संपन्नता की असमानता
सुदर्शन कुमार सोनी
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ताजपोशी तीसरे पाँच साला कार्यकाल में करने हेतु चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ज़ोर-शोर से तैयारियाँ की थीं। उन्हें चीनी तानाशाह माओ की तरह युगपुरुष साबित करने व उससे आगे मंदी के समय में भी आर्थिक विकास सफलता पूर्वक करने का प्रस्ताव पारित किया गया। ये बताने की कोशिश की गयी कि उन्होंने चीन को विश्व की नम्बर एक आर्थिक ताक़त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कम्युनिस्ट पार्टी ने एक नया जुमला गढ़ लिया है कि अब वे ‘संपन्नता की असमानता’ दूर करने के लिये काम करेंगे। वाह जनाब क्या शानदार तरीक़े से आप आम जनता की आँखों में धूल झोंकेंगे! यानी जनता यह सोच ही नहीं पाये कि वह ग़रीब या पिछड़ी है। आप मानक ही तय कर रहे हो कि कौन ज़्यादा संपन्न है और कौन कम। सबके सब इसी में उलझ कर रह जायेंगे। वहाँ फिर मीडिया भी सरकार द्वारा नियंत्रित है। फ़ेसबुक का कोई फ़ेस वहाँ नहीं है। व्हाटसऐप के बारे में तो वे कह सकते हैं कि ‘व्हाटस् दैट’। ट्वीटर क्या कोई नया वेरायटी का मीटर है?
ग्लोबल टाइम्स वहाँ का सरकार द्वारा नियंत्रित प्रमुख अख़बार है। वह नाम भर का ग्लोबल है, लेकिन किसी लोकल अख़बार से भी गया-बीता है। वहाँ स्वतंत्र लेखन का, सरकार की आलोचना का का कोई स्कोप ही नहीं है।
गलवान घाटी में कितने चीनी सैनिकों को भारतीय बहादुरों ने यमलोक की सैर करवाई। इसका ब्योरा आज तक नहीं देकर यह कितना बुज़दिल है इसका वेलिडेशन कर दिया है। गलवान झड़प के समय उल्टे यह भारत को पाठ पढ़ा रहा था कि भारत को ज़्यादा इस मामले में बयानबाज़ी करने की ज़रूरत नहीं है। उसे ध्यान रखना चाहिये कि उसका देश कितना नाज़ुक है।
कहा जा रहा है कि अब शी के ख़िलाफ़ किसी का चाहे वह ‘शी’ हो या ‘ही’ लिखना भी अपराध हो जायेगा। माओ की फिलॉसफी कि ’पावर कमस् आऊट ऑफ़ अ बैरल ऑफ़ गन’ को भी लगता है कि शी ने अंदर ही अंदर आत्मसात किया हुआ है अपने दस लाख विरोधियों को भ्रष्टाचार के नाम पर किनारे कर दिया। कभी वह लद्दाख, तो कभी अरुणाचल तो कभी सिक्किम तो कभी किसी नये मोर्चे से घुसने की कोशिश करता ही रहता है। अपने सारे पडो़सियों की सीमा में घुसपैठ करना या हवाई सीमा में घुसना एक प्रिय शग़ल है। जब अतिक्रमण व घुसपैठ के सम्बन्ध में द्विपक्षीय वार्ता चल रही हो तो उसी समय वह सीमा पर अतिक्रमण व घुसपैठ की भी कोशिश करता है। मुँह में राम बग़ल में छुरी की नीति पर चलता है वह।
अब ऐसा देश एक नया फ़ितूर अपने यहाँ ’संपन्नता की असमानता’ के अभियान के तौर पर शुरू कर रहा है। हाँ, इसने इसकी शुरूआत -जाने अनजाने जा मैक, जो वहाँ का सबसे बड़ा उद्योगपति है, उसके माध्यम से लगता है पहले ही शुरू कर दी संपन्नता की असमानता मिटाने की। उसने, कई महीने उन्हें ग़ायब रहने व फिर सार्वजनिक रूप से चीनी सरकार की तारीफ़ करने के लिये मजबूर किया। संपन्नता की असमानता को ख़त्म करने के बहाने वह अपने विरोधियों का भी सफ़ाया कर सकेंगे। अभी तक यही नहीं पता चला कि वहाँ कोरोना ने कितने लोगों को मार डाला।
सबसे सस्ता श्रम दुनिया में चीन में है इसलिये दुनिया भर की प्रमुख कम्पनियाँ वहाँ अपना उत्पादन करवातीं हैं। तो ये है संपन्नता की असमानता।
अन्त्योदय कहाँ से होगा? जब आपने सीधे सबसे पिछले पायदान पर रह गये लोगों को छोड़ ही दिया और ये मान लिया कि हमारे यहाँ कोई ग़रीब या पिछड़ा बचा ही नहीं—सभी संपन्न हैं। ऐसा न हो कि कल चीन अपना नाम ही ’परासपरस पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाईना’ न कर डाले। हिटलर का प्रचार मंत्री ‘गोयबोल’ कहता ही था कि एक झूठ को सौ बार बोला जाये तो वह सच बन जायेगा। बस अब चीन कहेगा कि हम अमीरी की खाई को पाटने में लगे हैं। जो ज़्यादा अमीर हैं, उनसे लेकर, कम अमीरों की कमी दूर करने उन्हें दे देंगे।
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