अध्यवसाय
सुदर्शन कुमार सोनी
बार-बार बिजली गुल हो जाती थी। अपने आप जाती अपने आप आ जाती थी। पहले-पहल तो मैं समझता कि ‘पावर कट’ का समय चल रहा है तो वही हो रहा होगा। वैसे भी गर्मियों के दिनों में छोटे ज़िलों में यह एक आम बात होती है। लेकिन जब एक इतवार को इसकी पुनरावृत्ति ज़रूरत से ज़्यादा होने लगी तो मुझे इलेक्ट्रीशियन को बुलवाना पड़ा।
वह काफ़ी देर बाद आया। आजकल ऐसे लोग काफ़ी व्यस्त रहते हैं तो देर से ही आयेंगे। उसने घर के बाहर लगे ‘मेन स्विच बोर्ड’ को देखा सब ठीक-ठाक पाया; उसे कोई फ़ाल्ट नहीं दिखा। लेकिन इसी समय चिड़ियों की तेज़ चूँ-चूँ सुनकर मेरा ध्यान बँटा तो मुझे समझते देर नहीं लगी कि यहाँ पर चिड़िया का आना-जाना होगा। ग़ौर से देखने पर पता चला कि कभी निकाले गये मेनस्विच के एक कटआऊट से खुल गये छोटे से स्थान को चिड़िया ने चुना था अंडे देने व उससे निकलने वाले बच्चों की परवरिश के लिये अस्थायी आशियाने के रूप में! इसी कारण वह बार-बार यहाँ आती-जाती थी। साथ में चिड़ा भी होता था। मैं यह सोच ही रहा था, इलेक्ट्रीशियन भी मेरे पास ही खड़ा था। चिड़िया के जोडे़ ने चूँ-चूँ करके नाक में दम कर रखा था। लगता था कि साल भर की चूँ-चूँ ये इसी समय कर लेना चाहते हैं यह। उनका ग़ुस्सा था, विवशता थी कि चिंता थी।
मुझे लगा कि हमें इस स्थान से हट जाना चाहिये। मैं इलेक्ट्रीशियन को अपने साथ थोड़ा दूर ले गया। उसको कहा कि बिना चिड़ियों को डिस्टर्ब किये मेरा डिस्टरबेन्स दूर कर दो! उसने कठिनाई बताई लेकिन मैंने कहा सम्भव है। बेमन से ही उसने बिना चिड़ियों को डिस्टर्ब किये ऐसी व्यवस्था कर दी कि उनके मूवमेंट से मेनस्विच का मूवमेंन्ट प्रभाविन न हो। हमारी इस नयी व्यवस्था से उनके इस ठौर में भी रत्तीभर की अव्यवस्था न हो! नहीं तो मुझे भी यह मौक़ा कब मिलेगा इनके सानिध्य का, क्योंकि इसी स्थान पर मैं रोज़ सुबह बैठकर अख़बार, किताबें पढ़ता या लेखन कार्य करता, रेडियो में गाने सुनता, बँगले की हरियाली व दूर बाहर के हरियाली भरे दृश्यों का मज़ा लेता।
अब बेफ़िक्र था कि मैंने चिड़ियों को उनका चाहा स्पेस सुरक्षित कर दिया है। मैं घर के अंदर व बाहर इसी स्थान से आया-जाया करता था। अतः आते-जाते प्रायः इस स्थान पर नज़र डाल लिया करता। कभी-कभी मुझे चिड़िया व चिड़ा इसके अंदर आते या बाहर जाते दिखते। वे अपने अंडों के लिये व उसके बाद होने वाले बच्चों के लिये सुरक्षित व आरामदायक ठौर को मूर्त रूप देने के अध्यवसाय में पूरी लगन व परिश्रम से लगे थे। मुझे कभी-कभी लगता कि बिजली के जहाँ पर इतने सारे तार हैं वहाँ पर इन्होंने कैसे अंडे देने के लिये स्थान चुना है? बाद में छोटे बच्चों को क्या बिजली का झटका नहीं लगेगा?
अब मैं प्रायः चिड़िया व चिडे़ की गतिविधियों को ध्यान से देखता। कभी वे चोंच में कोई तिनका लाते दिखते, तो कभी कपास, तो कभी कोई टहनी, तो कभी कुछ अन्य काग़ज़ या लकड़ी का छोटा सा टुकड़ा, कोई भी ऐसी चीज़ जो एक अच्छा घोंसला बनाने में मददगार हो सकती थी वे दोनों चोंच में दबाकर लाया करते। मुझे तो लगता कि इंसान में भी इतनी लगन नहीं होती है अपना आशियाना बनाने में क्योंकि वे अलसुबह ही अपने काम पर लग जाते। एक दिन मैं सुबह साढे़ पाँच बजे उठ कर बाहर आकर दालान पर बैठ गया तो देखा कि दोनों तल्लीनता से अपने काम पर लगे हैं। मुझे इस समय अचानक देखकर वे ठिठक से गये। पास के पेड़ में फुर्र से जाकर बैठ गये। बहुत देर तक पास नहीं आये। उन्हें मैं दाल भात का मूसलचंद लग रहा होऊँगा वैसे यह तो हम इंसान ही सोच सकते हैं इस कहावत को वे नहीं जानते होंगे। लेकिन मेरे आने से उन्हें कुछ न कुछ बाधा तो लग रही थी।
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आज काफ़ी दिनों बाद मैं इस स्थान पर आकर फिर बैठा हूँ। यहीं से घर के बैठकखाने को रास्ता जाता है। यहीं पर मेनस्विच बोर्ड लगा है। काफ़ी दिन इसलिये कि मैं परिवार के साथ घूमने के लिये बाहर चला गया था। मैं पास लगे गुड़हल के पेड़ पर बैठे चिडे़ व चिड़िया के जोडे़ को निहार रहा था। मुझे लगा कि अत्यधिक मेहनत से ये कुछ कमज़ोर से हो गये हैं। चिड़ा व चिड़िया लगातार चूँ-चूँ कर रहे थे शायद उन्हें मेरी उपस्थिति इस समय खल रही थी। मैंने ध्यान से देखा तो चिड़िया की चोंच में एक बड़ा-सा कीड़ा दबा था। मैंने सोचा कि आशियाने में इसका क्या काम फिर मेरे कान मेनस्विच के अंदर से आ रही पतली व बारीक़ चूँ चूँ की ओर चले गये। अब मुझे पूरा माजरा समझ में आया कि इतने दिनों में तो चिड़ियों के अंडों से बच्चे भी हो गये हैं। दोनों अब इनके उदर पोषण में लगे रहते हैं। इतनी बड़ी घटना और मैं बेख़बर रहा; मुझे लगा कि मैंने कुछ महत्त्वपूर्ण मिस कर दिया है।
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इस बात को बीते आज फिर सप्ताह भर हो गया है। मैं आज शनिवार के दिन सुबह-सुबह अपना लैपटॉप लेकर इस स्थान पर बैठा हूँ। यह घर का बरामदा है। ऊपर सीलिंग का पंखा धीरे-धीरे घूम रहा है पास से टंकी के पानी के ओवरफ़्लो होने की आवाज़ आ रही है। पक्षियों के अलसुबह के कलरव की आवाज़ लगातार चल रही है, मेरा ध्यान बँगले की चहारदिवारी से सट कर बने कमलकुंज की ओर भी गया। कुछ देर तो मैं इसमें खिले कमल के फूलों का सौन्दर्य देखने में खोया रहा। फिर मेरा ध्यान मेनस्विच बोर्ड की ओर गया। मुझे लगा कि आज यहाँ शान्ति क्यों है? मेरा मन एकदम से किसी आशंका से चिंतित हो उठा। एकबारगी मुझे लगा कि खेल ख़त्म हो चुका है! कल रात को आये आँधी तूफ़ान के बाद के किसी घटनाक्रम में बच्चे किसी कौअे या अन्य पक्षी द्वारा काम-तमाम कर दिये जाने से बडे़ होने के पहले ही दुनिया छोड़ चुके हैं।
थोड़ी देर बाद मैं फिर लैपटॉप में उँगलियाँ चलाने लगा। क़रीब बीस मिनट बाद मैंने देखा कि चूँ-चूँ कि आवाज़ मेनस्विच से आ रही है। चिड़िया अपनी चोंच में कोई कीड़ा दबाकर लेकर आयी थी। स्विचबोर्ड की रिक्त जगह से पहली बार मुझे एक नन्ही सी चोंच बाहर आती दिखायी दी। भूख के मारे इसका बुरा हाल होगा। आज देर हो गयी थी तो पेट की आग ने उसे चोंच बाहर निकालने के लिए मजबूर कर दिया था। ऐसी हरकत इन नन्हे बच्चों के लिये घातक हो सकती थी।
मेरी चिंता भी सही निकली। चिड़िया की चोंच में कीड़ा दबा होने के और मेनस्विच की ख़ाली जगह से बाहर निकल आयी नन्ही चोंच के बावजूद चिड़िया ने उसके उदर पोषण के लिये कोई उत्सुकता नहीं दिखायी। इस चोंच के पीछे और भी कई चोंचें होंगी; बच्चों में यह नेता का काम कर रहा होगा। चिड़िया अपनी नन्ही जान की ग़लत हरकत के कारण उसे जीवन का पाठ पढा़ना चाहती थी। वह फुर्र से उड़ गयी और आधे घंटे बाद भी नहीं लौटी थी। शायद वह नन्ही जानों को भूखा रखकर अच्छे से यह बताना चाहती थी कि दुबारा ऐसी हरकत करने की हिमाक़त नहीं करना! बहुत-सा समय बीत चुका है। मैं लैपटॉप पर फिर से उँगलियाँ चला रहा हूँ। अचानक मेरा ध्यान टूटा मैंने देखा कि चिड़िया रिक्त स्थान से बाहर निकल रही है। चोंच को रगड़ते हुए। वह अपनी नन्ही जानों को आधे घंटे से ज़्यादा की सज़ा भूखा रखने की नहीं दे पायी थी। माँ की ममता इसी तरह की रहती है वह नन्ही जानों को सुबह का नाश्ता करा कर बाहर निकल रही थी!
मेरा मन सोचने लगा कि चिड़िया व चिड़ा अपने बच्चों की परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। वे उन्हें अच्छे से बड़ा करेंगे। फिर उड़ना सिखायेंगे और एक दिन बच्चे जब अच्छे से उड़ना सीख जायेंगे तो फिर हमेशा के लिये फुर्र हो जायेंगे। पता नहीं कहाँ कितनी दूर कि फिर कभी अपने जनक व जननी से मिलेंगे भी कि नहीं। चिड़िया चिड़ा को मालूम है कि एक दिन जो कि बहुत जल्दी आने वाला है—ये कहीं दूर चले जायेंगे। यह एहसान भी नहीं मानेंगे कि माँ बाप ने इतनी मेहनत परवरिश में की है; भूखे रहकर इनके लिये भोजन की व्यवस्था की है। फिर भी माँ बाप का मन नहीं मानता। औलाद के लिये इतना करते हैं—उस औलाद के लिये—जो बाद में उसे भूल जाने वाली है। एक तरह से लात मारकर चली जाने वाली है! क्या ये चिड़िया के बच्चे भी इंसान के बच्चों से अलग नहीं हैं?
इंसान व चिड़िया दोनों के बच्चे, लगता है, एहसान फ़रामोश होते हैं!
मैंने अपनी बेटी को जब यह कहानी सुनायी तो वह बोली कितना अच्छा होता यदि चिड़िया के ये बच्चे भी कभी-कभी अपने माँ बाप से मिलने आया करते! प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की होती तो कितना अच्छा होता।
सुदर्शन कुमार सोनी
1 टिप्पणियाँ
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'चिड़िया चिड़ा को मालूम है कि एक दिन जो कि बहुत जल्दी आने वाला है—ये कहीं दूर चले जायेंगें..'। ये जीव हम इंसानों से ज़्यादा सहनशील व समझदार होते हैं कि माँ-बाप होने के नाते हमने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। तो अब बदले में अपनी संतान से कोई आशा रखना कहाँ की समझदारी है, यह तो लेन-देन के व्यवहार या व्यापार भाँति हो जायेगा न। साधुवाद।
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