प्लास्टर वाली टाँग

01-12-2024

प्लास्टर वाली टाँग

डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’ (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

आप चाहते हैं कि आप हमेशा दुनिया की नज़रों में बने रहें, सबकी निगाहें आप पर टिकी रहें। जिस गली से गुज़रें, लोग आपको देखकर रुक जाएँ, हाल-चाल पूछें, आपको याद करें। बस, आप आ जाइए हमारे पास, लगवा लीजिए एक प्लास्टर . . . सच में, हर जगह आपकी पूछ होगी। जो आपको जानते हैं, जो नहीं जानते, सब आपको रास्ते में रोक सकते हैं। अगर आपके हाथ में प्लास्टर लगा हुआ है, तो आप इस शहर के लिए एक चलता-फिरता अजूबा बन सकते हैं। लोग आपको ऐसे देखने लगेंगे जैसे चिड़ियाघर से कोई प्राणी सड़क पर आ गया हो। 

और अगर आपकी टाँग में प्लास्टर लगा हुआ है और आप घर में क़ैद हैं, तो लोग आपके घर तक भी आ सकते हैं। पुराने दोस्त, रिश्तेदार, महल्ले वाले, जो कभी आपका हाल तक नहीं पूछते, वे भी बिना रोक-टोक आपके दरवाज़े पर आ जाएँगे। क़सम से, रातों-रात आपको लगेगा कि पूरी दुनिया आपकी टाँग की चिंता में कितनी बेचैन हो गई है। आपने भले ही कभी किसी के काम में टाँग न फँसाई हो, पर जब आपकी टाँग टूटेगी, तो लोग आपकी टाँग का हाल जानने दौड़े चले आएँगे। इतनी हसरत से आपकी टाँग को देखेंगे जैसे उन्हें लग रहा हो कि यह अवसर उनको क्यों नहीं मिला, काश उनके भी प्लास्टर लगा होता . . . आज उनके घर पर भी पूछने वालों का जमावड़ा लगा होता। 

शर्मा जी के कान दरवाज़े पर लगी कॉल बेल पर हैं। जैसे ही कॉल बेल बजती है, शर्मा जी अपनी टाँग को तकिये पर रख देते हैं। सामने वाले को, जिस पर शोक प्रकट करना है, वह सामने रहेगी तो आने वाले को धक्का-सा नहीं लगेगा कि यार प्लास्टर वाली टाँग कहाँ है, कहीं हम ठगा तो नहीं गए, ख़बर तो पक्की है न? कहीं हमारे समाचार लेने से पहले ही प्लास्टर कट गया हो . . . दस वहम जी . . . मुख पर दुःख और वेदना के भाव ले आते हैं, चेहरा थोड़ा लटका लेते हैं। इधर, श्रीमती जी किचन में चाय का पानी चढ़ा देती हैं, बेटा बाहर दूध की थैली और चाय की पत्ती लेने को भागता है। 

प्लास्टर वाली टाँग तकिये पर रखी है। लोग आ रहे हैं . . . मातमपुरसी का पूरा माहौल है। आहें भरी जा रही हैं, टाँग को पकड़-पकड़ कर हिलाकर देखा जा रहा है, “ज़िन्दा है न?” शर्मा जी को थोड़ी उँगली चलाने को कहा जाता है। शर्मा जी उँगली चलाते हैं, “हाँ . . . ठीक है,” मन को तसल्ली। टाँग ज़िन्दा है। 

डॉक्टर ने भी कहा है, हर एक घंटे में उँगली चलाते रहें, तसल्ली रहेगी कि टाँग ज़िन्दा है। 

क्या शर्मा जी, क्या मिश्रा जी, क्या गुप्ता जी—जिनकी टाँग टूटी है और प्लास्टर लगा है, सबकी एक ही राम कहानी है। अब आप तैयार हो जाइए, इस पूरी कहानी के भूत, भविष्य और वर्तमान को सुनाने के लिए। कोई भी बात छूटनी नहीं चाहिए। सबसे पहले तो यह बताएँ कि चोट कैसे लगी, कितना दर्द हुआ, आवाज़ आई थी क्या टाँग टूटने की? जब टाँग टूटी, कैसा महसूस हुआ—अच्छा या बुरा? अब कैसा महसूस हो रहा है? 

फिर समाचार लेने वाला कोशिश करेगा आपको सांत्वना देने की, “अरे भाई साहब, आपकी क्या टाँग टूटी है पिद्दी सी . . .! ये भी कोई टाँग टूटना होता है? टाँग तो हमारे साले साहब की टूटी थी . . . भाई साहब, कैसी टाँग टूटी थी उनकी, सच में!”

शर्मा जी सोचेंगे कि कितनों को सुना चुके हैं, अब क्या सुनाएँ बार-बार वही कहानी। यह भी कोई बात हुई . . . जो साहब समाचार लेने आए हैं, उन्हें तो सुनाना ही पड़ेगा, वरना वे ही आपको सुना देंगे, “बताइए, हम समाचार लेने आए और इन्हें इतनी भी तमीज़ नहीं कि हमें बता दें कि हुआ कैसे?” घटनास्थल का आँखों-देखा हाल तो आपको ही बताना पड़ेगा। या तो एक कैसेट रिकॉर्ड कर लीजिए और प्ले कर दीजिए या अपनी कहानी किसी नौकर को रटा दीजिए और उसे इस काम पर लगा दीजिए। 

समाचार लेने वाला व्यक्ति अपनी सांत्वना देने से पहले पूरी घटना की गंभीरता के अनुसार अपनी सांत्वना की पोटली खोलेगा। फिर आपको कुछ सबूत भी पेश करने पड़ेंगे कि वास्तव में टाँग टूटी है या यूँ ही मज़ाक़ कर रहे हैं, क्या पता आपका . . . नक़ली प्लास्टर लगाकर बैठे हों। अब सबूत में आप डॉक्टर की पर्ची, एक्स-रे फ़िल्म, प्लास्टर का बिल, या फिर टूटने के समय की कोई वीडियो रिकॉर्डिंग, या टूटने की आवाज़ की ऑडियो रिकॉर्डिंग, या कोई चश्मदीद गवाह प्रस्तुत कर सकते हैं। अब यह साबित तो आपको ही करना पड़ेगा न, आख़िर टाँग भी तो आपकी ही टूटी है। 

कई समाचार लेने वाले निराश भी होंगे . . . “अरे क्या शर्मा साहब, हम समाचार लेने आये हैं यह सोचकर की कोई ढंग की टाँग टूटी होगी . . . ये क्या मामूली सा फ्रैक्चर . . . बताओ काम-धाम छोड़कर एक तो इनके समाचार लेने आओ, और एक ये हैं महाशय हैं की, ढंग से टाँग भी नहीं तुड़वाते।”

शर्मा जी ग्लानि से मरे जा रहे हैं . . .‘अगली बार शिकायत का मौक़ा नहीं देंगे’ ऐसा प्रण लिए हैं। 

“शर्मा साहब, आप तो इतने सँभलकर चलते हैं, गाड़ी भी धीरे चलाते हैं, कई बार देखा हमने।” ऐसे लोग तो शर्मा जी से जलन रखते हैं कि ‘शर्मा साहब इतना धीरे क्यों चलते हैं, कभी टाँग-वांग क्यों नहीं तुड़वाते ताकि हमें भी समाचार लेने का मौक़ा मिले।’ बहुत दिनों से सोच रहे थे कि शर्मा जी से मिलने का मौक़ा कब मिलेगा, असल में उन्हें अपने बेटे की नई जॉइनिंग के बारे में सलाह लेनी थी। और देखो, आज मौक़ा मिल गया। एक पंथ दो काज। 

शर्मा जी शुरू करते हैं, लेकिन समाचार लेने वालों का ध्यान नाश्ते में परोसे गए समोसों पर चला जाता है। सोचते हैं, ‘सुनाएँ या नहीं?’ लेकिन मन को तसल्ली देते हैं, ‘अरे समोसे तो मुँह से खा रहे हैं न, कान थोड़े ही व्यस्त हैं, सुन तो रहे हैं न।’

लो, उन्होंने समोसा आधा ख़त्म करके प्लेट में रख दिया, अब पूछ भी रहे हैं, “तो शर्मा जी, कैसे हुआ एक्सीडेंट?” 

शर्मा जी कहने वाले होते हैं, “बहुत दिनों से टाँग में खुजली चल रही थी, एक्सीडेंट से मिलने की खुजली। रोज़ाना रास्ते में एक्सीडेंट मिलता . . . पूछता ‘शर्मा जी अब तो हो जाने दो न . . . देखो आपकी टाँग भी मिलना चाह रही है मुझ से . . .’ फिर एक दिन, तरस खाकर मैंने कह दिया—हो जाओ भाई। बस हो गया।”

जब वे आएँगे और प्लास्टर को देखेंगे तो कहेंगे, “अरे शर्मा जी, कितने दिन का कहा है डॉक्टर ने?” 

आप कहेंगे, “जी, 20 दिन का।” 

तुरंत कोई बोलेगा, “नहीं-नहीं, कम से कम 6 हफ़्ते रखवाइए शर्मा जी। डॉक्टर को कहिए, 20 दिन के बाद और 20 दिन बढ़ा दे। अब टाँग बार-बार तो टूटती नहीं, आराम दीजिए टाँग को।”

कुछ लोग सलाह देंगे, “यार, आपको डॉ. रस्तोगी को दिखाना चाहिए था, वो सही में टाँग जोड़ते हैं। हमारे साले साहब की टाँग जोड़ दी थी और जुड़ने के बाद लगा ही नहीं कि पहले टूटी थी।” स्साला एक्सीडेंट भी कन्फुज . . . यार ये टाँग अभी तक टूटी क्यों नहीं . . . नया माल लग रहा है बिलकुल . . . फ़्रेश। 

शर्मा जी सोचेंगे, “अगली बार जब टूटेगी तो डॉ. रस्तोगी को भी आज़मा लेंगे।” 

फिर कोई पूछेगा, “वैसे हुआ क्या था?” 

आप कहेंगे, “जी, टाँग टूट गई है।” 

“किसने बताया?” 

“डॉक्टर ने।” 

“अरे किस डॉक्टर को दिखाया?” 
“डॉ. गर्ग साहब को।”

ये वो लोग है जो बाल की खाल निकलने को आतुर . . . इन्हें लगता है ये सब सहानुभूति बटोरने के बहाने हैं, हम समाचार लेने वालों को नाहक़ परेशान किया जा रहा है . . . अब कुछ लोग अप्रत्यक्ष रूप से आपके मोटिव को जानने के लिए अपनी कहानियाँ सुनाने लगेंगे, “वो अपने वर्मा जी हैं न, चुनाव में ड्यूटी लगी थी, छुट्टी नहीं मिल रही थी, तो डॉ. गर्ग ने एक पर्ची बना दी, एक नक़ली प्लास्टर लगवा दिया और छुट्टी मिल गई।”

शर्मा जी क्या करें, कहेंगे, “अरे, मेरी तो सच में टूटी है। आप प्रमाण चाहते हैं? ये लीजिए एक्स-रे।” और एक्स-रे उल्टा पकड़कर देखने वाले कहेंगे, “अरे डॉक्टर ने फ्रैक्चर कहाँ से निकाल दिया? हमें तो कहीं कोई फ्रैक्चर नज़र नहीं आ रहा।”

तब शर्मा जी अपनी आख़िरी गवाही के लिए अपनी पत्नी को बुलाएँगे, “ज़रा बताओ न, कैसे हुआ?” पत्नी कहेंगी, “भाई साहब! स्कूटी पर जा रहे थे, गड्ढे तो आपको पता ही हैं सड़कों पर। दोनों गिरे और टाँग नीचे आ गई स्कूटी के।”

फिर प्लास्टर के रंग-रूप और शेप का मुआयना करेंगे। सलाह देंगे, “फाइबर लगवाते, महँगा है पर अच्छा दिखता है।” कुछ लोग अपने पेन-पेंसिल से आपके प्लास्टर पर शुभकामनाएँ लिखकर या अपने ऑटोग्राफ देकर भी जाएँगे, जैसे यह अतिथि बुक हो और वो अजायबघर में आये हैं, आपकी प्लास्टर वाली टाँग को देखने। 

कुछ सलाहकार देसी इलाज़ भी सुझाएँगे। कोई गाय का मूत्र, कोई बकरी का दूध, तो कोई सूअर का घी, और कहेंगे कि लगाओ, फ़ायदा होगा। शर्मा जी को ऐसा लगने लगेगा कि टाँग पर जितना प्लास्टर का चूना नहीं लगा, उससे ज़्यादा सलाह का चूना चढ़ रहा है। 

रिश्तेदार सब्ज़ी-फल भी लेकर आएँगे, “भाई साहब, क्या हो गया महँगाई को . . . सेब देखो तो 200 रुपए किलो हैं और वो भी सड़े हुए, मजबूरी में केले लेकर आ गए।” 

शर्मा जी उनके केले की थैली के बोझ तले दबे जा रहे हैं . . . अरे इसकी क्या ज़रूरत थी भाईसाहब . . . इस भार को थोड़ा हल्का करने के लिए शर्मा जी कहेंगे, “सुनो, चाय बना दो न।” 

रिश्तेदार . . . “हें हें . . . अरे भाबी जी को क्यों परेशान करते हैं . . . चलो बना ही रहे हैं तो फीकी ही बनाना, तुम्हें पता है डायबिटीज़ हो गई है, अरे हाँ आपको सुगर तो नहीं है?” 

शर्मा जी कहेंगे, “चेक नहीं कराई।” 

इस पर एक और सुझाव मिलेगा, “अब तो शुगर चेक करवानी पड़ेगी। कई के पैर सड़ गए हैं प्लास्टर के बाद।” फिर उनके पास क़िस्सों की भरमार है, प्लास्टर की वीभत्स रस से भरी हुई स्टोरी के . . . किसी का प्लास्टर टाइट होने से, किसी के सुगर होने से न जाने कितनी टाँगें सड़कर कट चुकी हैं। 

शर्मा जी प्लास्टर प्रकरण की इन डरावनी कहानियों को सुनकर थरथर काँप रहे हैं। 

कुछ लोग तो यही चाहेंगे कि जल्दी ठीक न हों। “भाई साहब, प्लास्टर खुलने के बाद भी हल्के काम करना, और दूसरी टाँग का भी ख़्याल रखना। ये एक बार टूटे तो दूसरी को जलन होने लगती है।” कुछ लोग बार-बार आएँगे, क्योंकि आप मजबूर हैं, टूटी टाँग के साथ पड़े हैं। अब आप बहाना भी नहीं कर सकते कि घर पर नहीं हैं, आख़िर टाँग टूटी है, कोई मज़ाक़ थोड़े ही।

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