अनुभूति – क्षण भर की
पुष्पा मेहरा१.
अँधेरी रातों में – हर पल
आशाओं की सलाइयों पर
उलटे-सीधे फंदे– डाल–
गिन कर रखती जाती हूँ
समय उनमें –
मनचाहा परिवर्तन कर देता है।
२.
पत्ते पर ठहरी ओस की बूँद
और सूखे पत्ते का भविष्य
सूर्य की किरणों, उत्पाती पवन और
समय के वेग की गिरफ़्त में था,
हमें तो किंकर्तव्यविहीन हो
खड़े रहना था।
३.
गतिशील मन की आँधी थी
रोके न रुकी
जो भी रुकावट बन
बीच में आया,उसे उड़ा ले गई।
४.
सोते–सोते
नारी जागी और बोली
देखो तो! सुदूर अन्तरिक्ष . . .और . . .
सुनहरी किरणें . . .कहते ही, बिना पीछे
मुड़े वह अन्तहीन यात्रा पर निकल पड़ी है . . .
५.
चारों ओर टूटन ही टूटन
विष ही विष,
सुंदर से मुखौटे में छिपा
भयानक रूप और मन,
एक दूसरे के पीछे भागती
भीड़- सिकुड़ी-सिमटी, विस्मृत
संस्कृतियों के महाद्वीप में
गिरह से गिरे को ढूँढती
एक अन्तहीन तलाश . . .
६.
नारी मैं– धूप में तपी–
हर रंग में रली -मिली,
कटी पतंग सी कोने में
पड़ी भी डोर से जुड़ी रही,
पर किसी की परछाईं न बन सकी।
७.
बादल आए तो हवाएँ
भी आ लगीं
हवाओं को देख बादल
तिनके से उड़ गए
तालाब, कुएँ और बावड़ी
सभी बेचारे प्यासे ही रह गए।
शक्ति परीक्षण होना था
सो हो कर ही रहा।
८.
तुम्हारे दिए ज़ख़्मों पर
मरहम लगाते-लगाते सारी रात बीती
दिन चढ़ते ही तुमने पता नहीं
ऐसा क्या किया कि
सारे ज़ख़्म फिर से हरे हो गए।
९.
भोर होते ही पर्वतों के ऊपर से जाते हुए
सूरज ने उनके शीश पर स्वर्ण मुकुट सजाया
रात हुई चाँद ने उन्हें चाँदी के मुकुट से
मान दिया,दोनों के उत्तम–मद्धम भाव को
अंगीकार कर विदेह राज पर्वत-
स्वत: भासित होते रहे।
१०.
भरी दोपहरी, दहकता सूरज
साँझ होते ही अपना लाल दुशाला
स्मृति-चिन्ह स्वरूप
समुद्र को सौंप, कल आने का वायदा कर,
चला गया, शायद भोर के प्रति
प्रगाढ़ प्रेम दर्शाने की उसकी विधा (अनोखी) थी,
शापित नहीं था,ज्वालाओं से घिरा था, वो लौटा–
उसने भोर को गले लगा कर
अपना वादा निभा लिया।
११.
बेटी आई सुन –
सन्न रह गए सब
मैं भी कुछ न दे सका तुम्हें
सिर्फ़ टपकते घरौंदे के,
पर तुमने जब
आकाश छूने की ज़िद ठानी
और ऊँचाइयाँ छू के मानीं तो
तुम्हीं मेरा आकाश हो गईं।
१२.
मैं एक नदी
दुर्गम, बीहड़ पथरीले,
उँचे-नीचे रास्तों से
अपना रास्ता बनाती हूँ,
सदा गतिशील रहती हूँ,
इस धरती पर
नारी मेरा ही पर्याय है।
१३.
समन्दर है
लहरें हैं, स्पंदन है
श्वासों का गुंफन है और
निरंतर कुछ
पा लेने की कटिबद्धता भी!!
१४.
अँधेरे से डरना कैसा!
अँधेरे के गर्भ में ही तो
जीवन पनपता है
ख़ुशियाँ खिलखिलाती हैं।