बसंत अभिराम
पुष्पा मेहराभ्रमर- विलास
मधु मधुमास आज
छवि अभिराम
दिशाओं में लुटा रहा
नव दल कुञ्ज-केशों में
प्रसून टाँक-टाँक
देखो तो वह
तितलियों को रिझा रहा।
आम्र विटप राग रंजित
कोकिल स्वर तालबद्ध
बौर चँवर डुला-डुला
धरा का मन मोह रहा,
अंग–अंग सरूर भरे
सारे ही पलाशवन
सुरभि चाँदनी-तले
सुध बुध खो रहे
कलियाँ नव रंग रँगीं
पल्लव परिधान साजे
उत्कर्ष मेला देख रहीं।
गुपचुप मधुपगण
जहाँ-तहाँ उड़-उड़
दौड़-दौड़ होड़ कर
फूलों के कर्णपुटों में
नव प्रतिमान आँक रहे
खेतों की दुलहन
मकरंद रस भीगी सी
सजी–धजी छ्वीली सी
पियरी में मुख ढाँप
आप ही विहँस रही
चंचल हवाएँ मदमस्त कामासक्त
वेग से भाग-भाग
नव छंद रच रहीं।
शीत अलाव छोड़
धूप को प्रणाम कर
अब विदा माँग रही
और खिलखिलाता ऋतुराज
प्रेम रस से बिंधा
इस जन विपुल वन में
जन–जन के मन में
प्रेम का तराना हवाओं संग गा रहा
तो आओ! सब जन मिल
शीतल बयार की छींटे पा
मनों की अग्नि बुझा
दीवार नफ़रतों की ढहा
‘वसुधैव कुटुम्बकम’के आदर्श को
मात्र आदर्श ही न मान
कथनी और करनी का
भेद मिटा
इस जीवन में
इसी धरती पर क्यों न
हम सब मिलकर एक बार
बस एक बार स्वर्ग को उतार दें,
सोचते ही न रहें,कहते ही न रहें
सोच को अंजाम दें।