ठहरी कहाँ
पुष्पा मेहरा
चाहती हूँ पहचान लूँ हर गति समय की
समय के द्वारे बैठ हर अवरोध का मैं मर्म भेदूँ,
मानती हूँ कठिन धूप में जलते रहे तलवे हमारे
पर छाँव ने भी आकर कब तलक
मेरी दुखती रगों पर मरहम लगाया!
उम्र का पाहुन बिछड़ने को खड़ा तो क्या!
बाती दिये की तिल–तिल घट रही तो क्या!
चाहती हूँ ग्रीष्म-आतप, शीत ठिठुरन से
घबरा कर ना बैठूँ क्योंकि
ये समय के चक्र पर ठहरे कहाँ और कब!
इसीलिए इनकी अस्थिरता को समझ
समय की निर्बंध गति के साथ चल कर
आत्मशक्ति सारी हृदय में समा कर
विश्वास का सम्बल संभालूँ,
बुझते दियों में प्राण भर दूँ,
रौशनी से हर दर झिलमिला दूँ।
भेद और मतभेद, आयु-लिंग का विचार त्याग
नर औ नारी के बीच की दूरियाँ सब पाट दूँ,
गति को कभी न विराम दूँ।
बदली घनेरी छा रही तो क्या!
बिजली समय की डरपा रही तो क्या!
संघर्षों की बरसाती नदी उफ़नती आ रही तो क्या!
चाहती हूँ डूबती-उतराती नौका पर चढ़ी मैं
धाराओं का रुख़ ही पलट दूँ
तिमिर घन के मध्य बिजली बन
मैं चमकूँ, रूढ़ियाँ सारी जला दूँ।
सूर्य की ऊर्जा-शिराओं में समा लूँ
चाँदनी का मृदु हास ले लूँ
डाल-डाल, लतर–लतर फूल-शृंगार बन
नन्दनवन से उसकी सुरभि का हर राज जानूँ
बासन्ती सुषमा को कभी खोने ना दूँ,
कान्हा की मोहनी मूरत हृदय में बसा कर
उन की बंसी के स्वरों में ख़ुद को बसा कर
कर्म को अधिकार मानूँ, प्रेम के ही गीत गाऊँ
निर्जीव में भी प्राण भर दूँ।
पाषाण की दृढ़ता हृदय में भर
मैं कभी ना हार मानूँ,
मैं अहिल्या आज की, जीवन की हर आस धारे
उद्धारकर्ता राम के आने से पहले
स्वयं अपना उद्धार कर
विनाश के कँटीले तार सारे काट आऊँ,
सृजन की इस दौड़ में संहार को पछाड़ आऊँ,
समय के हर पलों के साथ चल कर
हर पलों में नव रंग की सुषमा बिखेरूँ।
दली-कुचली, दीन-दुखियों में न
अपनी गिनती कराऊँ,
समय की हर चाल पहचान कर
उसकी हर कुतर्की चाल का पाँसा पलट दूँ,
वीरांगनाओं के बलिदान की क़ीमत चुका दूँ
शीर्ष पर मैं अपना नाम आकूँ।