गर्मी के तेवर

डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’ (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

“गर्मी वो चीज़ है जो हर किसी को नंगा करने को मजबूर है। अफ़सरों की ख़ाली योजनाओं की पोल, चुनावी वादों की पोल सभी तो! वैसे इस गर्मी का सूरज अकेला ही ज़िम्मेदार नहीं, चुनाव की गर्मी भी लोगों के सर चढ़कर बोल रही है। चुनावी नौ तपा तो 2 महीने पहले ही शुरू हो गया था। लगता नहीं 4 जून को भी रिज़ल्ट की बौछार इसे ठंडी कर पाएगी। क्योंकि फिर गठबंधन की धमाचौकड़ी की गर्मी भी शुरू हो सकती है।” 

अभी अभी व्हाट्सप्प पर कहीं और से सरकाया हुआ (फ़ॉरवर्डेड) एक सन्देश पढ़ा, की ‘नौ तपा’ बुरा नहीं है, और ‘नौ तपे’ के फ़ायदों की एक लिस्ट प्रेषित थी, एक सुकून देने वाला सन्देश, सुनकर लगा कि पसीने से तरबतर शरीर में कहीं किसी ने शीतल फूँक मार दी हो। मैंने सोचा शायद इस सन्देश को अगर ११ लोगों को फ़ॉरवर्ड करूँ तो सूरज नानाजी प्रसन्न हो जाएँ और अपनी गर्मी की मार को थोड़ा कम कर दें। वैसे गर्मी कुछ नहीं है मन का वहम है! ऐसे ही जैसे एक नेताजी ने कहा था कि “ग़रीबी कुछ नहीं है मन का वहम है!” इसी वहम के चलते वही नेताजी एक आम सभा में भाषण के दौरान अपने ऊपर बिसलेरी का ठंडा पानी डाल रहे थे। गर्मी में दिमाग़ वैसे भी बौरा जाता है। पीछे से चुनाव की गर्मी और आगे तपता सूरज, आदमी ख़ुद भूल जाता है कि उसने क्या बोला क्या नहीं! 

गर्मी अपने प्रचंड स्वरूप में लोगों को अपने रौद्र रूप का दर्शन करा रही है। नाना सूरज भी अपनी तीक्ष्ण किरणों की बौछार से तन मन दोनों को पसीने-पसीने कर रहा है। जितना तेवर गर्मी दिखा रही है उतनी तो बहू अपनी सास को, कामवाली मालिकिन को या भाभी देवर को भी नहीं दिखाती है। 

जनता और धरा दोनों ही त्राहि त्राहि कर रहे हैं। कहीं पर भी बरसात रूपी कृपा बरसने के आसार नहीं दिख रहे हैं। अरे कोई उस बाबा को पकड़ो जो हरी चटनी या लाल चटनी में लिपटे समोसे खिलाकर अटकी हुई कृपा को हरी बत्ती दिखा दे। 

बिजली विभाग तत्परता से लगा हुआ है। कहीं ट्रांसफ़ार्मरों के गर्म मिज़ाज पर ठंडा पानी डालते हुए, कहीं बिजली के टूटे तारों को जोड़ने में व्यस्त है। रोज़ मकान के सामने से दमकल विभाग की गाड़ी साँय साँय करती हुई निकलती है। सुनकर दिल धक्क सा बैठ जाता है, आज फिर कहाँ आग लगी है? वैसे आग भी आजकल स्वचालित मोड़ पर आ गयी है, आग लगानी नहीं पड़ती अपने आप ही लग रही है। तेल, चूल्हा और गैस सब्सिडी की ज़रूरत नहीं है। बिना चूल्हे, केरोसिन और गैस के ही, रेत में पापड़, रोटी सेकी जा रही हैं, ऑमलेट पक रहा है। बिजली विभाग भी साम्यवाद लाने पर तुला है। अमीर और ग़रीब का कोई भेद नहीं मानकर बिजली कटौती करके अमीरों के हाथ में भी बीजनी पकड़ा दी है। 
 
वोल्टेज देखो तो ग़रीब के घर की दाल रोटी के राशन की तरह कम होता जा रहा है। शाम आते आते तो वोल्टेज ऐसे हाँफने लगते हैं जैसे कोई आईसीयू में भर्ती मरीज़ है, जिसका वेंटीलेटर सपोर्ट निकाल कर उसे मरणासन्न अवस्था में छोड़ दिया हो। जहाँ मोबाइल ने घरों में दूरियाँ बनायी हैं, वहीं गर्मी ने परिवार वालों को सबको एक रूम में इकट्ठा कर दिया है। क्यों कि वोल्टेज इतना ही है कि घर का एक एसी चल जाए बहुत है। कमरे को भी फ़्रिज की तरह दरवाज़ा बंद करके रखना पड़ता है। एक मिनट भी दरवाज़ा खोला नहीं कि कूलिंग ऐसे ग़ायब होती है जैसे गधे के सर से सींग। अब लू के थपेड़े भी क्या करें! उन्हें भी ठंडक चाहिए, बस इसी फ़िराक़ में लू कमरे में घुसकर अपनी छाती ठंडा करना चाहती है। 

चुनावी रंगत की चटखाऊ और भड़काऊ ख़बरों से थोड़ी सी नजात मिली कि गर्मी की तीखी झुलसी हुई ख़बरों ने अख़बार में झंडे गाड़ दिए। संस्थाएँ भी इस गर्मी में लोगों को शरबत और ठंडा पानी पिला-पिला कर ख़ुद डीहाईड्रेशन से पीड़ित हो गयी हैं। मगर गर्मी एक क्षण के लिए भी कम होने का नाम नहीं ले रही है। स्कूल में बच्चों की छुट्टियाँ तो हो गईं, लेकिन मास्टरों को अब परिन्दे बाँधने को और हीट वेव से बचाव की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए कड़ी धूप में दौड़ाया जा रहा है। 

हीट वेव से बचाव के लिए सरकारी महकमा भी अपने उच्च अधिकारियों और योजना बनाने वाले बुद्धिजीवियों को हड़का रहा है। इसी मंशा के पालन के लिए सभी सरकारी एसी हालों में सेमिनार और कार्यशालाएँ आयोजित हो रही हैं, योजनाएँ बन रही हैं। 

जल संकट की स्थिति ऐसी है कि सारा जल नदियों, नालों और कुओं से सिमटकर प्लास्टिक बंद बोतलों में आ गया है। प्याऊ के कुछ अवशेष अभी भी शहरों में दिख रहे हैं। लेकिन प्याऊ की दीवारें सिर्फ़ और सिर्फ़ संस्थाओं के बड़े-बड़े बैनर पोस्टर लगाने के काम आ रही हैं, और अंदर उन्हें सार्वजनिक पेशाब घर बना दिया गया है। 

सोशल मीडिया पर गर्मी से बचाव के व्हाट्सएप ज्ञान की बाढ़-सी आ गई है। लोग भला क्या करें, इस ज्ञान की बाढ़ में ही डुबकी लगाकर अपनी गर्मी की तपिश को कम कर रहे हैं। पढ़े लिखे लोग अपने ज्ञान की भट्टी से तपा तपाया ज्ञान पेल कर इस गर्मी को और बढ़ा रहे हैं। ओज़ोन की परत के हर साल बढ़ते छेद के नाप बताये जा रहे हैं। आदमी हमेशा से अपने कुकर्मों को ढाँपता आया है। इसे और के माथे मढ़कर अपने आपको बरी कर लेता है। गर्मी है क्योंकि ओज़ोन की परत में छेद है, गर्मी है क्यूँकि ग्लोबल वार्मिंग है। ये जो पेड़ की छाँव, कच्चे मकानों की सुहानी शाम, हरा भरा छायादार आँगन भूलकर हम इन शानो-शौकत की झूठी इमारतों में क़ैद हो गए हैं। कृत्रिम एसी की हवा ख़ुद लेकर बदले में हानिकारक कार्बन उत्सर्जन बढ़ा रहे हैं। इसकी ज़िम्मेदारी तो सरकार की है न। सरकार ने ही तो अच्छे दिन का वादा किया था। अब वो ही जाकर ओज़ोन की परत की सिलाई करेगी। 

ये सूरज की पीली तप्त रश्मियों के प्रहार से कनपटी पर टपकती पसीने की बूँदें अहसास दिला रही हैं उस मज़दूर की मेहनत का, जिसके मेहनताने से तुमने दिन में घड़ी भर सुस्ताते हुए एक बीड़ी का बंडल फूँकने और एक कट चाय पीने के पैसे काट लिए हैं। बाक़ी के रुपए उसकी तरफ़ इस अंदाज़ में फेंके हैं कि ‘लो तुम्हारा पसीना सूखने से पहले तुम्हारी मज़दूरी दे दी है।’

गर्मियों में ना, सूरज भी शक्की मिज़ाज बीवी की तरह हमेशा सर के ऊपर ही बैठा रहता है। सुबह होती ही नहीं है, सीधे दोपहर हो रही है। मॉर्निंग वॉक का नाम भी बदलकर समर वॉक रख देना चाहिए। दिन ऐसे लंबे होते जा रहे हैं जैसे ग़रीबों की वेदनाएँ, ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे! 

जितनी सुख सुविधाएँ, लग्ज़री से लैस हुई, उतनी निर्भरता बढ़ती चली गई है। गाँव के दिन याद हैं, बिजली सिर्फ़ और सिर्फ़ खेतों को सप्लाई होती थी। गाँव में बिजली देते ही नहीं थे। क्योंकि गाँव में लोग जानते ही नहीं थे कि बिजली का बिल भी आता है, कोई मीटर जैसी चीज़ भी लगती है। लंगर डालने का काम गाँव में बचपन से ही सिखा दिया जाता था। और कोई भूला भटका बिजली विभाग का अधिकारी जिसकी नयी-नयी नौकरी लगी हो, अगर गाँव में बिजली चोरी पकड़ने के लिए आ भी जाता था तो गाँव वाले उसका स्वागत अच्छा-ख़ासा लात घूसों से करके उसे विदा करते थे। हार कर बिजली विभाग ने लाइट देना बंद कर दिया था। शाम को रहम खाकर लाइट देते थे, वो भी इतना वोल्टेज कि सिर्फ़ एक 100 वॉट का बल्ब आँगन में जला सको, इसके साथ पंखा चला दिया तो पंखे की जैसे शामत आ जाती थी। बेचारा ऐसे घूमता जैसे कोल्हू में लगा बैल, साथ ही अपनी गर्दन भी ऐसे ही घुमाता। जैसे कह रहा हो, “मेरे से नहीं होगा भाई, तुम देख लो।” ऐसे में सबसे बढ़िया काम होता था, दो बाल्टी पानी लेकर छत पर 6 बजे छिड़काव कर देते, 8 बजे तक छत ठंडी हो जाती थी। दिन में तो सोने के अभ्यस्त ऐसे थे कि एक हाथ में बीजनी घूमती रहती थी, दूसरे हाथ से मक्खियाँ चेहरे से हटाते रहते थे और ये दोनों काम के साथ नाक-मुँह से खर्राटे भी ले लेते थे। 

गर्मी वो चीज़ है जो हर किसी को नंगा करने को मजबूर है। अफ़सरों की ख़ाली योजनाओं की पोल, चुनावी वादों की पोल सभी तो! वैसे इस गर्मी का सूरज अकेला ही ज़िम्मेदार नहीं, चुनाव की गर्मी भी लोगों के सर चढ़कर बोल रही है। चुनावी नौ तपा तो 2 महीने पहले ही शुरू हो गया था। लगता नहीं 4 जून को भी रिज़ल्ट की बौछार इसे ठंडी कर पाएगी। क्योंकि फिर गठबंधन की धमाचौकड़ी की गर्मी भी शुरू हो सकती है। राजनीतिक गर्मी की तपिश की मार आम जन को भी झेलनी पड़ती है। ये जो आहें सुलग रही हैं, सिर्फ़ मौसम की गर्मी नहीं, ईर्ष्या और हवस की गर्मी भी इसमें शामिल है। गर्मी ने सब को इस हमाम में नंगा कर दिया है। नेताओं के असली चेहरे जो कोहरे में मुँह छुपाने से पर्दा नशीं हो रहे थे अब बेपर्दा हो रहे हैं। 

हे पैदल चलने वाले राहगीर, तारकोल की सड़कें पिघल रही हैं, इसमें तेरी चप्पल भी पिघल जाएगी, तेरे प्लास्टिक की झुग्गी-झोंपड़ी पिघल जाएगी, किस से शिकायत करेगा तू? तूने अपने वोट की क़ीमत, एक बोतल दारू और चंद नोट तो पहले ही ले ली है। 

चलते चलती मैथिलि शरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ याद आ गयीं: 

“हे निदाघ! हे ग्रीष्म भीष्म तप! 
हे अताप! हे काल कराल! 
दया कीजिए हम लोगों पर देख हमें अतिश्य बेहाल। 
वैसे ही हम मरे हुए हैं फिर हम पर क्यों करते वार, 
मृतक हुए पर शूरवीर जन करते नहीं कदापि प्रहार॥”

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