ओले

त्रिलोक सिंह ठकुरेला (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

आसमान से बरसे ओले। 
कुछ छोटे, कुछ बड़े, मझोले। 
रह रह बिखरे डगर डगर में। 
कुछ छत पर, कुछ आँगन-घर में। 
ठण्डे ठण्डे बर्फ़ के गोले। 
आसमान से बरसे ओले॥
 
ख़ुश हो झूमे मीरा, मोहन। 
हुए अचम्भित मनसुख, सोहन। 
गिरते उछल उछलकर रह रह। 
फिर पानी बनकर जाते बह। 
खाने लगा उठाकर भोले। 
आसमान से बरसे ओले॥
 
माँ ने कहा-अरे, मत खाओ। 
ओलों में बाहर मत जाओ। 
यह बीमार बना सकते हैं। 
तुम्हें चोट पहुँचा सकते है। 
'समझ गये हम' बच्चे बोले। 
आसमान से बरसे ओले॥

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