हाय ग़रीबी
जितेन्द्र मिश्र ‘भास्वर’सरदी में फिर, दिखती कितनी, घायल है।
हाय ग़रीबी, रोती रहती, प्रतिपल है।
सिर ढकने को कोई छप्पर,
गर्म वस्त्र हैं नहीं किसी पर।
हाड़ कँपाती इस सर्दी में,
दशा देखता रहता अंबर।
झंझावातों, का जीवन में, दंगल है।
हाय ग़रीबी, रोती रहती, प्रतिफल है।
लाचारी है और उधारी,
कुछ दिन काम अधिक बेगारी।
दो रोटी की आस लिए ही,
होती कितनी मारामारी।
दुख रूपी ये, नदिया बहती, कलकल है।
हाय ग़रीबी, रोती रहती, प्रतिफल है।
राग द्वेष नहिं मन में कोई,
ख़ूब ग़रीबी छिपकर रोई।
ऐसा क्या अपराध हमारा,
पीड़ाओं से गयी सँजोई।
तन मन धन से, दिखती कितनी, निर्बल है।
हाय ग़रीबी, रोती रहती, प्रतिफल है।
वास्तव में जो भी ग़रीब हैं,
वंचित हैं जो बदनसीब हैं।
लाभ प्राप्ति के जो अधिकारी,
दुख के कंपन के क़रीब हैं।
सिर्फ़ दिखावे, में मिल जाता, कंबल है।
हाय ग़रीबी, रोती रहती, प्रतिफल है . . .!