घर से निकलने वाला
रितेश इंद्राश
घर से निकलने वालों का
घर लौट पाना मुश्किल ही नहीं
नामुमकिन होता है।
बेचारे दुआर, घर, खलिहान
याद करके तड़पते रहते हैं
अपने ही घर अतिथि जैसा
रह जाना पीड़ा युक्त होता है
जाना तो हर कोई चाहता
लेकिन कैसे
क्या कर्त्तव्य परायण व्यक्ति
निठल्ला रह सकता है?
माना रह भी गया
ख़ुद तो जी लेगा पर
क्या समाज जीने देगा
ताने सहने कि क्षमता
कहाँ से लाएगा
फिर दो जून की रोटी का क्या?
ये सब सोच कर इंसान
थरथरा के काँपता है
घर न जाने पर मजबूर होकर
दर्द छिपाता ख़ुद से झूठ बोलता
जीता है
पर घर से निकलने वाला
घर नहीं जा पाता।