समाज के दरिंदे

15-03-2021

समाज के दरिंदे

जितेन्द्र मिश्र ‘भास्वर’  (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

अख़बारों में ख़बरें यह छप जाती हैं।
घाव हमारे मन में यह कर जाती हैं।
जब भी बेटी कहीं यातना पाती है।
कष्टों को कितने वह सहती जाती है।
 
आज दरिंदे आसपास हैं घूम रहे।
घर की बहू-बेटियों को ये घूर रहे।
कुछ अपने रिश्तों में से हो सकते हैं।
ख़ुशियों में ये काँटे भी बो सकते हैं।
 
मानवता इनके कारण दम तोड़़ रही।
लज्जावश कोई बेटी दम तोड़ रही।
रिश्ते देखो तार-तार हो जाते हैं।
घर वाले व्याकुलता में खो जाते हैं।
 
यह समाज के लिए बड़ा दुखदायी है।
बेटी भी अपनी है नहीं परायी है।
जो करते हैं पाप सबक़ सिखलाएँ हम।
पकड़ गर्दनें खीचें बाहर लाएँ हम।
पकड़ गर्दनें खीचें बाहर लाएँ हम....॥ 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

दोहे
कविता-मुक्तक
गीत-नवगीत
कविता
गीतिका
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में