जितेन्द्र मिश्र ‘भास्वर’ – 004 मुक्तक
जितेन्द्र मिश्र ‘भास्वर’
1.
एक है बेटी बिनब्याही व, विधवा माॅं के बेटे चार।
पाल पोस कर बड़ा किया है, माॅं ने कष्ट सहे हर बार।
हुआ विवाह सभी का इक दिन, बदल गया सारा व्यवहार।
माॅं-बेटी को कौन रखेगा, इस पर मची हुई तकरार।
2.
सदा त्योहार सिखलाते रहें हम प्रेम से मिलकर।
कि जैसे वाटिका में पुष्प रहते हैं सदा खिलकर।
दिलों की दूरियाँ ही हैं मिटाती प्रेम के रिश्ते।
चले जब वायु तो पत्ते ख़ुशी से झूमते हिलकर।
3.
केंचुल बदले घूम रहे कुछ, झूठी शान दिखाते हैं।
रहते हैं वो इसी देश में, गान विदेशी गाते हैं।
सदा विवादित बातें करते, रहते हरदम चर्चा में।
ऐसे ही मूर्ख होते जो, ठोकर मुँह की खाते हैं।
4.
किसी का जन्म होता है, कहीं प्रस्थान होता है।
कहीं शहनाइयाॅं बजती, कहीं परिवार रोता है।
निराले खेल होते हैं, सभी की ज़िंदगानी में।
वही मिलता सदा हमको, जिसे पुरुषार्थ बोता है।