परिस्थितियों में ऐसा चिराग़

20-04-2014

परिस्थितियों में ऐसा चिराग़

कविता गुप्ता

 

आज से पाँच दशक पहले उस घर में भी बेटे के विवाह की शहनाइयाँ गूँज उठीं जिसका सभी को बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था। दुलहन के आने से छोटा घर भी भरा-भरा-सा लगने लगा था। एक वर्ष के अंदर ही बेटी के रूप में नन्ही, प्यारी सी किलकारी गूँजी, घर और भी भर गया। विडंबना पूरे वर्ष बाद ठीक उसी दिन एक और बेटी ने दस्तक दे दी। सबने स्वागत कहा था। कुछ महीने लाड-चाव में बीते, लेकिन सहसा संदेह के बादलों ने छोटी-सी बस्ती को घेर लिया, जब पता चला कि बेटी जन्म से ही मूक बधिर है . . . स्वीकारा। तीन वर्ष पश्चात जिस्म पिघले . . . परिणाम स्वरूप फिर बेटी, जल्दी ही पता चल गया वह भी ‘वैसी’ ही, ईश्वर को उलाहना क़तई नहीं। थोड़ा सा अंतराल नव वर्ष का नया उपहार फिर कन्या लेकिन संतुष्टि वह नॉर्मल थी, बेटे की चाह ने फिर चक्रव्यूह में डाला तो परिणाम बेटे की तमन्ना परिपूर्ण, परन्तु मूक बधिर बहनों का भाई कहलाया। 

इतना होने के बाबजूद परिवार तथा माँ-बाप को भाग्य को कोसते कभी न देखा न सुना। समय अपने क़दमों की गति से चलता गया। ईश्वर का आभार बड़ी बेटी की शादी सम्पन्न परिवार में हो गई। लेकिन दुर्भाग्य का बड़ा बादल ऐसा फटा बच्चों का पिता असाध्य रोग से पीड़ित इस संसार को अलविदा कह गया। उफ़! ‘विदाई’ को समय इतना कम मिला कि गृहस्थी कि डोर ऊपर वाले के अतिरिक्त किसी और को थमा भी नहीं सका। जैसे-तैसे वर्ष बीते बेटा जवान हो गया, अब बारी उसका घर बसाने की जब आई तो एक ज्वलंत प्रश्न था जीवन संगिनी कैसी? संजोग पूर्व नियोजित . . . एक सुंदर, सुशील, सुशिक्षित 'मेल खाती' बेटे की अर्धांगिनी बनी। उत्सुकता व चिंता का विषय था कि भावी सन्तति कैसी? ईश्वर तेरा न्याय अटल है! फूल सा नाज़ुक, बहुत प्यारा राजकुमार सम बेटा दिया, तेरा शुक्रिया लेकिन माँ बाप जैसा। 

कोई शिकायत नहीं। इस बीच छोटी बेटी की शादी भी उच्च घराने में हो गई । अब परेशानी, भय डराने, सताने लगा आगे क्या होगा? अधेड़ उम्र की अकेली जान कल की धूमिल परछाईं से सदैव घबराई कि घर में पाँच मूक बधिर लोग और मैं अकेली . . .। तो ‘उसने’ ढाढ़स बँधाया, फुलवाड़ी में महकती कली मुस्काई। उसके होंठों से निकला एक-एक शब्द शबनम के मोती लगने लगा। घर में दादी, पोती सुनने बोलने वाले हो गए। भविष्य सुरक्षित लगने लगा। 

चार वर्ष बीते, पर इस ख़बर ने अंदर बाहर तूफ़ान सा खड़ा कर दिया कि बहू के पैर फिर से भारी हैं। सब के चेहरों पर चिंताओं की लकीरे खिंच गई जो स्वाभाविक थीं। सभी सोचने लगे क्या होगा? क्या करें? डॉ. से सम्पर्क किया रिपोर्ट पोज़ीटिव थी, बच्चे को गिराने का मन बना लिया लेकिन डॉक्टर ने बहू का निरीक्षण करने पर अपनी असमर्थता स्पष्ट कह दी क्योंकि यह सब ख़तरे से ख़ाली नहीं था। दिन, महीने बीते, सब के अंदर जो भय समाया था, छिपाने वाली बात ही नहीं। आख़िर निश्चित दिन आ पहुँचा। सूर्य तो उस दिन भी वैसे ही उदित हुआ था लेकिन उस घर में उसकी किरणें विशेष ऊर्जा से पहुँची थी। एक नन्हा अपनी पहली रोने की आवाज़ से अपना परिचय दे चुका था। पहले 15 दिनों में ही डॉ. ने घोषित कर दिया था कि बच्चा पूर्णत: नॉर्मल है। ऐसी परिस्थितियों में किसी घर में अगर ऐसा चिराग़ जब जलता है तो आप ख़ुद ही अनुमान लगाएँ। उस अंतर्यामी का अभिन्न अंग, बेहद प्यारा, बेअंत सुंदर जीव आज वह 6 मास का हो गया है, मैं उठते-बैठते न जाने कितनी बार ईश्वर की उदारता, कृपा दृष्टि व् सहानुभूति की ऋणी हूँ जिसने परिवार को इतना बड़ा उपहार दिया, उपकार किया। अब घर में सुनने, बोलने वाले तीन हो गए थे। 

कभी-कभी सोचती हूँ क्या ऐसे भी हो जाता है? तेरा कोटि-कोटि धन्यवाद है! प्रभु!!

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