एक व्यक्ति उखड़ा हुआ
डॉ. दीप्ति गुप्ताफिर वही दिल सालने वाला अँधेरा चारों और घिर आया। रात होते ही नीरा का दिल न जाने कैसी उलझन, खीज और टीस से भर उठता है। उसका दिन भर का सुघड़, शान्त व्यक्तित्व निस्तब्ध अँधेरे में टूटने लगता है। तभी विकास के कदमों की आहट पाते ही उसने हड़बड़ाकर जल्दी से स्विच ऑन किया। कमरा ट्यूब लाइट के उज्ज्वल प्रकाश से भर उठा। मौलकर गिरती हुई चूड़ियों की खनक सी हँसी हँस कर नीरा फिर वही रोज का घिसापिटा वाक्य दोहरा उठी - "आज फिर बहुत देर हो गई आपको"................।
विकास दफ्तर की भारी सी फाइल मेज पर रखने में व्यस्त था। उस उपेक्षा भरे रूखे भाव से अपने को बचाती नीरा तेजी से रसोईघर में पहुँच गई। बर्तनों की खटर-पटर में वह अपने दिल की कसक दबाने का प्रयत्न करने लगी। आखिर विकास उसे कब समझेगा। अगर वह इन्वट्रोवर्ट है तो उसका यह मतलब तो नहीं कि उसकी कोई फीलिंग्स नहीं, कोई इच्छाएँ नहीं। नीरा ने भाप उठता चाय का कप विकास के सामने रख दिया।
विकास गर्म-गर्म चाय पी कर खूब तरोताज़गी से भर उठा। वह खूब हँस-हँस कर अपने आफिस की दिनचर्या उसे बताने लगा । उसके बोलने के ढंग में कुछ ऐसा खिजाऊपन है, जो नीरा को बिलकुल नहीं भाता। बेबात की शान जताना, ऊँची-ऊँची खोखली बातें बनाना, विकास की यही आदत नीरा के दिल में कहीं गहरी चुभने लगती है। पर विकास अपनी आदत से मजबूर है। वह चाह कर भी विकास को इस आदत के लिए नहीं टोक पाती। क्यों उसे पता है कि विकास उसके टोकने पर एकदम आग बबूला हो उठेगा। विकास के गुस्से से नीरा बहुत घबराती है।
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रात के दस बजने तक घर के सब कामों से निबटकर नीरा अपने कमरे में आती है। उसे महसूस होता है कि उसका कमरा एक अर्थहीन ख़ामोशी से भरा है। विकास पलंग पर बैठा कुछ कागज़ देखने में व्यस्त है- उसकी उपस्थिति से एकदम अनजान। उसके दिल में कहीं हूँक सी उठती है, पर शान्त कदमों से अपने पलंग पर आकर लेट जाती है। विकास से कुछ कहने के लिए उसका दिल बार-बार धड़कता है, दिमाग की नसें फड़कने लगती है, खून उसके शरीर में तेज़ी से दौड़ने लगता है, पर शब्द उसके मुँह तक आकर फिर गले से नीचे फिसल जाते हैं। विकास काम खत्म करके लाइट ऑफ करके बिस्तर पर पड़ते ही खर्राटे भरने लगता है। नीरा घुप्प अँधेरे में आँखें फाड़-फाड़ कर अपने सामने वाली दीवार की दूरी देखने का प्रयत्न कर रही है। अँधेरे ने उस दूरी को ढाँप दिया है, पर विकास से उसकी दूरी को जैसे और बढ़ा दिया है। इससे तो उजाले में वह विकास के अधिक निकट होती है।
रूखे स्वभाव का अनसेंटीमेंटल, निरा भौतिकवादी यह आदमी उसका पति है। नीरा की निजी भावना का उसे ख्याल नहीं। नीरा का हृदय उस नीरव अंधकार में चीत्कार कर उठता है। उसका मन होता है कि वह उसी समय पास में सोये विकास की बाँह खींचकर उसे जगा दे और उसके सामने फूट पड़े। पर नहीं, सब कुछ जंगल में रोने के समान व्यर्थ होगा।
सबेरा होते ही नीरा फिर अपने आपको घर के कामों में झोंक देती है। ठण्ड से सिकुड़ती, माथे तक घूँघट किए, नीरा जल्दी-जल्दी माताजी और पिताजी के लिए चाय नाश्ता बनाती है। तभी शिवा आकर टोकती है – “भाभी मैं आज हैवी ब्रेकफास्ट लेकर कॉलिज जाऊँगी। आज मुझे कुल ४ पीरियडस अटैंड करने हैं। खाना आकर खाउँगी।“
"अच्छा शिवा बीबी" - उत्तर देकर नीरा फिर सौम्यता की मूर्ति बनी रसोईघर के कामों में जुट जाती है। सास जी की छुआछूत के कारण नीरा को गर्मी हो या सर्दी सवेरे-सवेरे ज़रूर नहाना पड़ता है। अगर कभी भूल चूक हो जाए तो सासजी का पारा सातवें आसमान पर होता है।
कितनी बदल गई है नीरा इन पन्द्रह वर्षों में। उसने अपने बोल्ड व्यक्तित्व, अपनी महत्वाकाँक्षाऒं और इच्छाओं को जिस तरह कुचला है, वही जानती है। पर उसके इस महान त्याग का फल भी तो उसे मिला है। वह सारे घर की चहेती है। माताजी पिताजी तो उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते और विकास उसकी प्रशंसा सुन-सुनकर फूला नहीं समाता है। पर यह सब तभी तो है, जब कि वह अपना सबकुछ होम करके इस घर के नियम, धरम, करम को तन मन से निभा रही है, अगर आज से ही वह ऐसा न करे तो सब को दुश्मन-सी और अवगुणों की खान नज़र आने लगे। पर ऐसी प्रशंसा, ऐसे प्यार का भी क्या लाभ जिसके लिए उसे अपना तन - मन घोलना पड़ा। अगर ससुराल वाले उसकी कमियों को भी स्वीकार कर उसकी प्रशंसा करें, उसे प्यार करें तो वह अपने को भाग्यशाली समझे। सारे दिन घर के कामों में लगी रहती है, तो क्या कोई जान सकता है कि वह वास्तव में अन्दर से एक टूटी हुई औरत है। उसे घोर आश्चर्य होता है अपनी इस संयतता पर। रोज़ सवेरा होते ही वह एक दूसरा लिबास पहने हुई होती है - अपने असली व्यक्तित्व से एकदम अजनबी !! सास, ससुर, ननद, देवर सब सोचते हैं कि नीरा कितनी सुघड़ और शान्त स्वभाव की है। पर उसके अन्दर उठते तूफ़ान से वे सरासर अनजान रहते हैं। क्या वे लोग ही उसे समझना नहीं चाहते या वही अपने को उन्हें समझाना नहीं चाहती। क्या दूसरों की सेवा करना ही जैसे उसका परम धर्म है ? एक शहीदाना भाव से गृहणी के, पत्नी के कर्तव्य पूरा करना नीरा की रोज की दिनचर्या है।
इस घर में आते ही नीरा की सारी रुचियाँ अनजाने जगह से घबराए हुए पखेरू की तरह न जाने कौन सी दिशा में खो गईं। संगीत के पीछे कभी वो कैसी दीवानी रहती थी। जब वह सितार बजाने में लीन होती तो उसे फिर अपनी सुधबुध न रहती। रविशंकर का सितार वादन सुनने का कितना चाव था उसे। शादी से पहले कभी महादेवी वर्मा की कविताओं में डूबी रहती, तो कभी शैक्सपियर के नाटकों के पात्र उसे सुन्दर कल्पना लोक में खींच ले जाते। पर अब कहाँ गये वो दिन....! विकास को पिक्चर देखना पसन्द नहीं तो उसे भी पिक्चर देखे हुए वर्षों बीत गए हैं।
नीरा ने इस घर के अजीबोंगरीब लोगों से उनकी आदतों से सहज ही में कब और कैसे समझौता कर लिया- आज वह इस बारे में सोचती है तो उसका सिर चकराने लगता है। उसके दिलों दिमाग की विस्तृत दुनिया आज बस चूल्हे-चौके तक ही सिमटकर रह गई है। वह सबमिसिव है तो उसकी इस घर में सबके साथ निभ रही है। अगर कहीं वह अग्रेसिव होती तो निश्चय ही विद्रोह कर उठती इस सीमित, संकुचित वैवाहिक संसार के विरुद्ध। अब तो उसे मन मारने की इतनी आदत पड़ गई कि दिल कभी विद्रोह भी करने लगता है तो वह उसे दबा लेती है। चेहरे पर मुस्कान बिखेरे - संलग्न रहती है अपने कर्तव्य पूर्ण करने में।
अपने अस्तित्व को ससुराल वालों के अस्तित्व में रंग देने का एक और भी तो मुख्य कारण है नीरा के सामने- विकास के प्रति उपजा गहरा असंतोष। किसी भी विषय पर, किसी भी क्षेत्र में तो उसके और विकास के विचारों में साम्य नहीं हैं। भव्य व्यक्तित्व वाला पति और उसके प्रेम से सराबोर वैवाहिक जीवन - विकास ने नीरा के इस सलोनी कल्पना को अनजाने ही खण्डहरों में परिवर्तित कर दिया था। अब नीरा भले ही विकास को खुश करने के लिए उसकी हाँ में हाँ मिलाती रहे, पर अन्दर से तो उसका दिल जानता है कि उसे विकास के दकियानूसी और तानाशाही विचारों से सख्त नफ़रत है। पर सोचती है कि अप्रिय स्थिति क्रिएट करने से तो बेहतर है खामोश रहना। पर ऐसी भी क्या चुप्पी और दिल को मसोसना कि अपना अस्तित्व ही न रहे और एक उखड़ी हुई ज़िन्दगी बनकर जिया जाए।
अब वह भी क्या करे। उसे भी ऐसी ज़िन्दगी जीने की आदत पड़ गई है। उससे लगाव सा हो गया है। वह चाहती तो सब कुछ त्याग कर नया स्वच्छन्द जीवन बीता सकती थी, पर उसका दिल ही नहीं किया ऐसा करने को। इन पन्द्रह वर्षों में तो वह टूटकर इतनी टुकड़े- टुकड़े हो चुकी है कि अब अपने को समेटकर अपना पहला सा रचनात्मक व्यक्तित्व पुनर्जीवित करना उसे सम्भव नहीं लगता।
“भाभी जोर से भूख लगी है", शिवा ने आकर उसकी मौन समाधि तोड़ दी। नीरा की शिथिल देह में न जाने कहाँ से बिजली की सी फुर्ती आ गई। उठकर गई और ननद के लिए थाली परोस लाई। शिवा अपने स्थूल हाथों से रोटी के कौर बनाबना कर खाने लगी। शिवा के विवाह की चिन्ता माताजी, पिताजी और विकास को खाए जाती है। कोई लड़का पसन्द नहीं करता शिवा को, उसके स्थूल शरीर के कारण। नीरा शिवा का चेहरा देखती है तो उसे लगता है कि अगर वह छरहरे बदन की होती तो कितनी प्यारी लगती। पर उसकी शारीरिक स्थूलता ने उसके चेहरे के सौन्दर्य को भी छिपा दिया है। शिवा के चेहरे से साफ झलकता है कि विवाह के लिए बेहद उत्सुक है। पर विडम्बना है कि लड़का नहीं मिलता। नीरा को मन ही मन अपनी ननद पर बहुत तरस आता है। सहसा ही नीरा के मन में प्रश्न उठता है कि तीक्ष्ण स्वाभाव की उसकी ननद जिस घर में जायेगी क्या उसकी तरह निबाह कर सकेगी सबसे? शायद नहीं। जैसा उसका तीखा स्वभाव है, उससे तो वह अपने आस पास के लोगों की ज़िन्दगी दूभर बना देगी। पर नीरा की तरह अपनी ज़िन्दगी को तो दूभर नहीं बनने देगी। नीरा की इतनी अधिक समझदारी भी किस काम की। आखिर अनिच्छापूर्वक उसने पन्द्रह वर्षों से अपनी रुचि के विरूद्ध पति को, मायके से एकदम विपरीत घुटन भरे ससुराल के वातावरण को क्यों सहा, अपनी सारी रुचियों का त्याग कर, अपनी महत्वाकांक्षा, एक-एक इच्छा को अपने से जूझ-जूझ कर क्यों सुलाया? ऐसा भी क्या दब्बूपन, ऐसी भी क्या समझदारी?
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शाम हो गई है। माताजी अपने संध्या पूजन की तैयारी के लिए खड़ाऊँ पहने खटपट करती हुई इधर से उधर फिर रहीं हैं। बीच वाले कमरे से निरन्तर पिता जी के खाँसने की आवाज नीरा को अस्वस्थ सा बना रही है। विकास भी दफ्तर से आता ही होगा। आँगन की सामने वाली दीवार के कोने पर से, धूप का टुकड़ा धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है ठीक नीरा के दिल की तरह। थोड़ी ही देर में फिर वही भांय-भांय करती घोर कालिमा चारों ओर स्याही पोत देगी। नीरा का दिल फिर टीसने लगा है- रोज की तरह। कहीं से इस उदास गाने की कड़ी-"ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोय" नीरा के दिल की टीस को और भी गहरा जाती है..........।