विज्ञापनर
सुदर्शन कुमार सोनीआख़िर इनके तन का कौन सा हिस्सा शेष है जो कि स्पांसरशिप से न बजबजा रहा हो। उधर को मैदान मे चीयर गर्ल्स कपड़ा-लैस्स हों तो इधर को ये विज्ञापन-लैस हो जलवा तेरा जलवा कर रहे हैं। नख से शिख तक वे स्पांसरशिप में डूबे हैं। हेल्मेट में एक कपनी की नुमाइश है तो शोल्डर में दूसरी कंपनी की नुमाइश है। बल्कि दायाँ कंधा एक कपनी का है तो बायाँ दूसरे ने कब्ज़े में ले रखा है। उनका हाथ जगन्नाथ हो गया है। एक कलाई में एक कंपनी का रिबन है तो दूसरी में दूसरे का है। कंधों से कलाई तक तीन कंपनियों का कब्ज़ा है। टी शर्ट के पिछवाड़े एक कंपनी का डंका बज रहा है तो आगे किसी और पर वे मेहरबान हुये हैं। यहाँ भी एक-एक और कंपनी से कमाई का स्कोप है। उनकी पतलून मे भी दो तीन प्रायोजक कंपनियों की संभावना छिपी है। ये बैटसमैन, बालर, ओपनर, विकेटकीपर, फील्डर बाद में हैं - पहले विज्ञापनर हैं।
एक ओर को चीयर गर्ल्स की अपने को उघाड़ने की तो इनकी स्पांसरशिप से अपने शरीर के हर हिस्से को सजाने की नुमाइश है। वहाँ उघाड़ना पेट के लिये है और यहाँ ढंकना विज्ञापनी कमाई को गले तक ठूँसने की इच्छा का परिणाम है। इनके पास अब कुछ नहीं बचा फिर भी बहुत कुछ है। जनाब आप अपने दाँतों को कब उठायेंगे। यहाँ बहुत स्कोप है। हर दाँत एक कंपनी को या कम से कम नीचे व ऊपर की पंक्ति के लिये तो अलग-अलग कंपनी का प्रायोजन हो सकता है। ज़रा सी अक्ल लगायी जाये; अक्ल दाढ़ के लिये अलग कंपनी तैयार मिलेगी। अभी तो बहुत स्कोप है- बालों में किसी कंपनी का नाम पिरो लें। किसी को कान तो किसी को नाक दें दें; इससे नाक कटती है तो कट जाये। दा होल थिंग टज दैट कि "भैया सबसे बड़ा रुपैया" तो बनेगा। जब खुले आम नीलामी मे बोली लगने में गौरवान्वित महसूस होते है़ं तो फिर तो यह अलग ही गौरव गान की बात है।
अपने होंठ भी किसी कंपनी से स्पान्सर करवा लें। जो मूँछ रखते हों वो इसका सौदा कर लें। वैसे बाज़ार ने इसके लायक़ छोड़ा नहीं है। आपकी तो छींक, खाँसी, उबासी तक कमाऊ हो सकती है। यह क्रिकेट तो चार दिन का है बाद में अंटी का यह पैसा ही काम आयेगा। जितने पुराने सयाने हैं सबने विज्ञापनर बन करोड़ों पीटे हैं। पीट रहे हैं। साँसों के बिना भला आदमी ज़िंदा रह सकता है और आज के क्रिकेट की साँसे स्पांसरशिप में ही हैं। आज का क्रिकेटर विज्ञापन का सोलह शृंगार कर ही फ़ील्ड में उतरता है और फिर वह या उसका खेल नहीं विज्ञापन ही विज्ञापन उतराता है। खेल की झलक तो अब चीयर गर्ल्स व विज्ञापन के बीच-बीच में मिलती है। मुख्य अब विज्ञापन है खेल गौण हो चला।
दुल्हन सोलह शृंगार में और हमारा क्रिकेटर स्पांशरशिप के शृंगार में मनमोहक लगता है। बीसीसीआई को भी देखना चाहिये कि खिलाड़ी के विज्ञापनी सोलह शृंगार मे कोई कमी हो तो कुछ और कंपनियों से टाइ अप कर पूरा कर सकते हैं।
क्रिकेट के तोते की आत्मा तो अब बाज़ारवाद के पिंजड़े में क़ैद है। जिसको जितना बिकना हो वह बिक सकता है यहाँ अनन्त ही सीमा है।
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