अफ़सरनामा

डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’ (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

अफ़सर नाम का प्राणी वह है, जो दफ़्तरों में पाया जाता है। वैसे तो सरकारी, अर्ध-सरकारी, और ग़ैर-सरकारी सभी दफ़्तरों में यह पाया जाता है। कुछ अर्जित, कुछ जबरन, कुछ जुगाड़ू, और कुछ कबाड़ी— हर प्रकार के अफ़सर होते हैं। अफ़सर काम नहीं करते, काम की चिंता करते हैं। गधे की तरह ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोते हैं—ज़िम्मेदारी काम करवाने की और साथ में काम की चिंता का बोझ उठाने की। 

इनका कोई समय नहीं होता; ये समय और स्थान से परे, ब्रह्मस्वरूप होते हैं। ये ऑफ़िस के कण-कण और जड़-चेतन में विराजमान रहते हैं। इसलिए कुर्सी पर दिख सकते हैं, नहीं भी दिख सकते हैं, या दिखते हुए भी नहीं दिख सकते हैं और नहीं दिखते हुए भी दिख सकते हैं। 

अफ़सर को कभी भी नौकर मत समझिए। इनके चाल-ढाल और रंग-ढंग सब अलग और जुदा-जुदा होते हैं। ये तो सारी जनता को अपना नौकर समझते हैं। नौकर के साथ चाकर जुड़ा होता है, लेकिन अफ़सर के साथ क्लब, विदेशी दौरे, महँगी शराब, और अनगिनत मीटिंग्स जुड़ी होती हैं। 

अफ़सर का मुख्य भोजन रिश्वत है। ये सर्वाहारी होते हैं। वैसे तो रिश्वत में विविधता की परवाह नहीं करते, जो भी मिले खा सकते हैं। कुर्सी, टेबल, फ़ाइल, पेन, पेंसिल, कूड़ा-कचरा, यहाँ तक कि सड़कें और पुल तक निगल सकते हैं। इनका पेट बहुत बड़ा होता है। इनके जूते भी बड़े आकार के होते हैं, जो हर समय इनके अधीनस्थ कर्मचारियों पर चलते रहते हैं। ये जूते कभी थकते नहीं, कभी रुकते नहीं। 

ये सोचते बहुत हैं—दफ़्तर के बारे में, काम के बारे में। सोचते-सोचते इन्हें अक्सर झपकी लेनी पड़ती है। बिना झपकी के, इनके ख़्याल बेलगाम हो जाते हैं। पलकों में ख़्यालों को बंद कर लेते हैं और फिर ख़्यालों की ‘वोमिट’ करने के लिए मीटिंग बुलाते हैं। दफ़्तरों में, फ़ाइलों के ढेर के पीछे, आपको ये अक्सर झपकी लेते हुए मिलेंगे। 

इनका मुख्य काम मीटिंग करना है। हर समस्या का हल मीटिंग ही होती है। किसी भी काम को टालने का, और कोई उपाय न हो तो मीटिंग; न करने का कोई और बहाना न हो तो मीटिंग। ये कोई भी काम अपने कंधे पर नहीं लेते और क्रेडिट से कोसों दूर रहते हैं। किसी भी निर्णय से पहले ये मीटिंग ज़रूर करते हैं, ताकि किसी भी असफलता का ठीकरा दूसरों के माथे पर फोड़ा जा सके। 

अगर मीटिंग से समय मिले तो ये दौरे पर निकल जाते हैं। दौरे कई प्रकार के होते हैं, जो ज़्यादातर मौसम के अनुसार तय किए जाते हैं। गर्मी हो तो किसी ठंडे स्थान पर और सर्दी हो तो किसी गर्म स्थान पर। 

इनको ऑटोग्राफ देने का कोई शौक़ नहीं होता; फ़ाइलों में इनके ऑटोग्राफ माँगे जाते हैं। ये शान से कहते हैं, जैसे दीवार फ़िल्म में अमिताभ बच्चन ने कहा था—“जाओ, पहले उसके ऑटोग्राफ लाओ, फिर उसके, फिर उसके . . . तब मेरे पास आना तुम . . . आख़िर में मेरे ऑटोग्राफ!”

बड़े अफ़सर बड़े दौरे पर होते हैं, कभी-कभी विदेश तक चले जाते हैं। सेमिनार, जिमख़ाना, डाक बँगला और रेस्ट हाउस में इन्हें बहुतायत से देखा जा सकता है। अफ़सर को सबसे ज़्यादा डर यूनियन वालों से लगता है। इन्हें मालूम है कि इनसे बड़ा अफ़सर इनका तबादला कराए न कराए, यूनियन का अध्यक्ष ज़रूर करवा सकता है। डर इस क़द्र है कि अगर यूनियन अध्यक्ष की सलामी का भी जवाब नहीं दिया, तो इन्हें डर है कि यूनियन हड़ताल पर जा सकती है। 

हर अफ़सर के ऊपर एक अफ़सर होता है, जो उसे हड़काता है। यह इस हड़कन को अपने पास नहीं रखते, तुरंत निर्लिप्त भाव से नीचे वाले को ट्रांसफ़र कर देते हैं। नीचे वाला बाबू को, और बाबू उसे अपनी जेब में रखकर हाथों से मसल देता है, जैसे चींटी को मसल रहा हो। 

हर अफ़सर के ऊपर एक जासूस होता है, और वो इसकी बीवी के सिवा कोई दूसरा नहीं होता। और हर अफ़सर के नीचे दो-चार जासूस होते हैं, जो दिन भर ऑफ़िस की सभी जायज़-नाजायज़ गतिविधियों की गंध इन्हें सूँघाते रहते हैं। 

अफ़सर को घर जेल लगता है और दफ़्तर एक पिकनिक स्पॉट। अफ़सर के दफ़्तर में घड़ी भी अफ़सर के हिसाब से चलती है। सर्दियों में धूप में मूँगफली खाते हुए दिखेंगे, और गर्मियों में ए.सी. की ठंडी हवा खाते हुए। अफ़सर जहाँ होता है, वहीं दफ़्तर लग जाता है, बिल्कुल शहंशाह की तरह। जब तनाव होता है, तो मीटिंग होती है। मूड फ़्रेश हो, तो मीटिंग होती है। कुछ नहीं हो रहा हो, तब एक मीटिंग तो ज़रूर आयोजित करनी होती है, सिर्फ़ इसलिए कि पता करें कि आज कुछ क्यों नहीं हो रहा दफ़्तर में। 

बाबू से पूछते रहते हैं, “अच्छा, बताओ, आज मैं कैसा लग रहा हूँ?” बाबू कहते हैं, “साहब जी, इस बात पर तो एक मीटिंग आयोजित कर ली जाए। सबकी सर्वसम्मति से पता भी लग जाएगा कि आप कैसे लग रहे हैं। अब मैं अकेला कहूँगा, जनाब, तो छोटे मुँह बड़ी बात होगी।” बस, इसी बात पर एक मीटिंग आयोजित करनी पड़ती है। 

अफ़सर की नई टाई की प्रशंसा के लिए भी एक मीटिंग आयोजित की जाती है। नीचे ओहदे वाले दफ़्तर में किसी कर्मचारी की ख़ुशी बाँटने को पार्टी करते हैं, तो अफ़सर उस ख़ुशी को काफ़ूर करने के लिए मीटिंग करते हैं। अफ़सर होना मतलब कुर्सी और उस पर टँगा उनका कोट। कोट के अंदर अफ़सर का होना ज़रूरी नहीं है। जैसे भरत ने अयोध्या का राज्य चलाने के लिए राम जी की खड़ाऊँ ली थी, वैसे ही इनका कोट दफ़्तर का राज्य चलाता है। इससे बढ़िया रामराज्य आपको देखने को नहीं मिलेगा। 

ये कहीं भी जाएँ, अपना कोट कुर्सी पर टाँग देना नहीं भूलते। अगर बड़ा अफ़सर भी आ जाए, तो कोट देखकर कोई भी कह सकता है कि “अफ़सर तो हैं, लेकिन किसी ऑफ़िशियल काम से इधर-उधर गए होंगे।” 
इसी बीच, अफ़सर हो सकता है अपनी नई स्टेनो को पास के बँगले में टाइपिंग सिखाने में व्यस्त हो। काम तो दफ़्तर का ही हो रहा है ना! 

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