समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन)

समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन)  (रचनाकार - डॉ. दीप्ति गुप्ता)

‘भारतीय नवाभ्युत्थान या पुनर्जागरण के लक्षण’

भारतीय नवाभ्युत्थान की भावना भारतीय समाज में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद नहीं वरन् स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले, अँग्रेज़ों के शासनकाल में ही पनपने लगी थी। 19वीं शताब्दी में बड़े उत्साह के साथ भारतीय समाज को परिष्कृत करने तथा उसमें नया दृष्टिकोण उत्पन्न करने हेतु सामाजिक व धार्मिक आन्दोलन हुए। हिन्दू समाज में जाति प्रथा, छुआछूत की भावना, सती-प्रथा, स्त्री-बाल हत्या जैसी कुप्रथाएँ प्रचलित थी। व्यक्तियों में रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास तथा मूर्तिपूजा आदि का प्रचलन था। भारतीय समाज के इन अनेक दोषों का निवारण अनिवार्य हो गया था, क्योंकि इन दोषों और कुप्रथाओं के कारण भारतीय समाज विकृत होता जा रहा था।

अँग्रेज़ी शिक्षा ने भारत के नवजागरण को बहुत अधिक प्रभावित किया। अँग्रेज़ी शिक्षा ग्रहण करने वाले नवयुवकों का दृष्टिकोण ही परिवर्तित हो गया। संकीर्ण विचारों का स्थान व्यापक व उदार दृष्टिकोण ने ले लिया तथा अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता स्वतः ही दूर होती गई। इसके अतिरिक्त जब अँग्रेज़ों का भारत में राज्य था, तब पाश्चात्य सभ्यता तथा संस्कृति का हमारे देश में प्रचार हुआ, जिसने भारतीयों के अन्धविश्वास तथा संकीर्ण दृष्टिकोण को बदलने में बहुत सहयोग दिया। भारत में सामाजिक तथा धार्मिक आन्दोलनों का सबसे बड़ा कारण यहाँ पर ईसाई धर्म का प्रचार था। अँग्रेज़ी शासन के फलस्वरूप ईसाई मिशनरियों ने बड़े ज़ोरों के साथ अपने धर्म का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। भारतवासी भी इसकी ओर आकृष्ट हुए और इसमें दीक्षित होने लगे, जिसने भारतीयों के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर, उन्हें अपने समाज तथा धर्म के दोषों को दूर करने की प्रेरणा दी। 19वीं शताब्दी में विज्ञान की उन्नति का भी देश पर बहुत प्रभाव पड़ा और भारतीय जनता में नवजागरण हुआ। निस्सन्देह विज्ञान ने अन्धविश्वासी और रूढ़िवादी भारतीय जनता को अन्धकार से प्रकाश का पथ निर्दिष्ट किया।

इसके अतिरिक्त 1857 की क्रान्ति ने भारतीयों में एक प्रबल राष्ट्रीय चेतना को जन्म दिया तथा यह चेतना उत्तरोत्तर बलवती होती गई और सामाजिक तथा धार्मिक सुधारों मे नियोजित हो गई।

इन सब कारणों के अतिरिक्त सौभाग्यवश उस काल में अनेक ऐसे सुधारक तथा उपदेशक हुए जिन्होंने समाज सुधार तथा धार्मिक कुरीतियों के उत्पाटन का कार्य बड़े उत्साह के साथ आरम्भ किया। इन समाज सुधारकों में ‘राजाराममोहन राय’ का नाम अग्रगण्य है, जिन्होंने 1828 ई. में ‘ब्रह्मसमाज’ की स्थापना की, तथा ब्रह्मसमाज के प्रभाव से 1837 ई. में महाराष्ट्र में ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना हुई, जिसका प्रधान लक्ष्य था - जाति प्रथा का अन्त करना, विधवाओं के पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देना तथा बालविवाह को रोकना। ‘स्वामी दयानन्द सरस्वती’ ने ‘आर्य समाज’ की स्थापना कर छुआछूत और जाति प्रथा का विरोध कर हिन्दू समाज की एकता को सुदृढ़ बनाने का प्रयत्न किया। ‘स्वामी विवेकानन्द’ ने अपने गुरु ‘रामकृष्ण परमहंस’ की शिक्षाओं के प्रचार हेतु ‘रामकृष्णमिशन’ की स्थापना करी थी, जिसने समाजसुधार और सामाजिक प्रगति के बहुत ही श्लाघनीय कार्य किए। इसके अतिरिक्त भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद एक ऐसे प्रगतिशील समाज के निर्माण का उद्देश्य सामने रखा गया, जिससे भारतीय समाज में पनपी समस्याओं, अन्धविश्वासों, कुरीतियों का निराकरण हो जाए। अतएव इस उद्देश्य पूर्ति के लिए ‘योजना आयोग’ की नियुक्ति की गई, जिसने पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा देश की जाति प्रथा में परिवर्तन, अस्पृश्यवर्ग की स्थिति में सुधार, स्त्रियों की दशा में सुधार, वैवाहिक संस्था में सुधार व धार्मिक दशा में सराहनीय सुधार किए। फलतः कृषि मे विकास, शिक्षा में प्रगति, स्वास्थ्य व पोषण में विकास, जनसंख्या पर नियन्त्रण, पिछड़े वर्गों का कल्याण आदि जैसे महत्वपूर्ण कार्य हुए। 19वीं शताब्दी में देश में जो सामाजिक और धार्मिक सुधार के आन्दोलन चलाए गए थे, तभी भारतीय समाज में नवजागरण का सूत्रपात हो गया था। धार्मिक परिशोधन, राजनैतिक सुधार, शिक्षा का प्रसार, राष्ट्रीय भावना का विकास, सामाजिक कुरीतियों का विनाश व भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पुनर्जागरण प्रारम्भ हो गया था। इस पुनर्जागरण का चित्रण नागरजी के उपन्यासों में अनेक स्थलों पर, प्रसंगों में मिलता है। इनके प्रथम उपन्यास ‘महाकाल’, में जातिप्रथा के विरुद्ध नायक ‘पाँचू’ अपने क्रान्तिकारी विचारों का परिचय देता है तथा उसी के प्रयत्नों के फलस्वरूप शिक्षा के अधिकार से वंचित डोम बाग्दियों के बच्चे भी उसके स्कूल में शिक्षा प्राप्त करते हैं, जबकि उसके इस क्रान्तिकारी कदम का सभी विरोध करते हैं - "गाँव वाले कितने नाराज़ हुए थे। खुद उसके घर में उसकी माँ ने भी पहले उसे मना किया। दादा ने तो कहनी न कहनी सभी सुना डाली। सारा गाँव उसकी निन्दा करने लगा और ज्यों-ज्यों गाँव का विद्रोह बढ़ता गया, पाँचू का हठ भी ज़ोर पकड़ता गया -सबको विद्या पढ़ने का समान अधिकार है।"

जाति वर्ण आदि को एक संकीर्ण व्यवस्था मानते हुए, जीवन से पलायन करने वाला पाँचू, मार्ग में मिलने वाली एक अनजान स्त्री के सद्य जात शिशु को जाति आदि सबसे ऊपर, पवित्र-सिर्फ उसे जीने की प्रेरणा देने वाला जीव मानता है - "इसकी जाति भला क्या हो सकती है? इसकी माँ कौन है? * * * आदमी का बेटा है, मैं इसे आदमी ही कहूँगा। यह जाति वर्ण वगैरा से पाक है।"

इसी प्रकार समाज की कुरीतियों, अपराधों का कारण ‘बूँद और समुद्र’ का सज्जन शिक्षा की कमी बताता है – "ये सब शिक्षा की कमी की वज़ह से है। * * * गवर्मेंट उनको एजुकेशन दे, उन्हें समझाये कि मानवता क्या है, ह्युमन वैल्यूज़ क्या हैं।"

"मगर आप उनको समझाइयेगा कैसे? आपके पास साधन क्या है?" खिडकी से चलकर आते हुए महिपाल ने सज्जन की बात काटी। क्यों? गवर्मेंट टीचर्स अप्वाइन्ट करें, आर्ट और कलचरल फंक्शन्स करायें, कुछ ऐसे स्त्री-पुरुष रखे जाएँ, जो घर-घर जाकर लोगों को सफाई, रहन-सहन के काम समझायें, उनकी दिमागी सतह को ऊँचा उठायें।"

नवीन सामाजिक अधिनियमों के कारण भारत में विवाह संबंधी रूढ़ियों में तेज़ी से परिवर्तन आया। विधवा-विवाह को तथा अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन मिला। ‘बूँद और समुद्र’ के मि.वर्मा और तारा एक ऐसे ही पति-पत्नी है, जिन्होंने अन्तर्जातीय विवाह किया है।
इसी प्रकार जाति और वर्ण के भेदभाव को न मानने वाला उपन्यासपात्रों का उदार दृष्टिकोण स्पष्ट परिलक्षित होता है। आत्मीयता भरे स्वर में नवयुग की गर्व भरी घोषणा करते हुए तारा कहती है - "अरे बहन, ऊँच नीच की बातें अब कौन मानता है और हम तो भाई, जात-पाँत ही को नहीं मानते।"

समाज की अवनति व अस्वस्थ वातावरण के कारणों के बारे में महिपाल सोचता है तथा उसकी रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, जातिप्रथा आदि को उखाड़ फेंकने में ही वह समाज का कल्याण देखता है - "देश के दर्शन, इतिहास, धर्म और संस्कृति की जाँच करनी होगी। जो कुछ बे-उसूल है, समाज को अज्ञान और अन्धनिष्ठा से बाँधता है, उसे तुरन्त खत्म कर देना चाहिए। शादी ब्याह के मामले में यह कुल, ऊँच-नीच की मर्यादा, दहेज - इन तमाम गन्दगियों को जड़ मूल से निकाल फेंकना चाहिए।"

भारतीय नवभ्युत्थान के विचार महिपाल के उपर्युक्त चिन्तन में स्पष्ट है। भारत में स्वतन्त्रता के बाद स्त्रियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। स्त्रियाँ शिक्षा, अध्यापन, औद्योगीकरण के क्षेत्र में आगे बढीं। राष्ट्र की उन्नति में उनका योगदान भी आवश्यक समझा गया। तभी तो उपन्यास नायिका कन्या अपनी भाभी के साथ अपने पिता द्वारा किए गए अत्याचार के प्रति विद्रोह कर उठती है। वह पिता की झूठी गवाह बनने से इन्कार कर देती है। समस्त नारी जाति के उत्थान की भावना उसे प्रेरित करती है। वह कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्या है। समाज द्वारा अपनी भाभी के प्रति हुए अन्याय का वह जोर-शोर से विरोध करती है। सज्जन से कहे गए इस कथन में उसका क्रान्तिकारी चिन्तन स्पष्ट है - "मैं पूछती हूँ, क्या इस स्त्री की इज़्ज़त किसी भी पार्टी या राष्ट्र की इज़्ज़त से कम है? यह अन्याय क्या पूरे समाज के प्रति अन्याय नहीं?"

कर्नल का उत्साह और जोश के साथ सड़कों पर जुलूस निकालते हुए यह घोषणा करना - "हम केवल नारी जाति पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं, हम इस चुनाव के हुल्लड़ में होश कायम रखना चाहते हैं। इस चुनाव का जो उद्देश्य है, उसे हम जनता से अमल में लाने की भीख माँगते हैं।" - भारतीय जनता के पुनर्जागरण का ही परिचय देता है। इसके अतिरिक्त कर्नल के इस कथन में नारी दशा में आने वाले सुधारों की आरम्भिक स्थिति का चित्रण है। देश के कोने-कोने में पुनार्जागरण हो चुका था। इसके और भी अनेक चित्र इस उपन्यास में मिलते हैं। यथा मि. वर्मा के लड़के की छठी के उपलक्ष्य में सम्मिलित मित्रों के मध्य हिन्दुओं के इन जन्म-मरण संबंधी रीति-रिवाजों को निरर्थक मानता हुआ महिपाल कहता है - "मैंने इस पर कभी बहुत अधिक ध्यान तो नहीं दिया। बच्चों के जन्म का छठा और बारहवाँ दिन महत्वपूर्ण होता है। मेरी धारणा है कि तांत्रिकों के प्रभाव से ये रस्में फैली है।"

लेखक के अनुसार - "व्यक्ति और समाज दोनों ही दोषपूर्ण हैं। जब तक समाज नहीं बदलता, तब तक व्यक्ति बेचारा क्या करेगा?"

समाजोद्धार तथा कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही सज्जन अपने पिता की जमापूँजी ट्रस्ट को दान कर देता है। अँग्रेज़ी राज्य को भारतीय इतिहास, दर्शन, संस्कृति संबंधी परम्पराओं के जागरण का एक मात्र कारण बताते हुए सज्जन कहता है - "मुझे ऐसा लगता है कि इस समय हमारा देश खुद अपने बारे में बेहद ओछी नज़र से सोचता है। * * * अँग्रेज़ों की ही देन है - कि यहाँ इतिहास, दर्शन, साहित्य और संस्कृति संबंधी परम्पराएँ जागीं। उन्नीसवीं शताब्दी में पुनरूत्थान का दौर ...।"

कन्या नवीन चेतना से प्रभावित होकर ही जात-पाँत को व्यर्थ बताती हुई कहती है - "अरे भाभी, कहाँ की बातें ले बैठी तुम भी। ये ऊँच-नीच, जात-पाँत सब ढकोसला है।"

बाबा रामजी उपन्यास के ऐसे सजीव पात्र हैं जो सच्चे अर्थों में देश के पुनरूत्थान, समाज सेवा व उद्धार में संलग्न है। तद्हेतु वे नगर छोड़कर गाँव में रहने चले जाते हैं। स्त्री शिक्षा हेतु वे गाँव में स्कूल खोलने की योजना बनाते हैं, जिससे देश प्रगति की ओर अग्रसर हो सके।

‘अमृत और विष’ के रमेश और रानी भी विवाह के रूढ़िवादी बन्धनों को तोड़कर अन्तर्जातीय विवाह कर लेते हैं तथा सुखपूर्वक जीवन यापन करते हैं। इस उपन्यास में लेखक ने सामाजिक यथार्थ का यथावत् चित्रण करके उसके गुण दोषों को प्रस्तुत किया है। सामाजिक रीति-रिवाजों और परम्पराओं में जकड़े व्यक्तियों का चित्रण कर समाज की बढ़ती हुई अवनति और दुर्दशा का चित्र खींचा है। नवयुवकों के उत्साह और क्रान्तिकारी विचारों का परिचय देकर उन्हें देश का असली कर्णधार बताया है। इसलिए वृद्धों और युवकों के संघर्ष में नागर जी ने सदैव युवा पीढ़ी की ही जीत दिखाई है। केशोराम की बारादरी में युवक संघ की स्थापना और उसकी रक्षा के लिए किये गये आन्दोलन, उनके उत्साह के प्रतीक हैं। देश के स्वतन्त्र होने पर सामाजिक क्षेत्र में उन स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन लाने का सुसंयोजित प्रयास किया गया, जो अनैतिक कार्यों द्वारा जीविकोपार्जन करती थी। 1956 में अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम बनाकर वेश्यावृत्ति को एक दण्डनीय अपराध घोषित किया गया तथा इस व्यवसाय को चलाने वालों को कठोर दण्ड दिया गया। इसका जीवन्त चित्रण लेखक ने अपने बहुचर्चित उपन्यास - ‘ये कोठे वालियाँ’ में किया है। वेश्याओं के कोठों पर पुलिस के अचानक पड़ने वाले छापों से इस व्यवसाय को समाप्त कर अच्छा जीवन बिताने, मेहनत करके जीवकोपार्जन करने का विचार स्त्रियों और पुरुषों के मन में आया तथा अनेकों वेश्याओं ने, जो इस घृणित व्यवसाय से उबी हुई थी, अपना नया जीवन शुरू किया। समाज में उन्हें सिर उठाकर इज़्ज़त से जीने का अवसर मिला।

इस प्रकार भारतीय पुनर्जागरण के विशद और सजीव चित्र लेखक की रचनाओं में उपलब्ध होते हैं।

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