समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन) (रचनाकार - डॉ. दीप्ति गुप्ता)
पारिवारिक जीवनपरिवार एक ऐसी सामाजिक इकाई है जिसमें कुछ मनुष्य मिलकर रहते हैं व परिवार का मुख्य आधार विवाहित स्त्री-पुरुष का संबंध होता है। इस प्रकार एक परिवार में पति-पत्नी और उनकी सन्तान प्रमुखतः होती है। परिवार की अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से परिभाषाएँ की है।
‘मेकाइवर और पेज’ के अनुसार - “परिवार एक ऐसा समूह है जो निश्चित यौन संबंधों पर आधारित है और इतना छोटा व शक्तिशाली है कि सन्तान के जन्म और पालन पोषण की व्यवस्था करने की क्षमता रखता है।”
‘बर्गेस’ तथा ‘लॉक’के अनुसार - “परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो विवाह, रक्त या गोद लेने के संबंधों द्वारा संगठित एक छोटी सी गृहस्थी का निर्माण करते हैं तथा पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन के रूप में परस्पर अन्तः क्रियाएँ करते हैं अथवा अपने-अपने सामाजिक कार्यों के रूप में एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं तथा एक सामान्य संस्कृति को बनाते व उसकी रक्षा करते हैं।”
‘मजूमदार’ के अनुसार - “परिवार उन व्यक्तियों का एक समूह है, जो एक ही छत के नीचे रहते हैं, जो मूल तथा रक्त सम्बन्धी सूत्रों से सम्बद्ध होते हैं तथा स्थान, हित और कृतज्ञता की अन्योन्यश्रितता के आधार पर जाति की जागरुकता रखते हैं।”
‘क्लेयर’ के अनुसार - “परिवार से हम सम्बन्धों की वह व्याख्या समझते हैं, जो माता-पिता और उनकी सन्तानों के बीच पाई जाती है।”
‘रॉल्फ’ के अनुसार - “परिवार मानवजाति के उदय के साथ-साथ ही अस्तित्व में आया- नई पीढ़ी के पालन-पोषन के लिए स्त्री जाति की सुरक्षा के लिए तथा पति-पत्नी के पारस्परिक साहचर्य्य के लिए।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि परिवार एक ऐसी संस्था है जिसमें विभिन्न रिश्तों वाले विभिन्न सदस्य होते हैं तथा जिनकी संस्कृति व सभ्यता समान होती है, जो चिर काल तक सामाजिक इकाई के रूप में स्थाई रहती है। ‘एम.सी.एलमर’ का भी यही विचार है कि ‘परिवार व्यक्तियों के मध्य निकटतम तथा प्रभावशाली सम्बन्धों को जन्म देता है। भले ही सम्बन्धों में समरसता या विरसता हो। पारिवारिक संस्था समाज के ढाँचे का मूल है।’
भारतीय विचारधारा के अनुसार प्राचीनकाल से पारिवारिक संस्था का अत्यधिक महत्व रहा है। यह समाज की एक ऐसी महत्वपूर्ण इकाई मानी जाती है, जो समाज के स्थायित्व, वृद्धि और अस्तित्व का प्रमुख आधार है। इसी ने व्यक्तियों को परस्पर विभिन्न सम्बन्धों में बाँटा तथा उनके हृदय में समाजवाद और मानवतावाद जैसी भावनाओं को जन्म दिया। क्योंकि अपने सुख का त्याग दूसरे के लिए, व्यक्ति सर्वप्रथम परिवार में ही सीखता है। इसके अतिरिक्त परिवार व्यक्ति को धार्मिक, मानसिक शान्ति और सुरक्षा भी देता है जैसा कि ‘पन्ढारीनाथ प्रभु’ ने कहा है।
‘मेकाइवर और पेज’ ने तो इसे समाज की सबसे महत्वपूर्ण संस्था माना है।
इन सब विद्वानों के विचारों को देखते हुए तथा अपने अनुभव व चिन्तन के आधार पर हम परिवार की परिभाषा इस प्रकार कर सकते हैं - “मानव हृदय की भावनाओं व उसके संस्कारों पर आधारित, परिवार सीमित आकार वाला एक ऐसा स्थायी व सार्वभौम संगठन है, जो पति-पत्नी, उनकी सन्तान व निकट सम्बन्धियों की उत्तरदायित्व की भावना से पल्लवित होता है तथा सामाजिक जीवन की एक ऐसी महत्वपूर्ण इकाई के रूप में- जिसपर सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचा आधारित होता है, सन्तानोत्पत्ति, विवाह व वंश नाम के आधार पर व्यवस्थित व स्थाई होता है”।
परिवार के आधुनिक काल में दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं। एक रूप वह जिसमें परिवार के समस्त सदस्य मिलकर एक साथ एक ही छत के नीचे रहते हैं। ऐसे परिवार ‘संयुक्त परिवार’ कहलाते हैं। दूसरे वे परिवार जिनमें एक परिवार के व्यक्ति किन्हीं विशेष कारणों से अन्य सदस्यों से अलग दूसरे घर में रहने लगते हैं। ऐसे परिवार सम्बन्ध टूट जाने के कारण ‘असंयुक्त परिवार’ कहलाते हैं। इस प्रकार परिवार के दो रूप हुए।
(1) संयुक्त परिवार, (2) असंयुक्त परिवार
‘संयुक्त परिवार’ - संयुक्त परिवार भारतीय समाज व हिन्दू परिवार की एक प्रमुखता रही है। पारिवारिक सदस्यों की परस्पर प्रेम, सहयोग व उत्तरदायित्व की भावना राष्ट्रोन्नति के लिए भी सहायक रही है, क्योंकि व्यक्ति बलिदान का, दूसरों के लिए अपने सुख के त्याग का पाठ सर्वप्रथम परिवार से ही सीखता है। जब वह परिवार वालों के लिए त्याग करना नहीं सीखता तो ऐसा व्यक्ति देश के लिए कुछ नहीं कर सकता। ‘मैक्समूलर’ ने संयुक्तता की भावना को ‘भारत की आदि परम्परा’ कहा है। निसन्देह परिवारों की संयुक्तता हिन्दुओं की सांस्कृतिक धरोहर है। अति प्राचीनकाल से संयुक्त परिवार समन्वय, त्याग, धर्मपरायणता, सहिष्णुता मानवता आदि शक्तिशाली तथ्यों को अपने में सँजोए हुए है। साधारणतः संयुक्त परिवार वह कहलाता है जिसमें पति-पत्नी, सन्तान, परिवार की वधुएँ, दादा-दादी, चाचा-चाची, अनके बच्चे आदि सम्मिलित रूप से रहते है। कुछ प्रसिद्ध विद्वानों की दृष्टि में संयुक्त परिवार का रूप जान लेना आवश्यक सा हो जाता है। ‘एलीन डी.रास’ के अनुसार “सयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है,जो सामान्यतः एक ही भवन में निवास करते हैं, एक ही रसोई में पका भोजन करते हैं, सामान्य सम्पत्ति के स्वामी होते हैं, सामान्य पूजा में भाग लेते हैं तथा किसी न किसी रूप में एक दूसरे के रक्त सम्बन्धी होते हैं।”
‘मार्ग्रेटकारमैक’ के अनुसार - “संयुक्त परिवार प्रणाली वैदिक काल से प्रथा रूप में प्रचलित रही है। यद्यपि आज का औद्योगिक और राजनीतिक विकास इस प्रणाली को दुर्बल बना रहा है किन्तु फिर भी यह समाप्त नहीं हुई है। यह पितृसत्तात्मक परिवार प्रथा पर आधारित होती है। लड़का विवाह करके अपनी पत्नी को पिता के घर लाता है और वह लड़की उसके घर के सदस्य की तरह परिवार में रहती है।” यह स्पष्ट है कि हिन्दू परिवारों का कर्ताधर्ता परिवार का सर्वाधिक वृद्ध पुरुष ही होता है। उसी के नेतृत्व व सलाहनुसार परिवार की व्यवस्था होती है।
संयुक्त परिवार प्रथा में विवाह तथा सफल दाम्पत्य जीवन का बहुत महत्व है। यदि विवाह जैसी प्रथा नहीं होती तब न तो स्त्री पुरुष ही विवाह जैसे सूत्र में बँधते, न उनसे आगे सत्नानोत्पत्ति द्वारा परिवार अस्तित्व में आता और न ही फिर कही समाज होता। अतः विवाह एक बहुत ही महत्वपूर्ण संस्था है, जैसा कि ‘राबर्ट ओ.ब्लड’ ने कहा है कि “विवाह एक विशिष्ट उत्पादक कार्यप्रणाली है जो बच्चों को जन्म देने वाली है। लेकिन वह प्राथमिक बल पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध पर देती है।”
‘एब्राहम बी.शोलजन’ ने संयुक्त परिवार की परिभाषा और उद्देश्य बताते हुए लिखा है - “परिवार तो एक ऐसी संस्था है, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व और चरित्र विकास में मूलभूत रचनात्मक प्रभाव डालती है। इसका उद्देश ही अपेक्षाकृत स्थाई और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कामाभिव्यक्ति का आकार, साथ ही साथ पारिवारिक जीवन का भौतिक व आध्यात्मिक वातावरण उपस्थित करना है।” ‘सोशियोलाजिकल बुलैटिन’ में संयुक्त परिवार के विषय में लिखा है - “संयुक्त परिवार आर्थिक आधार पर स्थित है। आवश्यकता पड़ने पर परिवार ही सदस्यों को आर्थिक, धार्मिक, शारीरिक प्रत्येक प्रकार का सहयोग व सुरक्षा प्रदान करता है।”
इन सब परिभाषाओं से संयुक्त परिवार की प्रकृति स्पष्ट नहीं होती। वास्तव में संयुक्त परिवार की कोई परिभाषा करना ही बड़ा कठिन है। यह आवश्यक नहीं कि संयुक्त परिवार के सभी सदस्य रक्त संबंधी हों। प्रायः दूर के संबंधी भी जिनका रक्त संबंध, अन्य पारिवारिक सदस्यों से नहीं होता है, परिवार के सदस्य बन जाते हैं। इसी प्रकार आवश्यक नहीं कि संयुक्त परिवार के सदस्य एक ही रसोई में पका भोजन करते हों, पूजा की दृष्टि से एक हों, या सम्पत्ति में भी समान अधिकारी हों। इन सब बातों की अनुपस्थिति में भी साथ रहने वाले सदस्यों को संयुक्त परिवार ही कहा जाएगा। संयुक्त परिवार के लक्षण है कि संयुक्त परिवार के सदस्य संख्या में अधिक होते हैं। उनका सामान्य निवास स्थान होता है। उनकी सम्पत्ति भी सम्मिलित होती है। सभी सदस्यों के सामाजिक व धार्मिक कर्तव्य होते हैं। सभी सुख-दुख में एक दूसरे का सहयोग देते हैं। परिवार का सबसे बड़ा व योग्य व्यक्ति परिवार का सर्वोच्च कर्ता होता है। इस प्रकार जिस परिवार में उपर्युक्त लक्षण, न्यूनाधिक रूप में विद्यमान होते हैं वह संयुक्त परिवार कहलाता है। नागर जी के उपन्यासों में संयुक्त परिवारों की सजीव और यथार्थ झाँकी देखने को मिलती है।
नागर जी के उपन्यासों में संयुक्त परिवारों का चित्रण
नागर जी के प्रथम उपन्यास महाकाल का पाँचू और उसकी पत्नी मंगला एक आदर्श पति-पत्नी हैं। वे दोनों संयुक्त परिवार में रहते हैं। पाँचू पर ही अपने माता-पिता, भाई-बहन, भाभी व भतीजों का भार है। पाँचू और उसकी पत्नी परिवार के सभी सदस्यों के प्रति अपने कर्तव्य पूर्ण करते हुए सबका भरण-पोषण करते हैं। परिवार के सभी सदस्य सुख-दुख में एक दूसरे को सहयोग देते हैं। पाँचू और मंगला को अपने दुख और कष्टों से अधिक परिवार के कष्टों की चिन्ता है। अकाल की भुखमरी ने पाँचू के परिवार पर भी आक्रमण कर दिया, तो पाँचू अपने भूख से व्याकुल सदस्यों को देख अत्याधिक चिन्तित हो उठता है। अनेकों चिन्ताओं से घिरी होने पर भी उसकी पत्नी मंगला के मुख पर मुस्कान खेलती रहती है, जो अकाल के कारण उत्पन्न समस्याओं एवं चिन्ताओं से घिरे उसके पति के लिए सुखदायिनी सुनहरी किरण सी है। उन आपदाओं में भी पाँचू मंगला के सुन्दर स्वभाव व नैतिक बल के सहारे सहज और सहनशील बना रहता है।
दूसरी ओर पाँचू के बड़े भाई शिबू और उसकी पत्नी का जीवन बिल्कुल असन्तुलित और अव्यवस्थित है। शिबू अपनी क्षीणकाय पत्नी के प्रति जरा भी दयालु नहीं है। उसके तीन बच्चे हैं। शिबू को न अपनी पत्नी की और न बच्चों की ही चिन्ता है। वह एक गैर-जिम्मेदार, उग्र और अहंकारी स्वभाव का पति है। उसके तीनों बच्चों व पत्नी के भरण-पोषण का भार छोटा भाई पाँचू ही उठाता है। लेकिन इस पर भी न वह पाँचू के प्रति कृतज्ञ है और न उसे बहिन के विवाह या माता-पिता की ही किसी परेशानी का ख्याल है।
पाँचू की माँ एक ममतामयी, स्नेहमयी स्त्री है। साथ ही एक आदर्श पत्नी है, जो अपने नेत्रहीन वृद्ध पति की सेवा में किसी तरह की भूल-चूक नहीं करती। कभी-कभी पति की बचकानी हठ के कारण झुंझला अवश्य जाती है। अपनी बहुओं पर उसका पुत्रियों जैसा स्नेह है। अपने पोते-पोतियों से उसे अत्यधिक लगाव है। दोनों बेटों में वह पाँचू पर अधिक विश्वास करती है क्योंकि वह उसकी भावनाओं, उसकी समस्याओं के प्रति सजग है। शिबू की तरह लापरवाह नहीं है।
छोटी-बड़ी दोनों बहुएँ बहिनों के समान प्रेम पूर्वक रहती है। सास के समक्ष शिष्टाचार का पूर्ण पालन करती है। पाँचू भूख से पीड़ित प्रत्येक सदस्य, विशेषकर तिल-तिल मिटते अपने नन्हें भतीजों के लिए हर क्षण व्याकुल है। चावल प्राप्त करने का वह हर ओर से प्रयत्न करता है, लेकिन निराशा ही हाथ लगती है। एक बार चावल मिल भी जाता है, तो वह दुर्भाग्यवश हाथ से निकल जाता है। उग्र, अहंकारी भाई शिबू की अकर्मण्यता देखकर अप्रसन्न होने पर भी वह उसके प्रति स्नेहपूर्ण है। तभी तो दीनू व परेश की मौत पर वाचाल शिबू को शान्त देखकर, उसकी भयानक खामोशी को देखकर, पाँचू मन ही मन चिन्तित हो उठता है।
इस प्रकार पाँचू का परिवार एक आदर्श संयुक्त परिवार है। जिसके सभी सदस्यों का सामान्य निवास स्थान है। सबका भोजन भी एक ही रसोई में पकता है, सब साथ धार्मिक क्रियाओं में भाग लेते हैं, सबका घर की सम्पत्ति पर समान अधिकार है। सब सदस्य एक दूसरे के सुख-दुख में एक दूसर का साथ देते हैं।
‘बूँद और समुद्र’ के ‘भभूती सुनार’ के संयुक्त परिवार में उसकी पत्नी, दो लड़के- ‘मनिया’ और ‘शंकर’, उनकी पत्नियाँ-‘बड़ी’ और ‘छोटी’, बड़ी के दो बच्चे व भभूती की पुत्री ‘नन्दो’ सब मिलकर नौ व्यक्ति हैं, जो भिन्न-भिन्न विचारों व स्वभावों के होते हुए भी ऊपरी सतह पर एक हैं। परिवार सुचारु रूप से संचालित होता है। घर के मुखिया ‘भभूती सुनार’ व उसकी पत्नी ही है। सास बहुओं पर उचित रौब रखती है। न बिना कारण के डाँट फटकार और न आवश्यकता से अधिक प्यार। दोनों बहुएँ भी सास का आदर करती है। समय परिवर्तन के साथ-साथ समझदार माँ, बहुओं, बेटों, के प्रति आवश्यकतानुसार उदार दृष्टिकोण अपनाती हैं। छोटा बेटा शंकर यूनिवर्सिटी का छात्र है इसलिए उसके विचार और सिद्धांत कभी-कभी घर के रीति-रिवाजों व माँ की मान्यताओं के विरुद्ध पड़ जाते हैं। लेकिन माँ कभी किसी तरह के बखेड़े नहीं करती, अगर दोनों बेटे अपने-अपने कमरों में बहुओं के साथ बैठकर, अंडा-पाव रोटी खाएँ या भांग घोटे। घर की रसोई में सबका भोजन एक साथ व एकसा बनता है तथा घर का चलन व्यवहार सबके लिए एक सा है। ननद यदि भाभियों से खटपट करने पर कभी उतारू भी होती है, तो माँ उसे ही डाँट कर चुप कर देती है। छोटी और उसका पति शंकर लाल कुछ-कुछ आधुनिकता की ओर खिंचा एक प्रसन्न चित्त दम्पत्ति है। बड़ी और उसका पति मनिया एक कुण्ठाग्रस्त, अपने दाम्पत्य जीवन से असन्तुष्ट व दूसरों से ईर्ष्या करने वाला युगल है। भभूती सुनार का संयुक्त परिवार भारतीय संयुक्त परिवारों का आदर्श नमूना है। जैसा कि ‘सोशियोलॉजिकल बुलैटिन’ में, ऐसे ही संयुक्त परिवार की विशेषताओं के विषय में इस प्रकार बताया गया है - “एक आदर्श संयुक्त हिन्दू परिवार, धर्मग्रन्थों व साहित्य के अनुसार आकार और व्यापार दोनों दृष्टियों से वह है जो छः बातों पर आधारित हो अर्थात् परिवार के सभी सदस्य एक ही रसोई का पका भोजन खाते हो, सामान्य निवासगृह हो, सामान्य रूपेण गृह सम्पत्ति पर सबका समान अधिकार हो।” ये सभी बातें हमें ‘बूँद और समुद्र’ में भभूती सुनार के संयुक्त परिवार में मिलती हैं।
इसी उपन्यास के एक पात्र हैं ‘मास्टर जगदम्बा सहाय’। उनका परिवार भी संयुक्त परिवार की श्रेणी में आता है। उनके परिवार में उनकी पुत्री ‘वनकन्या’ है, पुत्र ‘नन्हा’ जो कन्या से बड़ा है तथा विवाहित है, उसकी पत्नी, जगदम्बा सहाय जी की पत्नी व एक सदस्य है - सहाय जी की भतीज-बहू, जो विवाह के तीन चार साल बाद ही विधवा हो गई थी। इतने सदस्य सहाय जी के परिवार में रहते हैं। जगदम्बा सहाय ही परिवार का भरण-पोषण करते हैं। लेकिन उनका यह संयुक्त परिवार उनके ही कुकर्म से टूट जाता है। वह अपनी असाहय भतीज-बहू पर हर तरह का अधिकार जमाते हैं और फलतः उसके मि. सहाय से अवैध सम्बन्ध के कारण लड़का जन्म लेता है, जिससे दोनों शहर में चर्चा का विषय बन जाते हैं। घर के सभी सदस्य सहाय जी के इस कुकर्म से व्यथित और शर्मिन्दा होते हैं। भतीज-बहू तो शर्म के कारण आत्महत्या कर लेती है। वनकन्या अपने पिता के प्रति विद्रोह कर उठती है और एक दिन घर छोड़ देती है।
‘बूँद और समुद्र’ के ‘महिपाल’ का परिवार भी एक संयुक्त परिवार है। महिपाल के परिवार में उसके तथा पत्नी कल्याणी व बच्चों के अलावा, उसकी भान्जी ‘शकुन्तला’ तथा छोटा भाई भी साथ रहता है। महिपाल कठोर परिश्रम कर भाई को पढ़ाता है व आगे पढ़ने के लिए विलायत भी भेजता है। भाई पढ़ लिखकर एम.बी.बी.एस. डाक्टर बन जाता है लेकिन डाक्टर बनते ही और विवाह होते ही वह महिपाल से अलग हो जाता है। महिपाल को ऐसा गहरा घाव मिलता है, जो धीरे-धीरे भरता है। मंझली बहिन के पति की मृत्यु हो जाने के कारण महिपाल अपनी बहिन और भान्जी क घर में शरण देता है। भाई के अलग होने से पहले महिपाल के कन्धों पर पत्नी, बच्चे, भान्जी, छोटे भाई की पत्नी व उसके गोदी के पुत्र के भरण-पोषण का भार था, जिसके लिए वह दिन-रात जी तोड़ मेहनत करता था। महिपाल एक भावुक संवेदनशील लेखक है। पहले वह एक प्रेस में सम्पादन कार्य करता था, लेकिन प्रेस मालिक से झगड़ा हो जाने के कारण उसे त्याग देता है। अतएव मात्र लेखन पर जीविका निर्वाह करता है। आर्थिक तंगी उसे बुरी तरह झिंझोड़ डालती है। शकुन्तला के विवाह के लिए वह प्रति पल चिन्तित रहता है। दूसरे, वह अपनी पत्नी कल्याणी से सन्तुष्ट नहीं है। दोनों पति-पत्नी के मध्य कभी भी एकता और सहजता उत्पन्न नहीं हो पाती। महिपाल शिक्षित, भावुक, विचारशील, प्रबुद्ध लेखक और पत्नी कल्याणी एक अशिक्षित, सपाट व्यक्तित्व वाली व रीतिरिवाजों, कर्म-धर्म की परम्पराओं में उलझी स्त्री है, जो सदैव अपने पति की भावनाओं और उसके संवेदनशील स्वभाव से अनभिज्ञ है। इसलिए ही वह अपने पति के क्रोध व झुंझलाहट का कारण है।
‘शतरंज के मोहरे’ नागर जी का ऐतिहासिक उपन्यास है। अतएव इसमें हिन्दू जाति की संयुक्त परिवार प्रणाली का चित्रण नहीं मिलता किन्तु पति-पत्नी संबंधों का विशद चित्रण है, जो धर्मग्रन्थों के अनुसार परिवार के प्रमुख आधार है। अतएव उनका उल्लेख आवश्यक हो जाता है। इस उपन्यास के ऐतिहासिक पात्र ‘गाजीउद्दीन हैदर’ तथा उनकी पत्नी ‘बादशाह बेगम’ ऐसे पति-पत्नी हैं, जिनका जीवन गहरे विषाद, असन्तोष व कलह में डूबा है। बादशाह बेगम तीव्र बुद्धि व तेज स्वभाव वाली ऐसी नारी है, जो अन्जाने ही अपने दुर्बल व्यक्तित्व, अकर्मठ, मन्द बुद्धि पति पर अनुशासन करती है। दुर्बल व्यक्तित्व होने पर भी बादशाह का पौरुष तथा अहं पत्नी से दबकर उभर-उभर आता है लेकिन बदले में कुछ न कर पाने की झुंझलाहट व खीझ दोनों के जीवन को विषाक्त करती जाती है। फलतः बादशाह अपनी बाँदी सुब्ह दौलत की शरण लेता है तथा बादशाह और उनकी बेगम के मध्य की दरार और गहरा जाती है। इसी प्रकार ‘रुस्तमअली’ और ‘दुलारी’ दोनों पति-पत्नी परिस्थितिवश एक दूसरे से दूर होने के कारण निष्ठारहित व प्रेम भावना रहित है। दुलारी अपने देवरों की प्रेमपात्री व पड़ोसी नईमुल्ला की प्रेयसी है। रुस्तमअली पत्नी के इन प्रेम प्रसंगों से अन्जान है। दोनों का दाम्पत्य जीवन स्वयं पति-पत्नी के कारण नहीं, वरन् परिस्थितियों के तहत उभरी मानव दुर्बलताओं के कारण अव्यवस्थित और असफल है।
‘सुहाग के नूपुर’ में ‘मासात्तुवान चेट्टियार’ कावेरी पट्टनम के ख्याति प्राप्त व्यापारी है। उनका पुत्र कोवलन, मुनीम वीलिनाथन की निगरानी में व्यापार संबंधी अनुभव प्राप्त करने हेतु उत्तरभारत जाता है तथा अपने कुशल व्यवहार द्वारा उत्तरभारत के सेठों का प्रीति पात्र बन जाता है। वह अपने पिता के कहने से आज्ञाकारी पुत्र की भाँति मानाइहन सेठ की इकलौती पुत्री कन्नगी से विवाह कर लेता है। मासात्तुवान पुत्र कोवलन कन्नगी और नौकर समुदाय सभी एक गृह में साथ-साथ रहते हैं। घर का सामान्य व्यवहार चलन एक सा है। मासात्तुवन अपनी पुत्र वधू पर पितृवत स्नेह रखते हैं। कन्नगी भी श्वसुर को पिता समान मानती है तथा शिष्टाचार का पूर्ण पालन करती है। वह एक आदर्श बहू ही नहीं वरन् आदर्श पत्नी भी है,जो कोवलन को देवता मानती है। उसके प्रति अपने कर्तव्य पूर्ण करने में तन-मन से संलग्न रहती है। भले ही कोवलन नगर वधू माधवी के प्रेम में उन्मत्त है और पत्नी की उपेक्षा करता है, फिर भी कन्नगी पति की उपासना करती है तथा प्रत्येक दुःख व कष्ट को सहर्ष सहन करती है। वस्तुतः कोवलन और कन्नगी असन्तुष्ट दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते हैं। वह पत्नी के प्रति अपने कर्तव्य को कभी अनुभव नहीं करता। विवाह जैसे बन्धन का उसकी दृष्टि में कोई महत्व नहीं। ‘अब्राहम शालजन’ का कथन है कि “विवाह एक ऐसी कला है, जिसमें तूलिका और रंगों के स्थान पर- ज्ञान, पटुता और भावनाओं तथा प्रशंसा भाव की आवश्यकता होती है”। लेकिन कोवलन और कन्नगी के जीवन में इन्हीं आवश्यक तत्वों का अभाव दिखाई देता है। कोवलन नर्तकी माधवी के प्रेम में विभोर है, अतएव अपनी सुन्दरी पत्नी की उपेक्षा करता है। लेकिन कन्नगी फिर भी आदर्श भारतीय पत्नी के समान पति का प्रेम प्राप्त न करने पर भी उसके प्रति निरन्तर श्रद्धा और विश्वासयुक्त है। उसे आशा है कि एक दिन अवश्य कोवलन उसके प्ेम का मूल्य समझेगा। कन्नगी, कोवलन की पत्नी रूप में, अपना स्थान पाकर ही अपूर्व सन्तोष अनुभव करती है।
‘सात घूँघट वाला मुखड़ा’ भी एक ऐतिहासिक उपन्यास है। अतः उसमें ऐतिहासिक घटनाओं का ही अधिक चित्रण होने के कारण, प्रमुख रूप से परिवारिक प्रणाली का चित्रण नहीं मिलता है। लेकिन ऐतिहासिक पात्रों के दाम्पत्य जीवन का सजीव चित्रण है। ‘नवाब समरू’ और उनकी पत्नी ‘बेगम समरू’ का दाम्पत्य जीवन प्रगाढ़ स्नेह व भावनात्मक प्रेम के स्थान पर असन्तोष, दिखावट व मात्र शारीरिक प्रेम पर ही आधारित है। फलतः पूर्ण रूपेण असफल है। बेगम व्यभिचारिणी स्त्री है, जो राजनीति सम्बन्धी विभिन्न चालें खेलती है तथा अपने पति नवाब समरू को हर प्रकार से धोखा देती है। धोखा ही नहीं देती वरन् उसे भावनात्मक रूप से इतनी चोट पहुँचाती है कि दुःखी होकर नवाब एक दिन आत्महत्या कर लेता है।
‘एकदा नैमिषारण्ये’ के ‘सोमाहुति भार्गव’ का उनकी पत्नी और पुत्र तक ही सीमित एक छोटा परिवार है। उनके विवाह के पूर्व ही उनकी माँ की मृत्यु हो जाती है। माँ की हार्दिक अभिलाषा थी कि वह अपने पुत्र का घर अपने हाथों से बसायेगी तथा इज्या जैसी सुशील सुन्दरी को अपनी बहू बनायेगी। लेकिन दुर्भाग्यवश वह भार्गव के विवाह से पूर्व ही प्राण त्याग देती है। विवाह के एक वर्ष बाद ही इज्या जन्माष्टमी के बाद, नवमी के दिन अयोध्या में एक पुत्र को जन्म देती है। पुत्र जन्म का सुखद समाचार मिलते ही भार्गव अयोध्या पहुँचकर पत्नी और पुत्र के दर्शन कर अपूर्व सुखानुभव करते हैं। कुछ दिन वहीं ठहर कर भार्गव, पुत्र और पत्नी सहित नैमिषारण्य स्थित शौनक जी के आश्रम में पहुँचते हैं। भार्गव, शौनक जी के दूर के रिश्ते के भतीजे थे। नैमिषारण्य पहुँचने पर शौनक जी भार्गव और इज्या की गृहस्थी बसाने हेतु सुन्दर निवास स्थान प्रदान करते हैं। दोनों की छोटी सी गृहस्थी अपूर्व सुख और शान्ति से भरी है। दोनों सुखपूर्व गृहस्थी बसाते हैं। लेकिन उनकी सुखी गृहस्थी पर सहसा एक दिन दुखदामिनी गिर पड़ती है और नैमिषारण्ये से अयोध्या जाते हुए नौका में यात्रा करती हुई, इज्या शत्रुवर्ग के व्यक्तियों द्वारा मृत्यु को प्राप्त होती है।
‘मानस का हंस’ के ‘गुरु शेष महाराज’ का संयुक्त परिवार है, जिसमें उनकी पत्नी के साथ पत्नी का भाई भी रहता है तथा अपने शिष्य तुलसी को भी परिवार का ही एक सदस्य मानते हैं। सब एक ही घर में रहते हैं तथा एक ही रसोई में पका भोजन खाते हैं। विद्यादान द्वारा उपार्जित धन से सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करते हैं।
इसी उपन्यास के नायक ‘तुलसीदास’ का विवाह के पश्चात् एक छोटा सा परिवार लक्षित होता है। वे अपनी पत्नी ‘रत्ना’ पर मोहित एक ऐसे पति हैं, जो उसके बिना पल भर भी अकेले नहीं रह सकते। वे रत्ना के प्रति अतिअनुरागपूर्ण व निष्ठायुक्त है। रत्नावली भी एक आदर्श पत्नी की भाँति पतिव्रता और पति के प्रति अपूर्व श्रद्धा और अर्चनाभाव भरी नारी है। भावनात्मक व भौतिक दोनों ही प्रकार से पति-पत्नी परस्पर सन्तुष्ट हैं। रत्नावली भी पति के समान ही कुशाग्रबुद्धि व ज्योतिषशास्त्र पटु हैं। दोनों पति-पत्नी एक दूसरे से प्रभावित हैं और एक दूसरे पर मोहित हैं।
इस प्रकार नागर जी के लगभग सभी उपन्यासों में संयुक्त परिवार के विभिन्न रूपों और स्तरों का बड़ा ही स्वाभाविक और वास्तविक चित्रण है।
‘असंयुक्त परिवार’ - प्रतिदिन देखने में आ रहा है कि आधुनिक काल में संयुक्त परिवार प्रणाली शनैः शनैः समाप्त होती जा रही है। आधुनिक - परिस्थितियों तथा समय की आवश्यकताओं और परिवर्तित मान्यताओं को देखते हुए विद्वान भी एकांगी और असंयुक्त परिवार को ही आदर्श परिवार मानते हैं जैसा कि ‘फोत्सम’ ने कहा है - “दो बच्चों का परिवार आजकल के व्यापक सामाजिक नियम का आदर्श है”।
निसन्देह आधुनिक युग में तेजी से बदलते हुए सामाजिक मूल्यों और आदर्शो ने परिवार जैसी सामाजिक संस्था को प्रभावित किया है। आधुनिक प्रवृत्तियों से प्रभावित परिवार दिन-प्रति-दिन प्रचीन मान मूल्यों, आदर्शो व संयुक्त परिवार की एकता को खो बैठे हैं। ‘अब्राहम शोलजन’ के अनुसार- “हम अपनी आधुनिक स्थितियों का विश्लेषण करते हैं, तो पाते हैं कि हम सब एक ऐसे संसार में रह रहे हैं,जहाँ भगदड़ मची है। हमारे दैनिक जीवन के सभी क्रियाकलाप यथा भोजन इ्यादि कम और सीमित समय में बँधे हैं”। निसन्देह आज का प्रत्येक कार्य मिनिट और सेकिन्ड्स के घेरे में बँधा है। दुनिया भाग रही है, समय भाग रहा है, यहाँ तक कि आराम से भोजन करने, बैठकर बातें करने, अपने परिवार के साथ समय बिताने का समय भी बँधा हुआ है। आधुनिक प्रवृत्तियों से प्रभावित परिवार दिन-प्रतिदिन प्राचीन मानमूल्यों, आदर्शों व संयुक्त परिवार की एकता को खो बैठे हैं। संयुक्त परिवार आज इसलिए टूट रहे हैं कि आधुनिक प्रवृत्तियों से उनका सामंजस्य नहीं हो पा रहा है। ‘सोश्योलाजिकल बुलेटिन‘ में लिखा है - “संयुक्त परिवार का स्थान आणविक परिवार लेते जा रहे हैं जो पति-पत्नी और उनके बच्चों तक ही सीमित होते हैं”। पारिवारिक कार्यों व रूपों में अत्यधिक परिवर्तन दिखाई देता है। ये परिवर्तन औद्योगिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, व्यक्तिगत कारणों से संबंधित हैं। परिवार के अधिकांश आर्थिक कार्य अन्य संस्थाओं और समितियों ने ले लिए हैं। परिवार के कार्यशील सदस्य घर छोड़कर नौकरियों के लिए दूर-दूर नगरों में बस जाते हैं। स्त्रियाँ भी धनोपार्जन हेतु परिवारों से बाहर निकलने लगी हैं, जिससे वे अपने पारिवारिक कर्तव्यों को पूर्वरूपेण नहीं निभा पातीं। औद्योगीकरण से शहरों में मकानों की समस्या उत्पन्न हुई, जिससे या तो रहने को मकान ही नहीं मिलते या मिलते भी हैं, तो इतने छोटे कि उनमें एक ही परिवार रह सकता है। फलतः ये कारण आणविक जीवन और पारिवारिक विघटन को बढ़ावा दे रहे हैं। जैसा कि ‘के.पी.चटोपाध्याय’ ने लिखा है - “आणविक परिवार एक ऐसी गृहस्थ इकाई है, जो पति-पत्नी और बच्चों में ही केन्द्रित है और जिसमें संयुक्तता का अभाव है।”
इनके अतिरिक्त आधुनिक युग में सामाजिक मूल्य व आदर्श बदल रहे हैं। सामाजिक संबंधों का रूप बदल रहा है। पारिवारिक व व्यक्तिगत आवश्यकताओं के बढ़ने के फलस्वरूप अर्थोपार्जन हेतु कार्यभार स्त्री और पुरुष दोनों पर ही पड़ने लगा है, जिससे मानसिक असन्तोष व तनाव बढ़ता जा रहा है,जो संयुक्त परिवार प्रणाली के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। शहरी जीवन इतना व्यस्त हो गया है कि व्यक्ति पारिवारिक जीवन से कोई लगाव अनुभव नहीं करता। जीवन में समरसता न होने से सामाजिक आदर्शों और मूल्यों में इतनी विविधता आ गई है कि उनके कारण पारिवारिक संगठन शिथिल हो रहे हैं। एक ही परिवार विभिन्न राजनीतिक धाराओं से प्रभावित होता है। माँ यदि समाजवादी है, तो पिता पूँजीवाद का पक्षपाती है और बेटी जनसंघी है। इसी प्रकार माँ, पिता और बच्चे के वैवाहिक तथा पारिवारिक आदर्शों में भी वैभिन्नय के दर्शन होते है। इस प्रकार के मत भेदों से अवांछनीय तनाव परिवारों में उत्पन्न होता है, जो उन्हें विघटित करता है। पाश्चात्य सम्पर्क और कुछ आधुनिक शिक्षा प्रणाली व समय की माँग के कारण नयी पीढ़ी भौतिकवादी व व्यक्तिवादी होती जा रही है जैसा कि ‘सोश्यलाजिकल बुलैटिन’ में लिखा है कि “पाश्चात्य उदार जीवनदर्शन तथा उसके परिणाम स्वरूप व्यक्तिवादी भावना संयुक्त परिवार के विघटन तथा आणविक परिवार के सैद्धान्तिक आधार के लिए उत्तरदायी है और यह भविष्य में व्याप्त होने वाली है।”
विवाह के आधार में भी परिवर्तन हुए हैं। नयी पीढ़ी विवाह को एक समझौता मानने लगी है। विवाह विच्छेद को आजकल बुरा नहीं समझा जाता। विवाह का आधार - प्रेम या श्रद्धा - की भावना न रहकर, भौतिकता की भावना हो चुकी है। इसके अतिरिक्त अन्तर्जातीय विवाह भी पारिवारिक विघटन के प्रमुख कारणों में है। अधिकांश युवक युवतियाँ बिना सोचे-समझे गलत चुनाव करके, प्रेम विवाह रचा बैठते हैं और बाद में एक दूसरे की रुचियाँ, मानसिक स्तर भिन्न पाने पर, एक दूसरे से दूर भागते हैं। यह प्रवृत्ति भी संयुक्त परिवार प्रथा को समाप्त कर रही है।
इसके अतिरिक्त नई पीढ़ी ही नहीं, पुरानी पीढ़ी भी पारिवारिक विघटन के लिए काफी सीमा तक जिम्मेदार है। माता-पिता भी परिवर्तित मानमूल्यों व सिद्धान्तों के साथ समझौता करने की तैयार नहीं होते। वे नई पीढ़ी से आशा करते हैं कि उनकी जीर्ण-शीर्ण मान्यताओं और रूढ़वादिता की वे सहर्ष स्वीकार कर जीवन में अपनाए। नियन्त्रण में रहे। लेकिन जब उनकी इच्छाओं के विरुद्ध पीढ़ी मनमाना आचरण करती है,तो वृद्धजन उनकी कटु आलोचना करते हैं, जो पारिवारिक वातावरण को दूषित करती है। जिससे पारिवारिक सदस्य एक दूसरे से दूर होते जाते हैं।
आज के भौतिकवादी युग में धर्म का भी महत्व घट रहा है। पहले तलाक को पाप समझा जाता था लेकिन आजकल विवाह विच्छेद अधार्मिक पाप कृत्य नहीं समझा जाता जैसा कि ‘वैस्टर मार्क’ ने लिखा है- “पारिवारिक जीवन व्यक्ति के लिए आज उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा जितना कि कई वर्ष पूर्व था। यह स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही कम महत्वपूर्ण हो चुका है। अवैवाहिक जीवन की तुलना में वैवाहिक जीवन के लाभ कुछ अर्थों में कम हो गए है।66 संयुक्त पारिवारिक जीवन की पवित्रता, उच्चता में विश्वास समाप्त होता जा रहा है। इस प्रकार ये सब कारण पारिवारिक सुख और शान्ति तथा सुव्यवस्था को भंग कर रहे हैं। वर्तमान युग में इस पारिवारिक विघटन का सर्वाधिक उत्तरदायित्व औद्योगीकरण पर ही है, जिसके कारण अनेक प्रकार के पारिवारिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक तनाव विकसित हुए हैं तथा व्यक्तियों का भौतिकवादी दृष्टिकोण पनपा है।
अमृतलाल नागर के उपन्यासों में असंयुक्त परिवारों का चित्रण
नागर जी के उपन्यासों में असंयुक्त परिवार के अनेक चित्र मिलते हैं। लेकिन ऐसे चित्र कम ही हैं तथा विस्तृत नहीं है। यथा - ‘बूँद और समुद्र’ के मि. वर्मा और उनकी पत्नी तारा का एक सीमित आकार वाला असंयुक्त परिवार है। दोनों ने प्रेम विवाह किया है, साथ ही यह विवाह अन्तर्जातीय भी है। लेकिन दोनों का दाम्पत्य जीवन सुख और शान्ति से भरा पूरा है। दोनों एक दूसरे के लिए अगाध प्रेम रखते हैं। ‘अब्राहम बी.शोलजन’ ने एक ऐसे ही सुखी परिवार के विषय में कहा है कि “जो व्यक्ति अपनी पत्नी को अपने ही समान प्रेम करता है तथा अपने से अधिक आदर देता है, उसके घर में सुख और शान्ति निवास करती हैं।”
दूसरी ओर ‘ताई’ का परिवार इतना आणविक है कि उसके सिवाय घर में दूसरा कोई प्राणी नहीं। मन बहलाव के लिए ताई बिल्ली के बच्चों को पाल लेती है। ‘ताई, का विवाह शहर के प्रसिद्ध व्यक्ति ‘रामबहादुर द्वारकाप्रसाद’ के साथ हुआ था। जिनसे ताई का, विवाह के कुछ समय बाद ही, अलगाव हो गया था। फलतः द्वारकाप्रसाद ने दूसरा विवाह कर लिया था। अहंकारिणी, क्रोधी ताई उसी रात से पति गृह छोड़कर द्वारकाप्रसाद के पुरखों की हवेली में वास करने लगी थीं। तब से कभी भी लौटकर पति के पास नहीं गई। एक तो स्वभाव से क्रोधी और चिड़चिड़ी, उसपर भी पति परित्यक्ता ताई, मुहल्ले भर में अपने जादू-टोने के लिए प्रसिद्ध हो जाती हैं। वह अपने असन्तुष्ट जीवन को कड़वाहट, जादू-टोने द्वारा दूसरों के सुखी जीवन में बिना बात ही उड़ेलती रहने वाली स्त्री है।
‘बूँद और समुद्र’ के ‘सज्जन’ और ‘वनकन्या’ भी एक असंयुक्त परिवार के सदस्य हैं। वनकन्या क्रान्तिकारी विचारों वाली विद्रोहिणी नारी है। उसे जनसंघ से मानसिक लगाव है। उसके ये राजनीतिक विचार तथा पिता का भाभी के प्रति अनैतिक आचरण उसे अपना घर छोड़ने पर विवश कर देता है। इसी बीच उसकी भेंट होती है एक उच्च कुलीन घराने के लड़के सज्जन से, जो एक चित्रकार है। वह वंश परम्परानुसार मिलने वाली बहुत बड़ी जायदाद व सम्पत्ति का मालिक है। उसके माता-पिता का देहान्त हो चुका है। फलतः एकाकी सज्जन को क्रान्तिकारिणी, देखने में सुन्दर, भोली-भाली, गौरवर्ण वाली किशोरी वनकन्या पहली भेंट में ही प्रभावित करती है। दोनों की मित्रता हो जाती है। शनैः शनैः यही मित्रता प्रेम का रूप ले लेती है। अन्ततः प्रेम विवाह में परिणत हो जाता है। दोनों उसी शहर में अपनी गृहस्थी बसाते हैं तथा कभी-कभी वनकन्या अपने घर वालों से मिलने भी जाती है। लेकिन दोनों पति-पत्नी परिवार से अलग ही रहते हैं।
‘अमृत और विष’ के ‘रमेश’ और ‘रानी’ ने अर्न्तजातीय विवाह किया है, जो सफल सिद्ध होता है। दोनों संयुक्त परिवार प्रणाली के विरुद्ध हैं क्योंकि उनके अनुसार संयुक्त परिवार प्रथा व्यक्तित्व विकास में बाधा उत्पन्न करती है। अतः विवाह के बाद रमेश और रानी परिवार से अलग होकर एक किराये के मकान में रहते हैं।
जबकि ‘भवानी शंकर’ भी एक दूसरी जाति की लड़की से विवाह करके अपना घर बसाते हैं लेकिन उनका अन्तर्जातीय प्रेम विवाह असफल हो जाने के कारण, उनका यह आणविक परिवार भी समाप्त हो जाता है।
इसी प्रकार ‘सुमित्रा’ जो आयु में ‘रानी’ के बराबर है, रानी के पिता ‘रद्धू सिंह’ से विवाह करती है लेकिन आयुभेद के कारण उनका परिवार भी पारस्परिक कलह से विघटित हो जाता है।
इसके अतिरिक्त ‘शतरंज के मोहरे’, ‘सात घूँघट वाला मुखड़ा’, ‘एकदा नैमिषारण्ये’, ‘मानस हा हंस’, ‘सुहाग ने नूपुर’, में असंयुक्त परिवारों के चित्रण की ओर लेखक का ना तो उतना ध्यान गया है और न ही उनके चित्रण का अवसर ही मिला है जितना कि मानवीय भावनाओं, सम्वेदनाओं और कुण्ठाओं के चित्रण का।
इस प्रकार लेखक ने ‘संयुक्त’ और ‘असंयुक्त’ दोनों ही प्रकार के परिवारों के सजीव चित्र प्रस्तुत किए हैं। पारिवारिक सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्धों, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाजों, ईर्ष्या-द्वष की भावनाओं तथा संयुक्त परिवार के सदस्यों की कुण्ठाओं, बन्धनों व अनियमितताओं के चित्रण के साथ, आधुनिक आणविक परिवारों की विभिन्न समस्याओं की ओर संकेत किया है।
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