आवाज़ का पंछी
पुष्पा मेहराआवाज़ का पंछी
बहुत दूर तक उड़ता है
फैलाता है पंख आकाश में
भरता है उड़ान सुदूर तक
जा बैठता है कभी
नियमों–दायरों के जाल में
कभी ऊँचे भवनों के
परकोटों से उतर
खेतों–खलिहानों में।
कारखानों में
बाल श्रम विरोधी मचानों पर बैठ
चुग लाता है बीज दर्द का
और फिर
किसानों, खेतिहर–बँधुआ मज़दूरों
की झोली में मानवता के
चंद सिक्के डाल देता है।
आवाज़ का पंछी
नित नई ऊर्जा भर लेता है
इधर–उधर नई–नई शाखाओं पर
इंसानियत के
घोंसले बनाता है।
आवाज़ का पंछी
कर्मठता के जल में फुदकता है
अपने पंखों से सुयोजनाओं के
जलकण झाड़ता है।
आवाज़ का पंछी
बड़े–बड़े मंचों, सभागारों में
बीतते अँधेरे और—
और प्रकाश की सीढ़ी लिये
उतरते सूर्य की
राह देखता है,
स्याह और सफ़ेद का अंतर
दिखाता है।
आवाज़ का पंछी
सोतों को जगाता है,
भोर की पहली किरण बन
मन:आकाश गुँजाता है।
बादल बन
सूने आकाश में जा बैठता है
शुष्क रेगिस्तान में
बरसता है
नई आशाएँ लिये
नव कोंपलों भरी
नव योजनाओं की शाखों पर
एक बार फिर से
हाँ एक बार फिर से
बसन्त-आगमन की
प्रतीक्षा कराता है
साफ़-शफ़्फ़ाफ़ समाज का
स्वप्न दिखाता है।
बस स्वप्न के साकार होने की
प्रतीक्षा ही हमारी
सर्व सुलभ थाती है
जिसे हम सभी को
सम्भाल कर रखना है।