हादसा–01– क़ातिल की बेटी

01-07-2014

हादसा–01– क़ातिल की बेटी

कविता गुप्ता

 

ज़िन्दगी में कन्या भ्रूण हत्या का पहला झिंझोड़ देने वाला हादसा। सन्‌ 1978, दिसंबर माह की कड़कती ठंड। शहर में विवाहों की धूम धाम, शहनाइयों का बेतहाशा . . .। शोर तो समझ गए फोटोग्राफरों की भी चाँदी। अचानक धायँ-धायँ की आवाज़ ने सब को चौंका दिया। पता चला फोटोग्राफर की बरातियों से पी-पिला कर किसी बात पर कुछ ऐसी अनबन हुई कि एक के सीने में गोली लगी वह वहीं ढेर हो गया। फोटोग्राफर समय की नज़ाकत देखते बच निकला। 

उसकी शादी अभी चंद माह पहले हुई थी और पत्नी माँ बनने वाली थी। छिपते-छिपाते उसने रात न मालूम कहाँ बिताई? लेकिन सुबह तक यह ख़बर शहर में आग की तरह फैल चुकी थी। संक्षेप में, केस चला उसे आजीवन कारावास की सज़ा मिली। जिस घर में अभी ख़ुशियों ने पूरे घूँघट खोले भी नहीं थे मातम कि दरियाँ बिछ गईं। 

बहुत बड़ा प्रश्न बहू व् बच्चे का क्या भविष्य? बात सुलगते-सुलगते कानों तक पहुँची यदि लड़की है तो गर्भपात करवा दो, लड़का है रख लो। परन्तु उससे बड़ा सवाल यह कि यह टैस्ट तो अभी पंजाब में होता नहीं। केवल मुम्बई शहर में सुना है तो किसी न किसी तरह कोई हल ढूँढ़ा जाए। मुझे वह दिन भूल कर भी नहीं भूल सकता जब पता चला था कि गर्भ में बेटी थी जिसे क़ातिल की बेटी के कलंक से बचाने के लिए ‘गिरा’ दिया गया। मैं इस सोच से स्तब्ध रह गई थी यदि बेटा होता तो उस पर क़ातिल के बेटे का कलंक या मुहर न लगती? उस समय यह बात तथ्यहीन दूरदर्शिता की। थोड़े दिनों बाद पता चला की बहू को उसके मायके वापस भेज दिया है क्योंकि ‘काम हो गया’ था। 

उसके बाद तो जो सिलसिला बेलगाम चला वह किसी से छिपा नहीं। मैं एक-एक करके उसकी लड़ी-बार चर्चाएँ अपने छोटे-छोटे संस्मरणों में करती रहूँगी जिन्होंने मुझे आज तक परेशान किया व् रुलाया है। इतने वर्षों . . . पुराना दर्द धीरे-धीरे क़लम की पकड़ में आ पायेगा ऐसा मेरा विश्वास है . . . मेरे पास एक नहीं, ऐसे अनगिनत सजीव हादसे हैं। 

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