नव वर्ष के संकल्प–रंग
पुष्पा मेहरापूरब की लालिमा
चारों दिशाओं के कोरों से झाँक रही है
नूतन संदेश, नूतन परिकल्पना का द्वार
सजने लगा, दूर कहीं फिर से ध्वनि
कानों में गूँज उठी है जो मात्र शब्द नहीं
उद्घोष है—
‘उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहाँ जो सोवत हो।’
लो आज फिर बंद झरोखों को खोलने आई है
यह नम हवा,
उठाने आई है अनगिनत पर्दे—
वायदों, सपनों, योजनाओं और–
संकल्पों की मूर्तियों के ऊपर से,
उन्हीं मूर्तियाँ से
जिन्हें हमने स्वयं ही
भेद-भाव, ऊँच–नीच,
जड़ता, अन्धविश्वास, घृणा के
रंग दे दिए हैं।
उतारने आई है वे मुखौटे,
सारे, वे ऊपरी रंग
जिनके नीचे छिपे हैं
नफ़रत, हिंसा
अलगाववाद के सारे तत्त्व,
चाहती है—
इन्सान के चोले में हैवान न जन्में,
धर्म के नाम पर अधर्म न फैले।
धर्म, जाति-समाज के आवरण में लिपटे
हम सब बस एक की सन्तान हैं,
इस तथ्य को स्वीकार लें
गीता, क़ुरान–बाइबिल का
मूल निचोड़ लें
फिर हम सब एकजुट हो
एक ऐसा गढ़ गढ़ें
जहाँ समवेत स्वर में
प्रार्थना के स्वर उच्चरें
और मिले केवल प्रेम रस–भरा फल
मात्र विश्वास का।
सामने हो वो निरभ्र आकाश
जिसपर दिख रहा हो वह
ध्रुव तारा
जो अटल विश्वास का वाहक है—
जिसे देख मेरी निगाहें
झुक जाती हैं सदा श्रद्धा से।
बहती नम हवा एक पहचान बन
खोलने आई है अनगिनत रास्ते
सुविचारों, एकता-अखंडता के
तोड़ने व्यभिचार, भ्रष्टाचार,
आतंकवाद के सारे ख़ंजर
हटाना चाहती है
झूठ, फ़रेब छल के मुखौटे।
इस धरती माँ की गोद में
देखना चाहती है
ऐसे लाल जिनकी शिराओं में
प्रेम और एकता का लहू बह रहा हो
जिनके मुख मंडल पर
त्याग अहिंसा, मानवीय मूल्यों का आभा-मंडल हो,
जिनमें समाया हो बस एक आकाश
जिसको नामों से तो सबने बाँट लिया
पर वह तो
संकीर्णताओं से परे
नीला विस्तार–अखंड है–अपार है,
जो—
हममें–तुममें सबमें है और सबमें समान है
उस एक को स्वीकारें अभेद को मानें
यही मोहम्मद, जीसस, वाहे गुरु और
राम की आवाज़ है,
यही विश्वशांति की पुकार है
यही विविध रंगों का सुमेल है
यही तो कपट की होलिका का दहन है—
नव वर्ष का मंगलमय संदेश है।
1 टिप्पणियाँ
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स. घई जी अपनी विशिष्ट ई पत्रिका में मेरी रचना को स्थान देने के लिये आपका हार्दिक आभार | पुष्पा मेहरा