प्रसून
पुष्पा मेहरा१.
सुन कर कुलकुल सरित की, पुष्प गंध मद भोर।
हारिल चितवें बौर को, वन–वन नाचें मोर॥
२.
फूलों से उपवन सजा, भ्रमर गा रहे गीत।
देख विरहिणी प्रियतमा, चाह रही मन मीत॥
३.
धरती पर ऋतुराज आ, बैठा डेरा डाल।
डाल –डाल लगती सुमन, उमड़ पड़े हैं ताल॥
४.
बिगुल काम का बज रहा, धरा सृजन में लीन।
काँटों बीच सुमन मिले, अहं कीच से हीन॥
५.
माघ मास ऋतुराज की, फैली देख बिसात।
फूल – फूल डाली हुईं, नाचें तरुवर पात॥
६.
महक उठे तरु बाग सब, खुशियाँ हैं बेहाल।
हर उदास उपवन हँसा, उड़े शीत के पाल॥
७.
लिये फूल रूपा खड़ी, बेचे बीच बज़ार।
कुसुम कली वैभव निरख, फिरते भ्रमर हज़ार॥