स्वप्न जाल
पुष्पा मेहराजाने क्यों!
जब आशा ने चाहा
आकाश चूमना
उसके डैने कतरे गए
उसकी आँखों में जब
सपने जागने लगे
आँखें पथरा गईं
कल्पना के महल,
सारे के सारे
जगमगाते आकाशदीप
धुँधलाने लगे
पलकें खोल
धुँधलका झाड़
जब उसने आँखें खोल
देखना चाहा तो देखा
मिट्टी पुता चूल्हा
जल रहा था,
सिंक रही थी रोटी
माँ के हाथ की प्यार बिंधी,
स्नेहासिक्त दाल
पक रही थी अँगीठी पर।
कल से कारखाने जाना है
नन्ही सी आशा को
अपने माता-पिता की
सारी आशाएँ,
ज़रूरतों की अशर्फियाँ
उनकी झोली में डालनी हैं।
नींद ने थपकी दी ही थी कि
पक्षियों की चहचहाहट से
आकाश गूँजने लगा
धूप सुबह के आँगन में
हर्ष-भरी फैलने लगी,
मन को क़ाबू कर
आँखें मलती उठी,
एक अँगड़ाई ली
पक्षियों की चहचहाहट सुन
उसके मन में
ईर्ष्या जाग उठी
आख़िर कहाँ से आती है
स्फूर्ति इन पखेरू में
दिन भर उड़ते शक्ति भरे,
थकते न कदाचित्
समस्याओं से जूझते
पर हारते नहीं,
दुःख-सुख भोगते
इसी धरती पर
क्या सोचते, क्या नहीं
इससे नन्ही को क्या वास्ता,
उसे तो कारखाने में
सिले वस्त्रों में
लाल–पीले बटन टाँकने हैं
उँगलियों का क्या
उन्हें तो कर्म की देहरी पर
स्वप्नजाल बुनना है
बहना की आँखों की
सुरमई शाम का
ज्योतिर्मय दीप बनना है
छलिया सपनों का
उसके मन पर
डेरा डालना ही था कि
पत्तों पर जड़ने लगे बटन
ज्यों सजने लगी हो
सुंदर सी अल्पना
यथार्थ की देहरी पर।
साँझ धीरे-धीरे
लटक आई थी
शहर की अलगनी पर
दिया-बाती करती
१० वर्ष की आशा
डूबने लगी रंगीनियों में
अबकी बार—
बहना की शादी, गहने-कपड़े
बारात, ढोल-बाजे, नगाड़े
ढेर सारे पैसे
टिकट छःलोगों का
सफ़र गाँव का
दो दिन का . . .
सोचती, बार-बार जलाती
तीली, लगाती बत्ती में
फिर तीली, फिर बत्ती
फिर तीली, फिर बत्ती
न जाने क्यों आज
तीली तो बार-बार जलती पर
बत्ती नहीं।
सपनों की आँधी
तू बार-बार क्यों आती है!
फिर सुबह होगी
सुरसा सा कारखाने का
फाटक खुलेगा
स्वप्न पंख कतरने का
सिलसिला शुरू हो जाएगा
योजनाओं के घेरे में आबद्ध
वह सिलसिला जो
डगमगाता सोचता, पर
रुकने का नाम न लेता।