आज़ादी का दिन 

01-09-2024

आज़ादी का दिन 

रेखा भाटिया (अंक: 260, सितम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

मन मगन है, मेरी यह लगन है 
आत्मा का रंग ओढ़ा है भगवा 
कब दूर तुमसे जाना चाहा मैंने 
प्रारब्ध था तारों नक्षत्रों की गणना में 
हर प्रातः अब भी आँख खुलते ही 
जानना चाहती हूँ हालचाल तेरा 
 
आज खिली है धूप मेरे आँगन में भी 
दरख़्तों की हरियाली सीना ताने खड़ी 
प्रातः के केसरी रंगों से भीगा है आसमान 
सफ़ेद मेघ शांतिदूत लहराते नील नभ में 
धरती से आकाश तक मानों तिरंगा लहराता 
 
आज पंद्रह अगस्त का स्वाधीनता दिवस है 
अलौकिक उत्साह छाया होगा तेरी गोद में 
एक बूँद ख़ुशी की टपक रही है नयनों से 
कभी एक बूँद बनने की अभिलाषा थी मन में 
सुना था मैंने जब से मैं अस्तित्व में आई 
बूँद-बूँद से भरता है महासागर औ'
जाना पड़ा इस बूँद को किसी और सागर में 
अन्य सागर में समाई यह बूँद दूर से भी 
कर रही है सेवा जो सीखा है तुमसे 
आत्मा ने पहना है भगवा संस्कारों का 
इस देह से कर जतन करती कर्म 
मन को हरित रखा है भारतीयता से 
संतुष्टि का श्वेत एहसास भरता है 
 
क्या तुम्हें भी महसूस होता है प्रेम मेरा 
कभी बयार रुख़ बदल बहती है पश्चिम से 
नम होती होगी तेरी आँखें भी यादकर 
मुझ जैसे अलबेले-मस्ताने दीवानों को 
 
जन्म लिया है कलयुग में 
एक ही धर्म निभाना है 
कर्म तपस्या है इस युग में 
तेरे संस्कारों से हर कर्म करना है 
मैं न देखूँ कोई स्वप्न सतयुग, द्वापर युग का 
इतिहास में दर्ज़ बातें उस बीते युग की 
अच्छा और बुरा दोनों हैं इस जगत में 
निःसंदेह मेरा चयन तेरी आशाओं-सा होगा 
 
मैं सो जाऊँ पश्चिम में आँखें मूँदे भी करूँ प्रार्थना 
गर्व का सूर्य चमकता रहेगा पूर्व में तेरे आकाश में सदा 
प्राणवायु रहित निष्प्राण शरीर कब देहरी पर ठहरा है 
आत्मा हो गई है भगवा फिर जन्म लेने को वादा है! 

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