निज सन्नाटा
रेखा भाटियाकहीं न कहीं आज का महाभारत
वह तेरे भीतर रच-बस रहा
कहीं कुछ तार टूट रहे हैं
एक कुरुक्षेत्र है भीतर साथ सन्नाटा
पाँच पाण्डव और सौ कौरव
आज अर्जुन खड़ा मूढ़ बीच रणक्षेत्र
मन का पांडव दम तोड़ रहा
कौरव जाग रहा भीतर-बाहर
कृष्ण के प्रवचन केवल ग्रंथों में
कालांतर के दंश से बच न सका कोई
न्याय का पहिया झुक रहा नरक-द्वार
बँट जाते हैं जब अपने ही इस पार-उस पार
भेद भीतर का बँटवारे के तीर से
विभाजित हो जाता इंसान दो पार
मचता शोर अंध बुद्धि पुकारे दोनों ओर
मैं चाहता तुम चलो इस पार भी उस पार भी
अधूरा सत्य तुम्हारा . . .
जिसे छल से बनाना चाहते पूर्ण
दो क्षितिजों में बँट रहा भीतर
निज सन्नाटा दोनों ओर।