दास्तान-ए-साँड़

01-12-2024

दास्तान-ए-साँड़

डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’ (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

जन्म दिवस मेरा अभी दूर है। परिवार में एक महीने पहले ही चर्चा शुरू हो गई है कि इस दिवस को कैसे अनूठा बनाया जाए। इस बार गायों को चारा और गुड़ खिलाकर मनाने का फ़ैसला हुआ है। शहर में भी देखा-देखी कई गौ आश्रम खुल गए हैं। जब से हमारे आयुर्वेदिक प्रचारक योग गुरु बाबा ने हर सौंदर्य प्रसाधन, खानपान, दवा-दारू में गाय का तड़का लगाया है, देश में गायों के प्रति प्रेम उच्च कोटि का जाग्रत हो गया है। गाय और गाय के सभी उत्पाद, जैसे गौमूत्र, दूध, दही, घी, योगर्ट, गोबर, पनीर—सब ५-स्टार रैंकिंग वाले शो रूम में सज गए हैं। देसी गाय की पहुँच अब देशवासियों के लिए अपनी औक़ात से बाहर की बात हो गई है। 

यूँ तो बचपन से ही गाय हमारे पाठ्यक्रम में थी। गाय पर निबंध से लेकर, बग़ल में भूरी काकी की काली गाय के गोबर से थापे उपले, होली पर बनी बालुडीयाँ, और सुबह-सुबह गाय के दूध के जमाए दही को बिलोकर निकाले जाने वाले मक्खन से बाजरे की रोटी चुपड़कर खाने तक, गाय से हमारा नाता जुड़ गया है। सुबह-सुबह गाय को रोटी देने का काम हम बच्चों से ही करवाया जाता। गाँव में गाय को दरवाज़े पर नहीं बुलाया जाता, बल्कि गाय को रोटी खिलाने के लिए जहाँ गाय बँधी होती थी, वहीं जाते थे। आजकल गायों ने शहर के परिवारों को आलसी बना दिया है और ख़ुद अपनी रोटी के जुगाड़ में घर-घर जाकर दरवाज़े की साँकल खटखटाती मिलती हैं। 

पंडित जी के कर्मकांडों की दक्षिणा स्वरूप गौदान जहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण दान होता था, उसकी जगह अब पंडित जी हाई-टेक सुविधा से दक्षिणा की राशि ‘यूपीआई’ से अपने मोबाइल में ट्रांसफ़र करवा लेते हैं। गायें पंडित जी के आँगन से निकलकर अब गौ आश्रम में हाँक दी गई हैं। मेरे जैसे लोग, जिन्हें अपना जन्म दिवस यादगार बनाना है, इन्हीं आश्रमों में जाकर गायों को घास चराने वाले हैं। साथ ही फोटो खींचकर फ़ेसबुक पर डालकर अपने गौ प्रेम की असीम झलक प्रदर्शित करने वाले हैं। 

बचपन में हमें दो ही माताएँ बताई गई थीं—एक, हमें चप्पलों से पीटकर संस्कार भरने वाली हमारी मम्मी, और दूसरी गाय माता। पिताजी भी दो हैं, यह भी बचपन में ही जान लिया। एक, हमारे खाल उधेड़ने की गाहे-बगाहे धमकी देने वाले पिताजी, और दूसरे, महात्मा गाँधी जी, जिन्हें हमारे स्कूल के मास्साब ने बेंत की सुताई से आख़िरकार रटा ही दिया था। 

लेकिन इसी बीच गायों के भाई, बाप, ख़सम स्वरूप बैल और साँड़ से भी बचपन से जुड़ाव रहा। पापा के मुँह से कभी-कभार हमें “बनिया का बैल ही रहेगा तू” सुनने को मिल जाता। उस समय हम नहीं समझते थे कि पापा का मतलब हमें बेकार, निकम्मा, निठल्ला साबित करने का था। बैल की दुर्दशा उस समय इतनी दिखती नहीं थी, जितना पापा हमें “बनिया का बैल” कहकर उसकी महिमा को कम आँकते थे। 

सुबह-सुबह गाँव की कच्ची सड़कों की गंडारों में बैल गाड़ी खींचने वाले ये बैल, किसान की चाबुक की मार और पूँछ मरोड़कर बैलगाड़ी को एक्सेलरेटर देने का काम करते। बैल के गले में बँधी घंटियों की मधुर आवाज़ सुबह-शाम गाँव की गलियाँ गुंजायमान्‌ करती। गाँव के बाहर खेतों में ये बैल हल में जुते जुताई करते, तेली के कोल्हू में तेल निकालते, धुनिया की रूई धुनते, और इक्के-दुक्के पक्के मकान बनाने में गारे-चूने के मिश्रण की चिनाई करते। 

धीरे-धीरे मशीनीकरण ने पैर पसार लिए। किसानों को मशीनों का चस्का लग गया। ट्रैक्टर आने लगे, बैलों के काम को मशीनें खा गईं। बैल निरीह प्राणी बनकर बेकार हो गए। विसंगति यह है कि जहाँ गाय हिंदू धर्म में पूजनीय है, वहीं बैलों के लिए किसी ने नहीं सोचा। अगर गाय को माता माना गया, तो बैल को भी छोटा-मोटा बाप बना दिया जाता, लेकिन इंसान है न, गधे को तो बाप बना सकता है, पर बैल को नहीं। 

आज ये बैल शहर की हर गली-मोहल्ले में दयनीय हालत में पड़े हैं। गौ आश्रम वाले गायों को पकड़-पकड़कर आश्रम में ढकेल रहे हैं। संस्था के सदस्यों को गाय और बैल में अंतर पहचानने की विशेष ट्रेनिंग दी गई है। कई बार कुछ नए, अतिउत्साहित सदस्य ग़लती से बैल को पकड़ लाते हैं। गौ आश्रम के चालक उन्हें बैलों को लौटाने का आदेश देते हैं, और ऐसे सदस्यों को संस्था से बाहर कर दिया जाता है। 

जहाँ स्टॉक मार्केट बुल और बेयर के भँवरजाल को कवरेज देता है, वहीं असल में जो वास्तविक बुल (बैल) सड़क पर पड़ा है, उसके लिए कोई कवरेज नहीं। स्कूल में बुलिंग किए जाने वाले बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाता है, लेकिन सड़क पर बुलिंग का शिकार होने वाले इस निरीह बैल पर किसी का ध्यान नहीं। अपनी दुर्दशा से पीड़ित यह बैल कभी-कभी साँड़ का उग्र रूप धारण करके सड़क पर कुंठापूर्वक लड़ते हैं। उस समय क्षणिक रूप से बाज़ार और शहर के नागरिकों का ध्यान उनकी ओर ज़रूर जाता है, लेकिन वह भी गाली-गलौज और उनके जीवन को धिक्कारने के रूप में ही मिलता है। 

बैल अपनी दुर्दशा पर आँसू बहाता हुआ शहर की गलियों, सड़कों और नालों पर पड़ा मिल जाएगा। शहर वाले सड़क और नाली की दुर्दशा पर आँसू बहाएँगे। न्यूज़-पेपर वाले नगर पालिका को गालियाँ देते नज़र आएँगे कि “फलां जगह साँड़ नाली में पड़ा हुआ तीन दिन हो गया, नालियाँ अवरुद्ध हो गईं, नालियों का पानी सड़क पर आ गया। नगर पालिका ने शहर की नालियों की सुध नहीं ली।” लेकिन कहीं भी यह शिकायत सुनने को नहीं मिलेगी कि “नगर पालिका ने साँड़ की सुध नहीं ली।”

नगर पालिका भी क्या करे! सरकार ने गायों के संरक्षण और संवर्धन के लिए तो विभिन्न मदों में बजट दे रखा है, लेकिन इन साँड़ों के लिए कोई बजट है ही नहीं। तो ख़र्च कैसे करें? साँड़ों के लिए न कोई यूनियन है, न चुनावी वादों में इनका नाम लिया जाता है। कई बार नेताओं की रैली में ये घुसकर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करते हैं, लेकिन नेताजी इसे रैली की सुरक्षा व्यवस्था में हुई लापरवाही बताते हुए विरोधी पार्टी की मिलीभगत पर ठीकरा फोड़ देते हैं और इसे एक और चुनावी मुद्दा बना लेते हैं। 

बरसात में जब ज़मीन गीली हो जाती है, तो ये साँड़ सूखी ज़मीन की तलाश में बीच सड़क पर आश्रय लेने लगते हैं। लोग अपने वाहनों की चिल्लपों मचाते हुए, इनके अज्ञात मालिकों को गालियाँ देते हुए निकल जाते हैं। बेचारे साँड़ करें भी तो क्या? इनकी यही कुंठा कई बार उन्हें रोटी खिलाने वाले धर्मप्रेमी बुज़ुर्गों और महिलाओं पर भी निकल जाती है। 

कारण? हर कोई अपनी-अपनी नज़र से बताएगा। कुछ दबी ज़ुबान में यह भी कहते हैं कि “हड्डी जोड़ने वाले डॉक्टरों ने इन्हें ख़ासतौर पर सब्ज़ी मंडियों में छोड़ रखा है, ताकि ये हमारे लिए मरीज़ निर्माण करें।” ख़ैर, जितने मुँह उतनी बातें। लेकिन वजह साफ़ है। जो भी रोटी खिलाने जाता है, वह आशा करता है कि गाय को खिलाएगा। जब गाय नहीं मिलती, तो मजबूरी में साँड़ को खिलानी पड़ती है, और शायद यही बात उन्हें पसंद नहीं। 

जलीकट्टू जैसे पारंपरिक त्योहारों की मान्यता एक बार कोर्ट द्वारा रद्द किए जाने पर काफ़ी बवाल मचा। व्हाट्सएप ने जमकर ज्ञान फ़ॉरवर्ड किया। ट्विटर ने अपनी चहचहाहट से माहौल गर्माया। फ़ेसबुक और यूट्यूब पर वीडियो की बाढ़ आ गई। लेकिन कुछ दिनों बाद जनता यह भूल गई कि आख़िर लड़ाई किसके लिए लड़ी जा रही थी। इंसान बुल फ़ाइट के ज़रिए अपनी ईगो की भूख शांत करने की फ़िराक़ में है और इसमें ख़ुश है। बुल को अपनी लड़ाई ख़ुद लड़नी होगी। 

अब मुझे बस एक ही आसरा लगता है—उन कथा वाचकों का, जो आजकल समाज सुधारक, मोटिवेटर और प्रेरक का काम सँभाले हुए हैं। इनके एक इशारे पर जनता दिन को रात कर देती है। अगर ये इनकी सुध लें और बुल की असलियत को उजागर करें—जो कि पुराणों में अच्छे से वर्णित है, जहाँ यह नंदी, भगवान शिव की सवारी है—तो इसे सार्वजनिक रूप से “नंदी” नाम से पुकारा जाए। कोई इसे बैल या साँड़ नहीं कहेगा। मुझे लगता है कि धार्मिक प्रवृत्ति के लोग भगवान शिव की इस सवारी को फिर नज़रअंदाज़ नहीं करेंगे। इनके लिए भी “नंदी आश्रम” खुलने लगेंगे। 

कम से कम इन कथावाचकों से अनुरोध है कि इस मामले की गंभीरता को पहचानें और अपने चढ़ावे में से कुछ अंश इन नंदियों के कल्याणार्थ अलग रखकर एक अच्छी शुरूआत करें। 

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