अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो
सुदर्शन कुमार सोनीबौद्ध धर्म अनुसार मध्यम मार्ग उत्तम मार्ग है। पर अर्थ क्षेत्र में इसमें समस्याएँ हैं। मध्यम को पल-पल सिवाय ज़िल्लत व क़िल्लत के कुछ नहीं। हमने अभी आक्सीजन, बेड, वेन्टीलेटर, रेमडेसिविर की सबकी क़िल्लत व साथ ज़िल्लत झेली है। मध्यम वर्ग की हालत पतली है। नौकरी/धंधे से गये। लोन पर लिये मकान, वाहन की किश्त भरने के लाले पड़े हैं। अनेकों आशियानों को औने-पौने में निकाल मकान मालिक की पदवी उतार किरायेदार की भूमिका में आने विवश हुए। गृहस्थी की गाड़ी इस खीचमतान समय में कैसे घिसट-घिसट कर खींच रहे हैं कोई हमसे पूछे।
भले ही खाने के लाले पड़ रहे हों पर रुपैया किलो का राशन, गैस कनेक्शन मुफ़्त, आयुष्मान कार्ड! ऐसे हमारे कहाँ अहोभाग्य? नगद सहायता तो दूर की कौड़ी। अमीर को भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। कोरोना व अमीर की दौलत दोनों घातक रफ़्तार से बढ़ रहे हैं।
हमें तो किश्त आदमी कहिये। ईएमआई हमें अपनी प्रेयसी से ज़्यादा प्रिय होती है। अपनी हाड़तोड़ मेहनत की कमाई को किश्त चुकाने में लुटाते हम मकान मालिक तो कभी कार स्वामी बनने के सपने देखते-देखते चुक जाते हैं। बाज़ार की थाली में लुभावने प्लान्स की रेसिपी देखकर लार टपकाने लगते हैं। ये रेसीपीज़ जब तक चखी नहीं हैं तभी तक स्वादिष्ट प्रतीत होती हैं। जब ईएमआई शुरू होती है तो रेसिपी को निगलने के बाद उगलते नहीं बनता। बाद इसका ब्याज का भारी तड़का . . . आदमी बना देता सड़क का। गृहस्थी का बोझा व ईएमआई का महाबोझा पीठ पर लादे फिर भी अच्छे दिन आने की उम्मीद में ढोते रहते हैं।
देश समाज के मुद्दे हम दिल पर ले लेते हैं। अमीर होते तब सब मुद्दे तुच्छ लगते। ग़रीब भी सबसे बडे़ मुद्दे– दो जून की रोटी के अलावा किसी पचडे़ में नहीं पड़ता। पर हमारी सबके फटे में टाँग अड़ाने की आदत छूटती नहीं। अमीर अपना ख़ुद माई-बाप होता है। ग़रीब की सरकार माई-बाप होती है। हमारे साथ विडम्बना है। भले ही कॉन्वेंट की फ़ीस देते कमर टूटी जाती है पर बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने में नाक नीची होती है। कोरोना ने अलग कमर चकनाचूर करके रखी है। न नौकरी रही न धंधा। कोरोना व ईएमआई दोनों का डर हर पल हमें ’किल’ कर रहा। और इस डर की कोई ’पिल’ नहीं। होती भी तो मिलने की क्या गारंटी होती?
सरकारी में इलाज हमें नहीं भाता। निजी में जाते तो दिवाला निकल जाता। पर अमीर ग़रीब दोनों इस चिंता से मुक्त। हे भगवन्! मुझे अगले जनम में मिडिल क्लास में तो बिल्कुल ही नहीं कीजो। सोने का चम्मच लेकर ही पैदा करना।
वेटिंग का युग है। यहाँ भी ज़्यादा वेटिंग हो तो मुझे तू ग़रीब के ही घर जनम दे देना। चलेगा . . . पर ये मिडिल बिल्कुल नहीं चलेगा।
हमारी ज़िंदगानी कुल इत्ती सी। नौकरी/धंधा, विवाह, दो बच्चे, किश्तों में जुगाड़ी एक कार, एक मकान कुछ और साजो-सामान। फिर राम नाम सत्य से ’द एंड’। अभी तो सम्मानजनक राम नाम सत्य भी भाग्यवान को ही नसीब हो रहा है।
1 टिप्पणियाँ
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बिलकुल सत्य लिखा आपने, यही मध्यम वर्गीय परिवार की हकीकत है
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