त्रिलोक सिंह ठकुरेला के दोहे - 4
त्रिलोक सिंह ठकुरेलामन में सौ डर पालकर, किस को मिलती जीत।
शिखरों तक वे ही गये, जो न हुए भयभीत॥
जब से अल्हड़ देह को, लागी प्रीति बयार।
पल पल झंकृत हो रहे मन वीणा के तार॥
बतरस हुआ अतीत अब, हास हुआ इतिहास।
यह नवयुग की सभ्यता, तकनीकों की दास॥
ग़ायब है वह बतकही, वह आँगन की धूप।
नई सदी की ज़िंदगी, बदल चुकी है रूप॥
जीवन उलझा गणित है, इसे सरल मत जान।
कभी दुखों की रात है, कभी सुखद दिनमान॥
गंध, आब, मकरंद तक, भ्रमर करें अभिसार।
धन, पद, यौवन के ढले, कौन करे मनुहार॥
समय बदलता देखकर, कोयल है चुपचाप।
पतझड़ में बेकार है, कुहू कुहू का जाप॥
दर्पण जैसा ही रहा, इस जग का व्यवहार।
जो बाँटे जिस भाव को, पाये बारम्बार ॥
आमंत्रण देता रहा, सदियों से आकाश ।
वही बुलंदी तक गया, काट सका जो पाश॥
इस दुनिया में हर तरफ़, बरस रहा आनन्द।
वह कैसे भीगे, सखे, जो ताले में बन्द॥
नयी पीढ़ियों के लिए, जो बन जाते खाद।
युगों युगों तक सभ्यता, रखतीं उनको याद॥