हादसा–03– गुनहगार हूँ या नहीं
कविता गुप्ता
कन्या भ्रूण हत्या का अगला हादसा जो रह-रह के भी नहीं भूलता 15 मई का दिन, क़रीब 12 बजे से पहले फोन की घंटी बजी। हैल’ कहते ही उधर से आवाज़ आई, “भाभी जी क्या आप . . . अस्पताल, जालंधर आ सकती हैं? हमें आपकी मदद चाहिए।” कविता . . .सदैव तैयार। मैंने अस्पताल का पूरा पता लिया और बिना कोई सवाल, जवाब के, बस में बैठ उन तक पहुँच कर ही साँस ली। मुझे कोई अनुमान नहीं क्या माजरा था, क्या मुसीबत? यही सोचूँ . . . मैं भाग्यशाली हूँ जो लोग मेरी सहायता माँगते हैं। मीना (काल्पनिक नाम) कमरे में अर्धमूर्छित-सी लेटी हुई ने मुझे देखा तो निश्चिन्त-सी हो गई। मैंने भी उसके माथे पर हाथ रख उसे सांत्वना दी, कहा, “धैर्य रखो तुम जल्दी ठीक हो जाओगी|”
इतना सुनते ही उसकी आँख लग गई। मैं भी उसकी अस्वस्थता का कारण दीवारों से पूछती रही लेकिन सहमी हुई कोई दीवार, द्वार कुछ न बोला।
इतने में रोहित (उसका पति) अंदर आया, थोड़ा अस्त-व्यस्त लगा लेकिन औपचारिकतावश मेरा हाल-चाल पूछा, इतनी जल्दी पहुँचने पर उसने धन्यवाद भी किया। फिर धीरे से एक लिफ़ाफ़ा जिसमें करंसी थी मुझे पकड़ाते हुए कहने लगा, “भाभी जी ‘चैक’ करने के बाद यह पैसे आप नर्स को दे देना।”
बात को अभी पूर्ण विराम नहीं लगा था सारा ‘कांड’ व दृश्य मेरी आँखों के आगे घूम गया और मेरा दिमाग़ जैसे . . . फटने को, क्योंकि उन दिनों यह ‘कारोबार’ अभी नया-नया शुरू हुआ था, जो थोड़ा महँगा भी था।
मीना लुट चुकी थी। पहले एक बेटा एक बेटी का सुखद संसार व परिवार था। लेकिन बेटों का जोड़ा बनाते बेटियों की जोड़ी तोड़ चुकी थी। मैं उस ढेर तक कैसे पहुँचती जहाँ कोने में एक नहीं अनेकों रूई के कतरों में निर्जीव अध्जन्मीं कन्याएँ लिपटी पड़ी थीं। मैं जिस आशा और कर्त्तव्य भावना से भागी गई थी, अब वापस क्या मुँह लेकर लौटूँ? यह एक प्रश्न था जिसका उत्तर मुझे आज तक नहीं मिला, न ढूँढ़ पाने में क्षमाप्रार्थी हूँ। ईश्वर के समक्ष मैं कितनी गुनहगार हूँ या नहीं? यह वह ही जानता है। . . .
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