बोलनेवाला विमल वास्तविकता के धरातल पर पग धरते ही कैसे हिन्दी बोल रहा था! प्रत्यक्ष रूप में बोली, "सूना हो गया है? कुछ खो गया है? यह सब क्या कह रहे हो? मुझे तो ऐसा कुछ नहीं लगता।"
"मुझे लगता है, प्रतिमा! बड़ा अकेलापन महसूस करता हूँ मैं।"
"हाँ, वह तो करते होगे," मैंने लापरवाही से कहा। "लेकिन अब यह जॉब ही ऐसा है। मैंने तो बहुत पहले तुम्हें कहा था कि नौकरी छोड़ दूँ, पर तुम्हें मंज़ूर ही नहीं था।"
"उस समय नहीं सोचा था कि हालत ऐसी हो जाएगी। अब तो सबकुछ आ ही गया है। अब तुम्हारे नौकरी छोड़ कर घर में बैठने में बुराई नहीं होगी।"
"ठीक सोचते हो! लेकिन हमारी हैबिट हो गई है स्टेटस मेनटेन करने की। दो-ढाई सौ में स्टेटस तो ख़ैर क्या मेनटेन होगा, खाने के भी लाले पड़ जाएँगे। इम्पार्शियली देखो, तो नौकरी ऐसी बुरी भी नहीं है। वरना दो साल में ही चार सौ से छः सौ तनख़्वाह कौन बढ़ाता है? हाँ, पर्सनल टाइम कम मिलता है, पर क्या करें? अगर तुम्हारी सैलरी आठ सौ-एक हज़ार होती, तो कोई झंझट ही नहीं होता!" मैंने बड़े प्यार से उसे उसकी औक़ात दिखा दी। वह अपना-सा मुँह लेकर रह गया।
इन्हीं दिनों एक वज्रपात हुआ। पिताजी चल बसे। संसार-भर में मैं सबसे अधिक प्यार उन्हें ही करती थी। उनके जाने से मेरा सम्बल छिन गया, मैं विक्षिप्त-सी हो गई। जैसे-तैसे मैं आरा भागी। विमल, प्रेरणा, और मैना भी साथ गईं हमारे, बाबू उन दिनों घर गया हुआ था। आरा में हम पन्द्रह दिन रहे। विमल ने मेरे साथ बड़ी सहानुभूति जताई, लेकिन मैं यह न भूल सकी कि उसके आडम्बर-मोह की वज़ह से मैंने अनुराग की शादी में पिताजी के साथ रहने का मौक़ा ही नहीं खोया था, उनसे झूठ भी बोला था। उसने माँ द्वारा नौकरी छोड़ने के लिए कहलवाया, पर उस समय मैं पिता-विछोह के दुःख और अपनों के मिलन के सुख में ऐसी सराबोर थी कि अन्य बातों पर ध्यान देने के लिए समय ही नहीं था मेरे पास। मायके की आर्थिक हालत अब काफ़ी सुधर चुकी थी। अनुराग और सुकुमार पढ़-लिख कर नौकरी कर रहे थे और कान्ति शादी होने के बाद पति के साथ पटना में रह रही थी। बची रेवा, तो वह थर्ड ईयर में थी। उसके विवाह के लिए धन की समस्या नहीं थी, वरना माँ मेरी आर्थिक सहायता के सुझाव को मृदुता से अस्वीकार न करतीं।
माँ ने बाक़ी परिचितों के साथ-साथ शान्ति देवी का ताज़ा हाल दिया। वे अब भी आदर्श गर्ल्स स्कूल की प्रिंसिपल थीं, लेकिन उनके घर की हालत शायद ठीक नहीं थी। छोटी-छोटी जगहों में ऐसी बातें कहाँ छुपती हैं! पर माँ ज़्यादा कुछ नहीं बता सकीं शान्ति देवी के बारे में। स्कूल में नौकरी करते समय वे मेरी आदर्श थीं, मुझसे स्नेह भी करती थीं। मैंने उनके घर जाने का फ़ैसला किया।
शान्ति देवी बैठके में थीं। उनके पति चौकी पर लेटे थे। शान्ति देवी ने एक हाथ से पति को सहारा दिया हुआ था और दूसरे में उगलदान थामे थीं। उनके पति सफ़ेद-लाल बलगम थूक रहे थे। मैं अवाक् रह गई। उनके पति की नज़र मुझ पर पड़ी, तो प्रतिक्रिया-स्वरूप शान्ति देवी ने भी दरवाज़े की तरफ़ देखा। झट पहचान गईं। "ओह, पड़तिमा! बगलवाला कमरा खुला है, ओहीं बइठो। हम अभी आते हैं।"
पाँच मिनट बाद वे मेरे पास आकर बैठ गईं। बातों-बातों में पता चला, उनके पति एक साल से राजयक्ष्मा का प्रकोप झेल रहे थे।
"यह तो शुरू का स्टेज है। सैनेटोरियम क्यों नहीं भेज देतीं?" मैंने पूछा।
"इस्टेज तो सुरुएका है। ... लेकिन सैनेटोरियम कइसे भेजें? मजबूरी न है!" उन्होंने कातर-भाव से कहा।
"वह बात तो है। ... लेकिन अगर आप मजबूरी बताएँ तो शायद उसका हल भी निकल आए।"
"न बताने-लायक क्या है!" उन्होंने एक क्षण मेरी ओर देखा, फिर धीरे-धीरे कहने लगीं, "मजबूरी ई है कि सैनेटोरियम में हर महीना दू सौ रुपय्या का खरचा बैठता है। वहाँ रखना भी कम-से-कम छौ महीना पड़ता है। हमारा तो तनखाहे दू सौ रुपय्या है। न जमीन-जायदाद है, न गहना-गुड़िया है, कि बेचबाच के रुपय्या का इंतजाम हो जाए। हमारी हालत में पड़ी अउरत को कर्जा भी कौन देगा?"
"स्कूल मदद नहीं करेगा?"
"इस्कूल!" वे उस हालत में भी हँस दीं। "इस्कूल करेगा मदद? अरे ऊ सब तो ताक लगाए बइठा है कि कब हम नौकरी छोड़ें आऊ कब उनको मनचाहा आदमी रखने का मौका मिल जाए। ... दू साल से मैनेजिंग कमिटी से खटपट चलिए रहा है।"
"ओह!" मैंने उनकी आँखों में झाँकते हुए कहा, "लेकिन दीदी, सैनेटोरियम भेजे बिना कोई रास्ता नहीं है। आप सोच-विचार में देर मत करिए। हम हैं न! भाई साहब को हमारी तरफ़ से भेजिए, जब तक ज़रूरत हो तब तक।" आत्मीयता ने मेरे 'मैं' को खिसका कर 'हम' को पुनः स्थापित कर दिया था।
"तुम्हारी तरफ से?" शान्ति देवी का मुँह खुला रह गया।
"हाँ, दीदी! आप हमारे लिए बहुत-कुछ हैं। हम आपकी परेशानी नहीं देख सकते। इलाज कराइए उनका। भगवान हमको इतना पैसा दे दिए हैं कि ..." बोलते-बोलते मेरा गला भर आया।
शान्ति देवी ने आँचल के पोर से आँखें पोंछीं, बोलीं, "लगता है, भगवान तुमको हमारे सुहाग का रच्छक बना कर भेजे हैं। ठीक है, हम इनको भेजने की ब्यबस्था करते हैं।" फिर अपने प्रिंसिपल-वाले अंदाज़ में आँखें बड़ी करके बोलीं, "अउर याद रखना, जिस दिन भी होगा, जइसे भी होगा, हम तुम्हारा पैसवा लौटाएँगे जरूर!"
"दीदी! हमको पता है, आप किसी का एक आना भी नहीं रखती हैं। हमारा पैसा भी लौटाएँगी ही, लेकिन उसकी चिन्ता अभी से क्यों? हम परसों दिल्ली जा रहे हैं। वहाँ पहुँचते ही रुपए भिजवा देंगे।"
शान्ति देवी को एक हज़ार रुपए का ड्राफ़्ट भेज कर मुझे अपार सुख मिला। इस नेक काम से मेरे अन्दर दम तोड़ रही प्रतिमा को जीवनसुधा मिली। मैंने उन्हें आगे भी पैसे भेजते रहने का आश्वासन दिया। अन्दर-ही-अन्दर मैं पुरानी प्रतिमा को जीवित जो रखना चाहती थी।
– क्रमशः