सपने की तलाश
रेखा भाटियाखो गई मंज़िलें
एक सपना था मेरा कभी
कहीं खो गया है वह
अब आता नहीं सुकून दिल को
बह गयी आस आँसुओं में
वह सपना कभी चमका करता था
सूरज बन पलकों के आकाश में
ख़ामोश-सा साथ चल पड़ता था
हर पल हरदम संग मेरे
भीतर ही भीतर मुझसे बतियाता
शक्ति-संचार करता भीतर
जब वह हँस पड़ता था
काली रातों के घने सायों में
दीप बन जला करता था
उसके साथ होने से निडर मैं
जीवन के खेल से आँख मिचौली खेला करती
कठिन राहों और मुश्किलों पर ख़ूब हँसा करती
बादलों पर चलती हवा में तैरा करती थी
जागे-जागे लम्हों में खोई-खोई रहती थी
फिर अचानक एक बवंडर उठा
मेरे औरत होने पर बवाल मचा
सवालों के कटघरे में खड़ा कर मुझे
दोषी क़रार दिया गया
जज भी वही, वकील भी वही
फ़ैसला भी उनका मान्य हुआ
मेरी दलीलें खारिज़ कर दी गईं
तुम एक औरत हो, तुम एक माँ हो
तुम्हें झुकना होगा, त्याग करना होगा
सपने देखने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं
अन्याय के आवेग में एक हाहाकार मचा
उस आवेग ने मेरा सपना छीना
छटपटाई मैं बहुत, ज़ख़्म रह गए सीने में
यादों के खँडहर में उन लम्हों की महक
आज भी ज़िन्दा है हृदय के वीराने में
वो एक पल था जब जी भरकर
जीवन जीया मैंने अपने सपने संग
सूनी आँखों को आज भी
एक ऐसे उम्मीद भरे सपने की तलाश है!
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