दिव्यांग आम

डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’ (अंक: 254, जून प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

“आम का एक प्रकार है लँगड़ा आम। जब सरकार ने ही लँगड़ा शब्द को डिक्शनरी हटाकर दिव्यांग शब्द जोड़ दिया, तो फिर आम को भला लँगड़ा कैसे पुकार सकते हैं? यह तो सरासर उसके साथ अन्याय है। इसलिए मैंने दिव्यांग आम कहना शुरू कर दिया है। क्या पता कब मेरे लँगड़ा आम कहने पर आम भड़क जाए और मुझ पर जाती सूचक अपमानित शब्दों से संबोधित करने के एवज़ में मेरे ख़िलाफ़ ग़ैर जमानती वारंट निकलवा दे; वैसे भी सरकार भी तो आम की ही सुनती है। मुझे मालूम है, मेरे ख़िलाफ़ गवाही देने के लिए आम के साथ सारी आवाम खड़ी है, क्योंकि मुझे आम में शामिल नहीं किया गया।” 

सुबह-सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अख़बार की आम ख़बरें गटक रहा था। अख़बार में ख़ास कुछ नहीं था, रोज़मर्रा की लूटमार, डकैती और प्राकृतिक आपदाओं के रिकॉर्ड, चुनावी सरगर्मी की बासी ख़बरें, गर्मी के तीखे तेवर और लू से मरने वालों की मौत के आँकड़े। सब इतनी आम ख़बरें हैं कि निगाहें किसी एक ख़बर पर रुकती ही नहीं है, लेकिन ये चंचल निगाहें एक ख़बर पर टिक ही गयीं। ये आम ख़बर नहीं, लेकिन आम के बारे में थी! जी हाँ, आम फलों के राजा के बारे में। 

बात ये थी कि कोई आम जो इतना ख़ास था कि वह एक लाख रुपए किलो बिक रहा था! वही आम जो हमारे बचपन में आम की टोकरियों से सिमटकर अब प्लास्टिक की थैलियों में आधा एक किलो तक आ गया है। लेकिन चूँकि आम के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है, चाहे वह आम आदमियों में हो या फलों में, ख़ासकर जब से आम आदमी सत्ता सँभालने लगा है, आलीशान महल में रहने लगा है, घोटालों की फ़ेहरिस्त से अपने और आने वाली सात पीढ़ियों के भाग्य चमका रहा है, तब से तो कुछ ज़्यादा आम आदमी सबकी नज़रों का तारा बना हुआ है—ज़्यादा मुश्किल भी नहीं है—शर्ट के ऊपर के दो बटन खुले कर लो, एक गाँधी टोपी, गले में मफ़लर, शर्ट का एक कोना पैंट से बहार निकला हुआ और पैरों में चप्पल . . . बस आप आ गए आम आदमी की श्रेणी में! कुछ रेबड़ी दाता की जयकार कर रहे है, फ़्री की बँटी रेबड़ियों का हक़ जो अदा कर रहे हैं। भाई आम ही तो है जो अगर आदमी के आगे लग जाए तो कब आपके भाग्य खुल जाए पता नहीं चले। कब शीशमहल में लाखों के रिमोट वाले परदे लग जाएँ, बाथरूम में रिमोट वाले फ़्लश, सोच कर ही मुझे तो इस आम आदमी की दिन दूनी रात चोगुनी ऊपरी आमदनी से ईर्ष्या सी होने लगी है! 

अब ग़रीब कोई नहीं है, अमीर कोई नहीं है, आप या तो आम हैं या ख़ास। लेकिन अब ख़ास ने भी आम से दोस्ती कर ली है और दोनों के संगम से आम और ख़ास की खाई पट गई है। आम भी ख़ास हो गया है! 

इस महँगाई के ज़माने में वैसे भी आम बेहद ख़ास हो गए हैं। हमारे बचपन के वो दिन लद गए जब आम की अमियों से लदे पड़े पेड़ों के झुरमुट गाँव के आँगनों में, बग़ीचों में और रास्ते के दोनों ओर मिलते थे ओर इन आम के झुरमुटों से सूरज भी अपना रास्ता, गाँवों के रास्ते तक नहीं बना पाता था। वहीं गुल्लक कांकड़ी खेलते, ख़ूब मिट्टी के ढेलों से अमिया तोड़ी हैं, कच्चे आम नमक मिर्ची के चटकारे के साथ खाए हैं। बग़ीचे के माली की डाँट-फटकार और डंडे की मार से भागे फिर छुपम-छुपाई खेलते, वो जो कच्चे आम खाने का मज़ा था वो आजकल सब्ज़ी मंडी में नई नवेली दुलहन की तरह सोलह शृंगार किए सजे-धजे हुए आमों में कहाँ! 

बेशक हमारे पास लग्ज़री को ख़रीदने के लिए पैसे आ गए, लेकिन जो मिठास उन चुराए हुए आमों में थी वो इन ख़रीदे हुए आमों में कोसों दूर है। कहते हैं ना ‘आम के आम गुठलियों के दाम’। हम गुठलियों को भी ऐसे ही नहीं फेंकते थे, उन्हें बड़े जतन से घर के आँगन में गाड़ देते थे, पानी देते थे, कुछ दिनों बाद बरसात में आम का छोटा-सा पौधा निकल आता था। और तो और कई बार गुठलियों के हार्ड कवर को हटाकर उसमें से पल्प यानी गूदे जैसी गुठली को निकालते, उसे ईंट पर रगड़ कर उसका बाजा बना लेते थे और दिन भर उसमें फूँक मारते रहते थे। यूँ तो आम की इतनी वैरायटी है, लगभग 1500 प्रकार की, लेकिन जो देसी पिलपिले आम (हमारे ज़माने में पहले हाथों से मसलकर पिलपिला कर के चूसकर खाए जाते थे) वो मज़ा आजकल के सफेदा और कलमी आमों को काटकर खाने में नहीं! वो ज़माना था जब आम की पूरी टोकरी आती थी, घर में ही नहीं महल्लों में भी आम बाँटे जाते थे। आम का रस बनाया जाता था, सभी आमों को मिट्टी के बरतन में पानी भर कर डाल देते थे, ठंडा करके फिर उसका आम रस बनाते थे। 

शाम को घर की छत को पानी के छिड़काव से ठंडी करके, वहाँ सभी घरवाले एक साथ बैठकर रोटी और आम रस की छाक लेते थे। वह जो दावत थी उसके सामने आजकल के 56 व्यंजनों से सजी शाही दावत भी बेकार लगती है। आम पाना भी पूरी गर्मी चलता था। गर्मियों में ठंडा पेय आम पाना सभी प्रकार की पेट संबंधी समस्याओं का भी एक रामबाण इलाज था! और फिर आम का अचार और मुरब्बा! वो डिब्बा बंद नहीं, घर पर माँ के हाथों का बनाया हुआ, जो बनता तो गर्मियों में लेकिन पूरा साल चलता था, और बहिन बेटियों की ससुराल में, पड़ोसियों को सभी जगह भिजवाया जाता था! आजकल तो रिश्ते भी तो ख़ास नहीं होकर आम हो गए हैं, जो बस सोशल मीडिया के एक सन्देश और डिजिटल कार्ड तक सीमित रह गए हैं। जाने कहाँ गए वो दिन जब किसी शादी ब्याह फ़ंक्शन में निमंत्रण देने के लिए घर जाते थे, निमंत्रण पत्र के साथ सब्ज़ी के रूप में आम की टोकरी जाती थी। मामा, मौसी बुआ, नानी के घर पर आने का मतलब कि बस ख़ूब आम खाने को मिलेंगे, और गुठलियों से आम के पेड़ लगाने को। 

गर्मियों का मौसम है, इस बार की गर्मी तो वैसे ही सारे रिकॉर्ड तोड़ गई है। आजकल भ्रष्टाचार, डकैती, बलात्कार, महँगाई, स्कैंडलों के आँकड़े रिकॉर्ड तो रोज़ टूट ही रहे हैं। लेकिन प्राकृतिक आपदाओं ने भी इस रिकॉर्ड ब्रेकिंग प्रतियोगिता में अपनी भागीदारी निभाना शुरू कर दिया है। चुनावी गर्मी को और आग देता हुआ तपता सूरज, आम आदमी की मेहनत के पसीने की बूँदों को शरीर पर आने से पहले ही सुखा रहा है। 

लेकिन आम शब्द को जो इज़्ज़त आदमी के आगे लगने से मिलती है, उतनी उसे कहीं और लगने में नहीं मिलती। बल्कि कहीं और लगे तो उसे दो कौड़ी का, ध्यान नहीं देने योग्य बना देता है। वह चाहे आम चुनाव हो, आमराय, आमजन या आमसभा। लेकिन आम से पूछो कि आपके नाम के कॉपीराइट का इस प्रकार से सार्वजनिक ज़िल्लत उसे पसंद है या नहीं? अब देखो न, आम का एक प्रकार है लँगड़ा आम। जब सरकार ने लँगड़ा शब्द को डिक्शनरी से हटाकर दिव्यांग शब्द जोड़ दिया, तो फिर आम को भला लँगड़ा कैसे पुकार सकते हैं? यह तो सरासर उसके साथ अन्याय है! इसलिए मैंने दिव्यांग आम कहना शुरू कर दिया है। क्या पता कब मेरे लँगड़ा आम कहने पर आम भड़क जाए और मुझ पर जाति सूचक अपमानित शब्दों से संबोधित करने की एवज़ में मेरे ख़िलाफ़ ग़ैर जमानती वारंट निकलवा दे। वैसे भी सरकार भी तो आम की ही सुनती है! मुझे मालूम है, मेरे ख़िलाफ़ गवाही देने के लिए आम के साथ सारी आवाम खड़ी है, क्योंकि मुझे आम में शामिल नहीं किया गया। हम जैसों को जो न ख़ास बन पाए न आम, सिर्फ़ माध्यम वर्गीय क्लास की पट्टी गले में टाँगे, दिन-रात बिजली के बिल जमा कराने की लाइन में लगे हुए, दफ़्तरों में, बैंकों में लोन की ई एमआई की किश्त भरने के लिए चप्पल घिसते हुए, बॉस की डाँट-फटकार और घर में बीबी की तकरार के बीच जैसे तैसे अपनी गृहस्थी की गाड़ी घसीट रहे हैं! अब सरकार भी हमें इस लोकतंत्र की तलछट की तरह मानती है। सही मायने में जो लोकतंत्र के मंथन से निकला मक्खन है वो तो आम आदमी है, जिसके लिए सरकार स्कीमें बनाती है, योजनायें बनाती है और बजट की बंदर-बाँट होती है। ये अलग बात है कि धीरे-धीरे आम आदमी का तमगा मिलना अब मुश्किल होता जा रहा है। स्कीम भी अब रुसूख़दार लोगों को ही आवंटित होगी। यानी की आपको अब ख़ास आम आदि बनाना पड़ेगा! किसी नेता जी का ख़ास, सरपंच का ख़ास या सरकारी बाबू का ख़ास! जनधन योजना, आयुष्मान योजना या खाद्य सुरक्षा में नाम जुड़वाना अब हर किसी के बस की बात नहीं है। आपके ग़रीब होने का सबूत देते-देते आपकी एड़ियाँ घिस जाएँगी। मुझे मालूम है चप्पलें तो वैसे भी ग़रीब के पैर में होती नहीं! देखता हूँ OPD में रोज़ ऐसे कई मरीज़, निहायत ही ग़रीब! जिनके घर पे दो वक़्त का चूल्हा जल जाए, ये बहुत ही बड़ी बात होगी, लेकिन सरकार के द्वारा चलाए जाने वाली स्कीमों की पहुँच से बहुत दूर, अपना जनाधार कार्ड नहीं बनवा पाए, खाद्य सुरक्षा में नाम नहीं लिखवा पाए! 

यूँ तो ‘आम’ शब्द ख़ुद अपने आप में थोड़ा नॉन-वीआईपी की श्रेणी वाला फ़ुटपाथ पर सोने वाले मज़दूर की तरह लगता है जिसे कब कोई ख़ास बिगड़ैल नशे के धुत्त में अपनी गाड़ी से रौंद जाए पता ही नहीं चले। लेकिन जिस मधुशाला की रसधारा समेटे हुए फल सम्राट की नाम प्लेट से ये शब्द उधार में लेकर इसकी छीजत की है, वो “आम” फलों का राजा अपने आप में ख़ास है। 

अब तो आम इतना ख़ास हो गया है कि सरकार ने भी ख़ास पहुँच वाले रुसूख़दार लोगों के घरों के बग़ीचों में आम के पेड़ों की रखवाली के लिए पुलिस के गार्ड नियुक्त कर दिए हैं। आम पर पहले भी बस बादशाहों का, राजा-महाराजाओं का ही हक़ होता था। जनता की पहुँच से दूर, सिर्फ़ रनिवास में ही आम का रसास्वादन नसीब था। 

मिर्ज़ा असद उल्लाह खान ग़ालिब तो आम के प्रसिद्ध रसिक शायर के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने आमों की तारीफ़ में लिखा है, “बारे आमों का कुछ बयाँ हो जाए, खामा नख्ले-रतब फिशां हो जाए।” उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि आम के पेड़ का साया ख़ुदा के साए की तरह है–“साया इसका हुमां का साया है, ख़ल्क़ पर वो ख़ुदा का साया है।” 

ग़ालिब का तो क़िस्सा है कि एक बार बादशाह सलामत ने उन्हें उनके बाग़ में आमों को घूरते हुए देख लिया, उन्होंने एतराज़ किया, तो ग़ालिब बोले, “हुज़ूर देख रहा हूँ, अगर किसी आम पर हमारा भी नाम लिखा हो।” बादशाह ख़ुश हुए और उस दिन से रोज़ उन्हें एक टोकरी आम भेजने लगे। आम के बड़े शौक़ीन ग़ालिब की इस आदत से उनके साथियों को जलन भी बहुत होती थी। 

एक बार की बात है, उनकी फल की टोकरी से एक आम नीचे गिर गया। एक गधे ने आम को मुँह लगाया और बिना खाए आगे बढ़ लिया। उनके साथी ने चुटकी ली, “देखो ग़ालिब साहब, आम तो गधा भी नहीं खा रहा!” 

ग़ालिब तपाक से बोले, “गधा है ना, इसलिए नहीं खा रहा।” 

चलते चलते अकबर इलाहाबादी का शेर याद आ गया ‘नाम न कोई यार को पैग़ाम भेजिए, इस फ़स्ल में जो भेजिए, बस आम भेजिए। 

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