समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन) (रचनाकार - डॉ. दीप्ति गुप्ता)
समाज और संस्कृति के चितेरे : ‘अमृतलाल नागर’साहित्य और समाज एक दूसरे के स्रष्टा हैं, रचयिता है और इस दृष्टि से एक दूसरे के पूरक हैं। ‘समाज’ के व्यापक और गहन अस्तित्व के समान ही; उससे घनिष्ठता से जुड़े ‘साहित्य’ में भी वही व्यापकता, विशदता और गहराई समाई होती है। यही कारण है कि समाज, उसके विविध पक्षों, व जन-जीवन से जुड़ा साहित्य अर्थवान होता है। अनेक चिन्तकों, विचारकों एवं प्रख्यात समाजशास्त्रियों ने समाज का गहन अध्ययन कर, उसे व्याख्यायित करते हुए कहा है “कि समाज मात्र व्यक्तियों का समूह ही नहीं, अपितु यह एक ऐसी ‘संरचना’ है, जो परम्पराओं, रीतिरिवाजों, मूल्यों, संस्कारों, मानवीय भावों, वर्ण, वर्ग, जाति, परिवार, विवाह आदि संस्थाओं, व्यवस्थाओं, इनके पकार्यो-अकार्यो तथा तदजनित सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भावनात्मक एकता, बिखराव, पारस्परिक संबंधो व संघर्षों से विकसित होकर रूपाकार लेता है और निरन्तर परिवर्तनशील रहता है। यह परिवर्तनशीलता उसके विकास, समृद्धि व सम्पन्नता की सूचक होती है, जो अविराम उसे परिवर्द्धित करती है। जो ‘साहित्य’ विशुद्ध रूप से समाज और उसकी गहन व्यापकता को समेटकर रूपाकार पाता है, निःसन्देह वह समाज की भाँति ही सम्पन्न और समृद्ध होता है।
‘अमृतलाल नागर’ के उपन्यास साहित्य का मूल स्त्रोत समाज, संस्कृति और जनजीवन ही है। जैसा कि बार-बार विद्वानों ने कहा है कि जन-जीवन और संस्कृति समाज में समाहित रहती है और वही समाज के अस्तित्व के मूल में होती हैं। नागर जी के उपन्यासों को पढ़ने पर मैंने समाज व उसके विविध अवयवों, उनकी अन्तःक्रियाओं, व्यवस्थाओं तथा इन सबसे संघटित जीवन को व्यापक रूप में, गहनता से रचा-बसा पाया। अतः इस परिप्रेक्ष्य में मैंने उनके सन् 1942 से 1972 तक की अवधि में रचित दस उपन्यासों - महाकाल, बूँद और समुद्र, अमृत और विष, सेठ बाँकेमल, ये कोठेवालियाँ, शतरंज के मोहरे, सात घूँघट वाला मुखड़ा, सुहाग के नूपुर, एकदा नैमिष्यारण्ये और मानस का हंस - का गहराई से अध्ययन कर, प्रबु्ध लेखक के समाज व संस्कृति और जीवन से जुड़े बहुमूल्य एवं उदात्त विचारों का समाजशास्त्रीय दृष्टि से इस पुस्तक में विश्लेषण किया है।
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