सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 1 : जन्म
सुदर्शन कुमार सोनीभारत को 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिलने के साथ दो सौ वर्षों की अँग्रेज़ी दासता के राज का ख़ात्मा हुआ। आज़ादी की लड़ाई में अनेक दिग्गज नेताओं ने अपना योगदान दिया। महात्मा गाँधी जी का योगदान उनकी अहिंसा, सत्याग्रह के विचारों के कारण ऐतिहासिक है। आज़ादी मिलने के अगले वर्ष ही एक उन्मादी की गोली से उनके प्राणों का उत्सर्ग हो गया। वर्ष 2019 इस अर्थ में ऐतिहासिक है कि यह राष्ट्रपिता का 150 वां जन्म दिवस है। सारा राष्ट्र, व पूरा विश्व उनको याद कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र ने भी उनको याद किया। उनकी स्मृति में वर्ष भर भारत में चलने वाले कार्यक्रम आगामी 2 अक्टूबर 2020 को समाप्त होंगे।
अल्बर्ट आईंस्टाईन ने कहा था कि आने वाली पीढ़ियाँ आश्चर्य करेंगी कि विश्व में हाड़-मांस का एक ऐसा व्यक्ति भी विचरण करता था। बापू की आत्मकथा पुस्तक ’सत्य पर मेरे प्रयोग’ के नाम से जानी जाती है। उसके विविध अंश इस लेख माला के माध्यम से साहित्य कुंज डॉट नेट के अंकों में प्रस्तुत किये जा रहे हैं। श्री सुमन घई जी व साहित्य कुंज डॉट नेट की टीम इसके लिये बधाई की पात्र है कि उन्होंने यह नेक कार्य करने का मुझे अवसर दिया।
प्रस्तुत है उनकी आत्म कथा का पहला संपादित अंश। जिसका पुस्तक में शीर्षक है -
जन्म
जान पड़ता है कि गाँधी-कुटुंब पहले तो पंसारी का धंधा करनेवाला था। लेकिन मेरे दादा से लेकर पिछली तीन पीढ़ियों से वह दीवानगीरी करता रहा है। ऐसा मालूम होता है कि उत्तमचंद गाँधी या ओता गाँधी को राजनीतिक खटपट के कारण पोरबंदर छोड़ना पड़ा जिसके बाद उन्होंने जूनागढ़ राज्य में आश्रय लिया था। वहाँ के नवाब को उन्होंने बाएँ हाथ से सलाम किया। किसी ने इस प्रकट अविनय का कारण पूछा, तो जवाब मिला: ‘दाहिना हाथ तो पोरबंदर को अर्पित हो चुका है।‘
ओता गाँधी के दो विवाह हुए थे। पहले विवाह से उनके चार लड़के थे और दूसरे से दो। अपने बचपन को याद करता हूँ तो मुझे ख़याल नहीं आता कि ये भाई सौतेले थे। इनमें पाँचवें करमचंद अथवा कबा गाँधी और आख़िरी तुलसीदास गाँधी थे। दोनों भाइयों ने बारी-बारी से पोरबंदर में दीवान का काम किया। कबा गाँधी मेरे पिताजी थे। पोरबंदर की दीवानगीरी छोड़ने के बाद वे राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य थे। कबा गाँधी के भी एक के बाद एक चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो कन्याएँ थीं। अंतिम पत्नी पुतलीबाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे। उनमें से अंतिम मैं हूँ।
पिता कुटुंब-प्रेमी, सत्यप्रिय, शूर, उदार किंतु क्रोधी थे। थोड़े विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका आख़िरी ब्याह चालीसवें साल के बाद हुआ था। हमारे परिवार में और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी से दूर भागते हैं और इसलिए शुद्ध न्याय करते हैं। राज्य के प्रति वे वफ़ादार थे।पिताजी को धन बटोरने का लोभ न होने से हम भाइयों के लिए बहुत थोड़ी संपत्ति छोड़ गए थे।
पिताजी की शिक्षा केवल अनुभव की थी। लेकिन उनका व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊँचे दरजे का था कि बारीक़ से बारीक़ सवालों को सुलझाने में अथवा हज़ार आदमियों से काम लेने में भी उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी। मेरे मन पर यह छाप रही है कि माता साध्वी स्त्री थीं। वे बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करतीं। हमेशा मंदिर जातीं। मुझे याद है कि जब उन्होंने चांद्रायण का व्रत लिया था। उन दिनों में वे बीमार पड़ीं, पर व्रत नहीं छोड़ा। एक चातुर्मास में उन्होंने यह व्रत लिया था कि सूर्यनारायण के दर्शन करके ही भोजन करेंगी। उस चौमासे में हम बालक बादलों के सामने देखा करते कि कब सूरज के दर्शन हों और कब माँ भोजन करें। जबकि चौमासे में अक्सर सूर्य के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। मुझे ऐसे दिन याद हैं कि जब हम सूरज को देखते और कहते, ‘माँ-माँ, सूरज दीखा‘ और माँ उतावली होकर आतीं इतने में सूरज छिप जाता और माँ यह कहती हुई लौट जातीं कि ‘कोई बात नहीं, आज भाग्य में भोजन नहीं है‘ और अपने काम में डूब जातीं।
इन माता-पिता के घर में संवत् 1925 की भादों बदी बारस के दिन, अर्थात 2 अक्टूबर, 1869 को पोरबंदर अथवा सुदामापुरी में मेरा जन्म हुआ। (पोरबंदर में कृष्ण के बचपन के सखा सुदामा का देश का एक मात्र मंदिर स्थित है।)
बचपन मेरा पोरबंदर में ही बीता। याद पड़ता है कि मुझे किसी पाठशाला में भरती किया गया था। मुश्किल से थोड़े पहाड़े मैं सीखा था। मुझे सिर्फ़ इतना याद है कि मैं उस समय दूसरे लड़कों के साथ अपने शिक्षकों को गाली देना सीखा था। इससे मैं अंदाज़ लगाता हूँ कि मेरी स्मरण शक्ति उन पंक्तियों के कच्चे पापड़-जैसी होगी, जिन्हें हम बालक गाया करते थे। वे पंक्तियाँ मुझे यहाँ देनी ही चाहिएँ:
एकडे एक, पापड़ शेक
पापड़ कच्चो, - मारो -
पहली खाली जगह में मास्टर का नाम होता था। उसे मैं अमर नहीं करना चाहता। दूसरी खाली जगह में छोड़ी हुई गाली रहती थी, जिसे भरने की आवश्यकता नहीं।
- क्रमशः
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