आँकड़े बोलते हैं जी

01-02-2025

आँकड़े बोलते हैं जी

डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’ (अंक: 270, फरवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

न्यूज़पेपर पढ़ रहा था, एक ख़बर देखकर चौंका। ख़बर एक संस्था की थी, जिसने अभी-अभी एक ब्लड डोनेशन कैंप लगाया था। उसमें मुझे भी ब्लड डोनेट करने का मौक़ा मिला। ख़बर में ऊपर एक छायाचित्र छपा हुआ था, जिसमें एक मेरे जैसा ही रक्तदाता पलंग पर लेटा हुआ था और उसके आसपास संस्था के 20 लोग झूमते हुए। उन्होंने फोटो खिंचवाते समय इस बात का ध्यान रखा था कि संस्था के नाम का बैनर न छुप जाए, इसलिए सामने वाले कुछ सदस्य कमर से झुककर इस फोटो को अंजाम दे रहे थे। सबसे चौंकाने वाली बात ब्लड डोनेशन के आँकड़े को लेकर थी, जिसमें जो आँकड़ा बताया गया था, वह वास्तविकता से चार गुना था। देखकर माथा ठनका–आखिर ये आँकड़े ही तो हैं, जिन्हें ऊपर तक पहुँचाकर वाहवाही लूटने के साथ कुछ फ़ंड पर भी नज़रें हैं जो लूटना है। 

आजकल सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण अगर कोई चीज़ है, तो वह है आँकड़े। हमारे गाँव में एक कहावत है, “भैंस को कान्कड़े और सरकार को बस आँकड़े खिलाते जाइए, और भैंस और सरकार दोनों को दुहते जाइए।” ऐसा नहीं है कि ये कोई नया प्रचलन है; इसका जन्म तो प्राचीन काल में ही हो गया होगा। ऊपर बैठे चित्रगुप्त जी, जो पृथ्वीलोक के प्रत्येक प्राणी के जीवनभर के क्रिया-कलापों का हिसाब आँकड़ों के रूप में धर्मराज के पास परोसते हैं और धर्मराज उसके मुताबिक़ उसे नर्क और स्वर्ग आवंटित करते हैं। बस, वहीं से यह प्रथा पृथ्वीलोक में भी आ गई, जिसे पहले सिर्फ़ सरकारी दफ़्तरों, कार्यालयों, और स्कूलों ने अपनाया था। धीरे-धीरे रेंगते हुए यह सभी ग़ैर-सरकारी प्रतिष्ठानों और राजनीतिक महकमों की संजीवनी घुट्टी बन गई। इस संजीवनी घुट्टी को घोंटने के चक्कर में न जाने कितने कर्मचारी दिन-रात पसीना बहाते रहते हैं। इन आँकड़ों को सजाने की विभिन्न तकनीकों का ईजाद हुआ है—रेखा चित्र, ग्राफ, बार डायग्राम, पिक्सल डायग्राम, पाई चार्ट, स्लाइड, पीपीटी और न जाने क्या-क्या लुभावने रूपों में अफ़सरों के सामने परोसा जाता है, ताकि अफ़सर की लार उस पर टपकने लगे और वह आशीर्वाद स्वरूप अपने मातहत को अभयदान दे सके। 

इन आँकड़ों की गिरफ़्त में सबसे ज़्यादा आता है माध्यम वर्गीय समाज। मार्केट ने इसे बख़ूबी समझा है, और विभिन्न क्रेडिट लोन देने वाली कंपनियाँ, चिट फ़ंड, फाइनेंस संस्थाएँ, लॉटरी, और स्टॉक मार्केट ट्रेडिंग कंपनियाँ उसे विभिन्न माध्यमों से इन आँकड़ों की रंगीन तस्वीरें भेजती रहती हैं। तस्वीरें भी किसी सुंदर सी बाला के हाथों में इन आँकड़ों को परोसते हुए दिखाई जाती हैं, और ये निरीह प्राणी आँकड़ों के उतार-चढ़ाव से ज़्यादा उस बाला के उतार-चढ़ाव से प्रभावित होकर इनके मकड़जाल में फँस ही जाता है। मल्टीलेवल मार्केटिंग कंपनियों ने भी इस आँकड़ों के खेल को बख़ूबी भुनाया है। सिर्फ़ सपने दिखाने से काम नहीं चलेगा, इसलिए अब ड्रीम के स्वप्निल संसार में उसकी आँखों को चकाचौंध करने के लिए उसे आँकड़ों के पायदान पर चढ़ाया जाता है, जिसे हम दूसरी भाषा में झाड़ पर चढ़ाना कहते हैं। 

सभी जगह आँकड़ों का कमाल है। नेता भी जानते हैं कि अब उनके झूठे वादों से उकता चुकी जनता को अब झूठे आँकड़े दिखाकर ही लुभाया जा सकता है। अपने वादों की गारंटी को सिद्ध करने के लिए अगले 5 साल केवल इन आँकड़ों को इकट्ठा करने का ही काम हर महकमे में दे दिया जाता है, और चुनाव से ठीक पहले इन्हीं तैयार आँकड़ों के भ्रमजाल से जनता को लुभाया जाता है। आँकड़े हर जगह दिखाई देंगे—टीवी डिबेट, न्यूज़ से लेकर दफ़्तरों की फ़ाइलों तक, लोन, बैंक, शिक्षण संस्थाएँ, अस्पताल, यूनिवर्सिटी, हर सरकारी दफ़्तर, नगर परिषद, पंचायत विभाग, तहसील, और सचिवालय का हर विभाग इन आँकड़ों के मकड़जाल में अपने आपको खपा रहा है। ये आँकड़े विकास की झूठी तस्वीर बनाकर एक आत्म-संतुष्टि का बोध सभी के चेहरे पर विराजमान कर देते हैं। संस्थानों ने भी इस जादुई आँकड़ों को अपना लिया है। कुकुरमुत्तों की तरह खुल रही एनजीओ इन आँकड़ों के बलबूते लुभावनी सरकारी योजनाओं को मिनटों में हथिया लेती हैं। समाज सेवा के नाम पर दी गई राहतों और लाभार्थियों के आँकड़े को 100 गुना बढ़ाकर ऐसे पेश किया जाता है कि अच्छे-अच्छे परोपकारी इनके सामने पानी भरते नज़र आते हैं। 

सभी योजनाएँ ज़मीनी स्तर पर फैलने के बजाय काग़ज़ी स्तर पर इठलाती और इतराती फैल रही हैं। सरकारी योजनाएँ शुरू होती हैं; जैसे कि सड़क, जो पूरी भी नहीं हुई तब तक इन आँकड़ों के आधार पर उसके रिपेयरिंग का बिल भी उठा लिया जाता है। यह है इन आँकड़ों की महत्ता। कुछ का धंधा भी यही रह गया है; वे आँकड़ों में एक्सपर्ट हैं। ये आँकड़ों की चकाचौंध से किसी ग्राहक रूपी मुर्ग़े को इस तरह फाँसते हैं कि असंभव-सी योजना को भी आपके दरवाज़े पर चुटकियों में लाने का वादा करते हैं। आँकड़ों के इस जादू में न जाने कितने हमारे जैसे सपने देखने वाले महत्वाकांक्षी लोग अपनी गाढ़ी कमाई गँवा देते हैं। 

ख़ैर, लोकतंत्र की सबसे बड़ी देन आँकड़ों पर ही सरकार टिकी हुई है। आँकड़े इस जीवन का इतना अभिन्न अंग हो चुके हैं कि अब रिश्ते-नाते भी आँकड़ों के हिसाब से ऊपर-नीचे होते हैं। इस मतलबी दुनिया की सबसे बड़ी ख़ुराक यही आँकड़े हैं, जो इसे फलने-फूलने दे रहे हैं। आँकड़े, जो प्राचीन काल से ही मानव सभ्यता के साथी रहे हैं, आज के युग में एक ऐसी सर्वव्यापी भाषा बन चुके हैं, जो सब कुछ कह देती है, बिना शब्दों के। 

आँकड़े, जो कभी निष्पक्षता के प्रतीक हुआ करते थे और अपनी सटीकता से व्याख्या करते थे, अब मनोरंजन, राजनीति और हमारे निजी जीवन में भी एक मोहरा बन चुके हैं अपनी शतरंज की चाल पर चेकमेट करने के लिए। 

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