चार दृश्य
रेखा भाटियादृश्य कुछ ऐसा है
शीत ऋतु की सिहरन में
आज धूप जला रही है उसे
एक दरी बिछी है कोने में
दोनों हाथ जोड़े वह ग़रीब पस्त दरी पर।
आंतड़ियाँ सिकुड़, आँखें धँस गईं
असमंजस में, लगता है शायद भूखा है
वह नेताओं के कहने पर बैठा है
सामने एक ऊँचा स्टेज सजा है।
दृश्य कुछ ऐसा है
चीख रहा लाउडस्पीकर भाषणों के बोलों से
पच्चीस ग्राम ईमान लिए दिखाते सज्जनता
पच्चीस किलो फूलों की माला कंठ में लाद
माँग रहे न्याय उस ग़रीब के लिए
जो करता भूख हड़ताल।
एक सिंहासन सजा है मध्य में
आसपास चमचों से सजा दरबार
तप रहे हैं कई मुद्दे, माहौल गरमा रहा
सिकुड़ रहा क़ानून अस्मिता बचाता।
दृश्य कुछ ऐसा है
बंकर गाड़ियों का हुजूम जमा है
असंख्य वर्दी धारी मुस्तैद पहरा दे रहे
सरकारी आदेश है शान्ति बहाल हो।
भूखा-ग़रीब दहाड़ रहा
पास बेहोश पड़ा साथी शायद दम तोड़ रहा
अचानक लाठियों की बरसात होने लगी शोर में
क्यों आँसू गैस से बहते हैं आँसू गणतंत्र राष्ट्र में!
दृश्य कुछ ऐसा है
आम आदमी गवाह बना है
अमीरों की भूख पेट से दिमाग़ तक बढ़ती
ग़रीबों की भूख पेट से खेतों तक बढ़ती
ऐसी भूख कभी शांत नहीं होती . . .
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