चूहामुखी विकास 

15-09-2024

चूहामुखी विकास 

डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’ (अंक: 261, सितम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

कुछ स्मृतियाँ भुलाए नहीं भूलतीं। एक बार बेटे के स्कूल का वार्षिक समारोह था। शहर के प्रथम मिशनरी स्कूल का वार्षिक समारोह। मिशनरी स्कूल है तो ज़ाहिर है, उनकी मुख्य संस्था के इम्पोर्टेड पादरी भी आए हुए थे। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि को बताया गया कि शहर के बच्चे और उनके पेरेंट्स ज़्यादातर हिंदी भाषी हैं तो आपको हिंदी में ही भाषण देना है। उनकी विवशता साफ़ झलक रही थी, लग रहा था जैसे सोनिया गाँधी जी अपना पहला हिंदी भाषण दे रही हों। बिलकुल ऐसे ही जैसे ‘थ्री इडियट्स’ में चतुर का भाषण चल रहा हो। कई शब्द उन्होंने ईजाद किए, हालाँकि ‘चमत्कार को बलात्कार’ तो नहीं बोला, ‘स्थान को स्तन’ तो नहीं बोला। कई हिंदी के नए शब्द उनके द्वारा गढ़े गए, कुछ मुझे अभी तक याद रहे। 

उन्हें में से एक शब्द था—‘चूहामुखी’ वास्तव में वो कहना चाह रहे थे स्कूल के चहुँमुखी विकास की बात, लेकिन उनके मुँह से निकल ‘चूहामुखी विकास’। ख़ैर उस समय तो मैं भी उनके भाषण पर थोड़ा हँस लिया, बस बात आई गई हो गई। लेकिन आज अचानक मुझे याद आया, जब गणेश चतुर्थी नज़दीक आ रही थी, गणेश जी का संस्मरण आते ही उनकी सवारी चूहा राजा ज़रूर याद आता है। 

और फिर ये शब्द ‘चूहामुखी विकास’ एक दम मेरा दिमाग़ कौंधा—पादरी जी सही तो कह रहे थे, ये कालजयी शब्द बहुत पहले अनायास ही उनके द्वारा गढ़ लिया गया था। आज लोकतंत्र में विकास ‘चूहामुखी’ ही तो हो रहा है, चूहों को ध्यान में रखकर किया जाने वाला विकास। 

यूँ तो कौन चूहा है, कौन आदमी है, कहना बड़ा मुश्किल है। आदमी चूहा बन सकता है, पर चूहा आदमी नहीं बन सकता। और हाँ, पति बिरादरी के लोग तो अपनी चूहागिरी की दर्द-ए-दास्तान सुनाते मिल ही जाएँगे, ‘ये चूहा भी ना कभी शेर था’ कहते हुए, लेकिन मुझे लगता नहीं आदमी को कभी शेर बनने का मौक़ा मिला हो। वो कुत्ता बन सकता है, गधा, भेड़िया, सियार, कीड़ा, मकौड़ा सब बन सकता है, लेकिन शेर नहीं बन सकता। हाँ, वक़्त आने पर शेर जैसा महसूस कर सकता है, ‘अपने मुँह मियाँ शेर बन सकता है।’

अब देश में चूहे देखो न कहाँ-कहाँ नहीं घुस आए, पूरा लोकतंत्र कुतर के रख दिया है। लोकतंत्र के चारों पिल्लर कुतरे जा रहे हैं। जगह-जगह बिल बना दिए हैं। गड्ढे ही गड्ढे। और इन गड्ढों में लोकतंत्र की खटारा गाड़ी बस धिचकोले खाते घिसट रही है। और पिल्लर, आपको पता ही है, जहाँ भी पिल्लर होते हैं, वहाँ कुत्ते अपना अधिकार जमा लेते हैं, इस ग़लत फहमी के साथ कि ये उनके लिए खड़े किये हैं। 

अब इन चूहों की कारिस्तानी आप सभी को पता है। इन्हें आपके घर में रहने के लिए परमिशन नहीं माँगनी पड़ती। कोई पहचान पत्र नहीं दिखाना पड़ता। ये कब आपके घर में बिल बना लें पता ही नहीं चलेगा। ये अपने खाने का इंतज़ाम कर ही लेंगे। मान न मान तेरा मेहमान की तर्ज़ पर, अपने हिस्से का खाना टैक्स के रूप में कुतर-कुतर कर ले जाएँगे, बिल में रखेंगे, आपको पता ही नहीं चलेगा। आपको लगेगा की कुछ ही तो कुतरा है, बाक़ी अपने लिए है, लेकिन कब इनका कुनबा बढ़ जाए आपको पता ही नहीं लगेगा, पता लगा कि जो बचा है वो भी खाने लायक़ नहीं रहा, सड़ गया, चूहों की मेंगनी भरी पड़ी है। 

आप शिकायत करेंगे, चूहों से परेशानी है, फिर चूहे-दानी आप से खरीदवाएँगे। चूहे भी सरकार के, चूहेदानी भी सरकार की। चूहेदानी रखवा दी जाएगी। चूहों को पिंजरे में बंद करेंगे, आपको लगेगा कि समस्या का हल हो गया। लेकिन चूहा पकड़ कर आपके पड़ोस में डाल देंगे, दो दिन बाद चूहा वापस आपके घर में। चूहे अपने पाँव जमा चुके हैं, ये घर छोड़ने वाले नहीं है। आप समझ रहे हैं कि आप घर के मालिक हैं, नहीं आप घर के मालिक हैं, लेकिन इन्होंने बिल खोद कर घर की नींव खोखली कर दी है, कब इमारत गिर जाए, कुछ पता नहीं। चूहों का क्या है, आपका घर गिरा तो फिर आपके पड़ोसी के घर चले जाएँगे। बस अब तो पिंजरे पड़े कबाड़ हो रहे हैं। 

आपको चूहों को मारने की दवा बताएँगे। आप दवा ख़रीदेंगे, दवा घर में रखी चूहों को मारने के काम नहीं आ रही है, वह उधर आदमियों को मारने के काम आ रही है। दूकान वाला अगर दवा दे भी देगा, उधर चूहों को इत्तिला कर देता है “होशियार रहना, आज शर्मा का बच्चा दवाई लेकर गया है, आज उपवास रखना।” आप इन्हें मारना भी चाहेंगे तो पहली बार तो मरेंगे नहीं, अगर ख़ुदा ना ख़स्ता कोई मर भी गया तो मर कर भी आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे। ऐसी सड़ाँध मारेंगे कि आप अगली बार भूल जाएँगे इन्हें मारना। 

बस चूहा पकड़ा-पकड़ी का खेल चल रहा है। चूहे अब समझदार हो गए हैं, बिल्लियाँ से भी गठबंधन कर लिया है। बिल्ली अब चूहे नहीं खाती, उसका १०० चूहे का टारगेट कभी का पूरा हो चुका है, उसे तो अब हज को जाना है। उसने अपनी मर्ज़ी से चूहों से घंटी बँधवा ली है। साथ में माला कंठी भी। बिल्लियों को भी तो चुनाव लड़ना है आख़िर। चूहे बिल्लियों के चुनाव प्रचारक हो गए हैं। 

बिल्लियों ने चूहों का हाथ पकड़ कर कर अनाउंस कर दिया है कि चूहे अब बहादुर हो गए हैं। 

कुत्ता आपकी रोटी खाएगा तो बजाएगा भी, वफ़ादारी निभाएगा, अपनी पूँछ हिलाएगा, अपनी कुत्तागिरी का नमूना आने जाने वालों पर भौंककर दिखाएगा। आपने अगर उसे पाला भी है तो भी बाहर बरामदे में उसका निवास रहेगा। चूहा इन बातों का मोहताज नहीं, वो घर के अंदर ही बिल बनाएगा, वहीं रहेगा। वो सिर्फ़ खायेगा, बजाएगा तो बिल्ली की ही। 

उसे सिर्फ़ खाना आता है, वफ़ादारी क्या बला है उसे नहीं पता। 

कुछ चूहे हैं जो दीवारें फाँदकर नहीं, नीचे नींव में बिल बनाकर बॉर्डर पार से भी घुस आए हैं। यहाँ बिल बना कर रह रहे हैं। ज़मीन के अंदर। बाहर कुछ नहीं दिखता। लेकिन अंदर ही अंदर ज़मीनें खोखली कर रहे हैं, पार्टियाँ इन्हें पाल पोस रही हैं। 

इन्हें पूजा जा रहा है। भोग लगाया जा रहा है। इनको नागरिकता दी जा रही है। देश के सच्चे नागरिक घोषित किया जा रहा है। इन्होंने अपनी पॉपुलेशन बढ़ा ली है। ये सिर्फ़ खाते नहीं है, बदले में वोट की मेंगनी भी निकालते हैं, इस वोट की मेंगनी की खाद से नताओं की राजनीति की फ़सल लहलहा उठी है। 

सरकारें भी चूहों के पालने पर ज़ोर दे रही हैं। मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए ख़ासकर बैंक लोन वाले फ़ाइनेंस कंपनियाँ, सेल, डिस्काउंट, ऑफ़र, एक के ऊपर एक फ़्री के नाम पर नए नए चूहे ऑफ़र हो रहे हैं। बाद में वो धीरे-धीरे अपकी आमदनी को कुतरेंगे। टैक्स वाला चूहा परमानेंट बैठा ही दिया है। परिवार बढ़ा लिया है। सरप्लस टैक्स, इनकम टैक्स, हाउस टैक्स, रोड टैक्स, अलाना टैक्स, फ़लाना टैक्स, देखते ही देखते टैक्स चूहे का कुनबा बढ़ गया। थोड़े दिनों में साँस लेने का टैक्स, हवा और पानी का टैक्स, सोचने का टैक्स ये, चूहे भी गर्भधारण कर चुके हैं, जल्दी ही डिलीवर हो जाएँ। सरकारी दफ़्तरों में बड़े-बड़े चूहे मुस्तैद से कुर्सी पर धँसे हुए, फ़ाइलों के ढेर को कुतर रहे हैं। उन्हें कुछ और आप खाने को देंगे तो आपकी फ़ाइल बची रह जायेगी वरना फ़ाइल का कुतरना निश्चित है। 

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