समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन)

समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन)  (रचनाकार - डॉ. दीप्ति गुप्ता)

‘आर्थिक जीवन’

“अर्थ्यते, प्रार्थ्यते, काम्यते लोक सुख विवृद्धया इति” अर्थात् अर्थलोक सुख विवृद्धि  के लिए जिसकी कामना की जाती है उसे ‘अर्थ’ कहते हैं। इस सुख वृद्धि  हेतु विश्व के बड़े-बड़े अर्थशास्त्री हुए, जिन्होंने अर्थशास्त्र के रूप, अर्थ के विज्ञान को जन्म दिया, जो मानव समाज की व्यष्टि-समष्टिगत उन चेष्टाओं का पर्यालोचन करता है,जिनका घनिष्ठ संबंध भौतिक सुख सामग्रियों से है, उनकी उपलब्धि व उपयोग से है। इसी प्रकार अर्थशास्त्र धन तथा तद्विषयक मानवीय वासनाओं, संकल्पों और उद्योगों आदि का अध्ययन करता है। धन का समानार्थी एक दूसरा शब्द भी लोक प्रचलित है - सम्पत्ति, “सम्पद्यतः इति सम्पत्ति” अर्थात् जो प्राप्त की जाती है वह सम्पत्ति है। इसी अर्थ अर्थात् धन की प्रप्ति के लिए व्यक्ति अनेक प्रकार के साधनों को अपनाता है तथा अर्थोपार्जन करता है। पदार्थ की प्राप्ति के लिए दो प्रकार का श्रम करना पड़ता है। ‘शारीरिक’ और ‘बौद्धिक’। अक्समात् उपलब्ध पदार्थ को अपवाद अवश्य कहा जायेगा। लेकिन पदार्थ प्राप्ति हेतु श्रम अति आवश्यक है और यह भी साधारणतया दो ही प्रकार का होता है। इसके आधार पर समाज को तीन वर्गो में बाँटा जा सकता है। ‘वर्ग’ शब्द एक विशिष्ट अर्थ वाचक है। ‘भगवान प्रसाद’ ने वर्ग की व्याख्या करते हुए लिखा है - “व्यक्तियों का वह समाज ‘वर्ग’ कहलाता है, जिसके आर्थिक हित समान हों। तात्पर्य यह है कि उनके समान आर्थिक हित, उनके आर्थिक विरोधों की प्रभावित करते हों।”

‘मार्क्स’ के अनुसार - व्यक्तियों के उस समवाय को ‘वर्ग’ नहीं कहा जा सकता, जिसके रहन-सहन का स्तर समान हो तथा उत्पादन व सृजन शक्ति भी समान हो। वरन् ‘वर्ग’ वह वास्तविकता है, जो उन व्यक्तियों से श्रेष्ठतर हो, जो इसका निर्माण करते हैं। तात्पर्य यह है कि व्यक्तियों के मध्य एकीभाव का होना आवश्यक है जो उन्हें परस्पर संबंधित रखता हो।

‘मार्क्स’ ने तीन वर्गो को स्वीकार किया है - (1) मजदूर वर्ग (2) व्यापारिक पूँजीपति (3) भूमिपति।

‘जोजफ’ ने वर्ग की व्याख्या इस प्रकार की है कि “समान क्रियाकलाप तथा रहन-सहन और व्यवहार के विशेष तरीके वाला व्यक्तियों का समूह ही सामाजिक वर्ग कहलाता है”।

‘टी.बी.बोटोमूर’ के अनुसार - “सामाजिक वर्ग, जाति सामन्तवादी भूसम्पत्ति के विरुद्ध अनन्य आर्थिक समूह है।”

‘प्लेटों’ ने समाज के व्यक्तियों को तीन वर्गों में बाँटा है - (1) श्रमिक वर्ग (2) प्रशासन एवं सेना सम्बन्धी क्तव्यों को मानने वाले (3) राज्य सम्बन्धी वर्ग अर्थात् जो राज्य करते हैं।

लेकिन इन सभी वर्गीकरणों से पृथक समाज के व्यक्तियों के, उनके श्रम के आधार पर तीन नए वर्ग किए जा सकते हैं। जो मानसिक श्रम करते हैं वे ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ के अन्तर्गत आते हैं। जो मानसिक और शारीरिक श्रम अर्थात् मिश्रित श्रम करते हैं वे ‘व्यापारी वर्ग’ में आ जाते हैं तथा जो केवल शारीरिक श्रम करते हैं वे ‘श्रमिक वर्ग’ के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार तीन वर्ग स्पष्ट हैं - (1) बुद्धिजीवी वर्ग (2) व्यापारी वर्ग (3) श्रमिक वर्ग।

नागर जी के उपन्यासों में इन तीनों प्रकार के वर्गों का विस्तृत चित्रण मिलता है। तीनों वर्ग अपने-अपने श्रम द्वारा अपनी आवश्यक तथा भोग विलास की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं। बुद्धिजीवी वर्ग में वे सब व्यक्ति आते हैं जो बुद्धि के उपयोग से बौद्धिक श्रम करते हैं यथा - लेखक, चिकित्सक, वकील, अध्यापक, चित्रकार, क्लर्क, व समस्त सरकारी नौकर। बौद्धिक श्रम करने वाला व्यक्ति अपने श्रम से उत्पन्न ‘अर्थ’ से शारीरिक सुख प्राप्त करता है , साथ ही उसे एक प्रकार का मानसिक सन्तोष भी मिलता है।

 

‘नागर जी के उपन्यासों में आर्थिक परिस्थितियों का चित्रण’

 

‘महाकाल’

(1) ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ - महाकाल का नायक पाँचू अपने गाँव के एक छोटे से स्कूल में अध्यापक है। यही अध्यापन कार्य उसकी जीविकोपार्जन का एक मात्र साधन है। उसके स्कूल में गाँव के अमीर-गरीब, उच्च जाति-निम्न जाति वाले, सभी तरह के बच्चे पढ़ते हैं। लेकिन अकाल की विभीषिका से दुःखी ग्रामवासियों को अपने बच्चों को शिक्षा से अधिक उनके पेट भरने की चिन्ता सताने लगती है और भूखे बच्चे अपनी चार दीवारी में सिमटते जाते हैं। फलतः स्कूल के बच्चों की संख्या दिन पर दिन घटती जाती है। गाँव के जमींदार के बच्चों को भी पाँचू पढ़ाता है। उससे भी पाँचू को आय हो जाती है। लेकिन इसके अतिरिक्त उसके पास आय का कोई साधन नहीं है, मात्र विद्या ही है।  शिक्षित होने के कारण गाँव के व्यक्ति पाँचू का बहुत आदर करते हैं।

(2) ‘व्यापारी वर्ग’ - इस उपन्यास का एक अन्य पात्र है ‘मोनाई केवट’। उसकी गाँव में राशन की दुकान है। यह एक ऐसा कठोर हृदय व लालची व्यक्ति है जो अकालग्रस्त ग्रामवासियों को चावल महँगे दामों में बेचकर आवश्यकता से अधिक धनोपार्जन करता है। मोनाई की हार्दिक इच्छा है तथा उसकी व्यापारी बुद्धि उसे सदैव, मरने से पहले कलकत्ता में एक बहुत बड़ी जमींदारी खरीद लेने को प्रेरित करती रहती है। वह अपने करोडपति बनने तथा ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों का स्वामी बनने के स्वप्न देखा करता है।

एक दूसरा पात्र है ‘दयाल जमींदार’ जो अपनी जमींदारी के सूद-ब्याज के दाँव पेंचों द्वारा अबाधगति से अर्थोपार्जन में रत है। जहाँ एक ओर गरीब किसान व मजदूर भूख से तड़प रहे हैं, वहाँ दूसरी ओर उसी ग्राम में दयाल जैसे पूँजीपति भोगविलास रत हैं। गाँव भर का अनाज दयाल और मोनाई जैसे आततायी खा जाते हैं। “हमारी खुराक, हमारे तन ढकने के कपडे, उनकी तिजोरियों में नोटों के बण्डल, सोने-चाँदी और हीरे जवाहरात के तोड़ों की शक्ल में हिफाजत से रखे हैं। एक ओर भुखमरी का ताण्डव नर्तन हो रहा है, तो दूसरी और दयाल जमींदार अपने शीश महल में बैठा यूनियन बोर्ड के सेक्रेटरी ‘मि. दास’ के साथ कीमती मदिरा पान कर रहा है। संवेदनशील पाँचू भावुक होकर सोचता है - “इस गिलास में जितनी कीमत का पानी भरा है, उससे दस आदमियों का पेट भर सकता है। भुखमरों की मौत ही इस गिलास के सुनहरे पानी में नशा बनकर हम लोगों को खुश कर रही है। आइए, हम हजारों की मौत का एक जाम पिये।”

(3) ‘श्रमिक वर्ग’ - महाकाल के ‘कानाई मास्टर’ तथा ‘मुनीर’ बढ़ई ऐसे पात्र हैं जो शारीरिक परिश्रम द्वारा आजीविका चलाते हैं। कानाई का खानदानी व्यवसाय है मिस्त्रीगिरी। कानाई मास्टर पाँचू का बालसहपाठी था। लेकिन बाद में पिता ने पढ़ाई लिखाई छुडाकर मिस्त्री बना दिया। कानाई ऐसा कुशल मिस्त्री बना कि थोड़े ही समय में उसने लुहार के रूप में अच्छी ख्याति व सम्पत्ति अर्जित कर ली।

मुनीर बढ़ई, बढ़इगिरी से अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। वही उसकी जीविका का एक मात्र साधन था। लेकिन दुर्भिक्ष असमय ही उसका भक्षण कर, उसकी पत्नी को सदा के लिए अनाथ और असहाय बना देता है।

‘सेठ बाँकेमल’

(1) ‘बुद्धिजीवी वर्ग’  -  सेठ बाँकेमल के डा. मूंगाराम बुद्धिजीवी वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। वे अपने चिकित्सा कौशल द्वारा अँग्रेजों से रायबहादुर की पदवी प्राप्त करते हैं तथा इसी व्यवसाय द्वारा अर्थोपार्जन कर जीविका निर्वाह करते हैं।

(2) ‘व्यापारी वर्ग’- इस उपन्यास के मुख्य पात्र ‘पारसनाथ चौबे’ तथा ‘सेठ बाँकेमल’ दोनों ही हीरे जवाहरातों के व्यापारी हैं। इसी व्यापार हेतु वे बम्बई, दिल्ली आदि का भ्रमण करते हैं तथा व्यापार में लाभ होने पर धन को पानी की तरह बहाते हैं। अपने मित्र पारसनाथ जी की मृत्यु के बाद सेठ जी सलमा सितारे, गोटे किनारे की दुकान खोल लेते हैं। वही उनकी जीविका का एक मात्र साधन है।

(3) ‘श्रमिक वर्ग’ - नागर जी ने अखाड़े व पहलवानी का चित्रण कर इसे भी धनोपार्जन का एक साधन बताया है। यद्यपि सेठ बांकेमल और चौबे जी दोनों मुख्यतया व्यापारी वर्ग के ही व्यक्ति हैं लेकिन शौकिया तथा मनोरंजन हेतु चौबे जी एक बार अपने से बड़े व अधिक ताकतवर पहलवान से कुश्ती में जीतकर चाँदी की गदा उपहार स्वरूप प्राप्त करते हैं। सेठ जी का कथन है - “कलट्टर साब ने अपने हाथ से भैयो, चाँदी की गदा चौबे को दीनी।”

 

‘बूँद और समुद्र’

(1) ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ - ‘बूँद और समुद्र’ का महिपाल अनेक भौतिक और भावनात्मक समस्याओं से घिरा हुआ एक विचारशील प्रबुद्ध लेखक है, जो उपन्यास लेखन द्वारा ही अर्थोपार्जन कर अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। कुछ समय तक उसने ‘सुधा’ नामक पत्रिका का भी सम्पादन किया जिससे उसे 40 रुपये महावार की आय हो जाती थी। ‘सुधा’ कार्यालय में उसकी भेंट उच्च कोटि के साहित्यकारों से हुई, जो उसके साहित्यिक विकास में सहायक हुए। बाद में लेखन के साथ कुछ समय तक उसने शहर के प्रसिद्ध ‘सेठ रूपरतन’ के प्रेस के साप्ताहिक अखबार ‘नवचेतना’ का सम्पादन किया। सेठ जी महिपाल को 500 रुपये महावार वेतन देते थे। लेकिन 300 रुपये त्याग के नाम पर काट लिए जाते। एक बार रूपरतन की मीठी लूट नीति की पोल खुलने पर महिपाल उनकी प्रेस से त्याग पत्र दे देता है तथा एक मात्र लेखन पर ही आश्रित हो जाता है।

डा. शीला स्विंग, महिपाल की प्रेमिका, जो शहर के उच्च कोटि के चिकित्सकों में से एक है, वह अपनी प्राइवेट प्रेक्टिस करती है तथा अपनी आवश्यकता से अधिक धनोपार्जन कर आराम से रहती है। वह एक कुशल महिला डाक्टर हैं।

महिपाल का भाई जयपाल एक एम.बी.बी.एस. डाक्टर है, जिसे महिपाल ने ही मेहनत व परिश्रम कर इस पद तक पहुँचाया। वह शहर का एक प्रख्यात चिकित्सक है।

उपन्यास नायक, रायबहादुर का पोता ‘सज्जन’ वंश परम्परानुगत चली आ रही जायदाद का मालिक है। उसने पाँच वर्ष वाला आर्ट स्कूल का डिप्लोमा लिया है तथा शौकिया चित्रकार है। विपुल पैतृक सम्पत्ति के कारण वह अपनी चित्रकारी से धन अर्जित करने का इच्छुक नहीं है।

(2) ‘व्यापारी वर्ग’ - ‘बूँद और समुद्र’ के मि. वर्मा एक कुशल रेडियो मैकिनिक हैं, शहर में उनकी एक छोटी सी रेडियों की दुकान है। यही व्यवसाय उनकी आय का एक मात्र आधार है, जो उनके दो प्ाणियों वाले (स्वयं व पत्नी तारा) लघु परिवार के लिए बहुत काफी है। यद्यपि दुकान छोटी है लेकिन मि. वर्मा की कुशाग्र बुद्धि व लगन और मेहनत के कारण खूब चलती है। अतएव वर्मा जी की उससे अच्छी खासी आमदनी हो जाती है। सज्जन और महिपाल का मित्र श्री नगीनचन्द उर्फ ‘कर्नल’ लखनऊ की एक पुरानी व प्रसिद्ध अँग्रेजी दवाओं की दुकान का मालिक है। इसी दुकान द्वारा वह आजीविका निर्वाह करता है। महिपाल, सज्जन और कर्नल अभिन्न मित्र हैं। चंदा देने वालों में कर्नल का नाम शहर के गिने चुने लोगों के साथ लिया जाता है, जो उसकी अच्छी आय का सूचक है।

एक अन्य पात्र हैं ‘सेठ रूपरतन’ जो एक प्रेस मालिक हैं, जिससे उन्हें मोटी रकम प्राप्त होती है। “रूपरतन ने इस संस्था को समाजवादी घोषित किया था। वह बार-बार जोर देकर यह बात कहते कि यह संस्था उनके निजी मुनाफे के लिए नहीं खोली गई, बल्कि लेखकों, कवियों और प्रेस कर्मचारियों की आर्थिक सहायता तथा समाजवाद का प्रचार करने के लिए ही स्थापित की गई है। जबकि वास्तविकता यह है कि वे प्रेस में काम करने वालों की तनख्वाहों में से आधा रुपया तो त्याग के नाम पर काट लेते हैं और उससे अपनी तिजोरी भरते है। बाद में काँग्रेस टिकिट पर एम.एल.ए. होकर वे पार्लियामेन्ट सेक्रेटरी हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त वे काँग्रेस के कुशल नेता व कोषाध्यक्ष भी थे, साझे में विलायती शराब की दुकान भी चलाते थे।”

रूपरतन के पिता ‘सेठ भजगोविन्ददास’ बड़े साहूकार थे, उन्हीं के धन की सहायता से पुत्र रूपरतन ने हैण्डलूम फैक्टरी खोल रखी थी। इसके अलावा वैद्यों को रखकर वे आयुर्वेद रसायनशाला और औषधालय भी चलाते थे। इस प्रकार बहुधन्धी रूपरतन को खासी आमदनी होती थी। ‘सेठ जानकीशरण’ और ‘सालिगराम जी’ ऐसे पात्र है जो सूद ब्याज, ट्रस्ट सँस्था आदि के माध्यम से जनता का खून चूस-चूस कर धन वृद्धि  में संलग्न हैं। 

‘भभूती सुनार’ का सोने के काम का धन्धा है। वह जेवर बनाता और गढता है तथा उसका बड़ा बेटा ‘मनिया’ भी पिता के साथ कारोबार सम्भालता है।

 

‘अमृत और विष’

(1) ‘बुद्धिजीवी वर्ग ’ -‘अमृत और विष’ का पात्र ‘अरविन्द शंकर’ एक लेखक हैं, जो लेखनी के माध्यम से अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। लेखक सदा से गरीब रहा है तथा इस क्षेत्र में कम्पोजीटर, छापाखाने वाले के द्वारा उसका शोषण भी छिपता नहीं है तथा पुरस्कार आदि मिलने पर उसके खुशामदियों की भी कमी नहीं रहती। अरविन्द को भी पकाशक का पुत्र ‘पद्मनाभन’ पुस्तक के लिए नोटिस दे देता है लेकिन बाद में पुरस्कार और सम्मान मिलने पर उसकी चापलूसी में लग जाता है। अरविन्द शंकर को लेखन द्वारा इतनी भी आय सरलता से नहीं हो पाती कि वह अपने परिवार का गुजारा भी ठीक से कर सके।

अरविन्द शंकर का छोटा पुत्र एक सरकारी उच्च पदाधिकारी है। वह अपनी इच्छानुसार प्रेम विवाह करता है लेकिन दुर्भाग्यवश एक दिन आत्महत्या कर लेता है।

(2) ‘व्यापारी वर्ग’ - इस उपन्यास में दूर-दूर तक ऐशिया में फैले हुए व्यापारी हिन्दुओं का वर्णन है। “सौदागरी और ब्याज बट्टा फैलाकर, ऐशिया में आपके हिन्दू दूर-दूर तक फैले हुए हैं” - इस वाक्य द्वारा लेखक ने हिन्दुओं के व्यापार द्वारा आजीविका निर्वाह करने का संकेत दिया है।

 

‘शतरंज के मोहरे’

(1) ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ - उपन्यास की स्त्री पात्र ‘बीबी मुलाटी’ शहर की एक प्रख्यात ज्योतिषिन है, जो ज्योतिष विद्या में अपनी सानी नहीं रखती। अपनी इसी विद्या द्वारा वह पदार्थ प्राप्त करती है।

नवाब गाजीउद्यीन हैदर, उनका पुत्र नसीरुद्दीन हैदर, दुलारी, बादशाह बेगम आदि ऐसे पात्र हैं, जो बुद्धि  के उपयोग से शासन व्यवस्था देखते व सम्भालते हैं। प्रजा व सेना की सुख-सुविधाओं का ख्याल रखते हैं तथा अनेक आवश्यक प्रबन्ध करते हैं। इनका सुख और उन्नति, इनकी प्रजा के सुख और उन्नति में ही निहित है।

(2) ‘व्यापारी वर्ग’ - उपन्यास में जमीदारों की जमींदारी प्रथा का वर्णन है, जिन्हें राजा द्वारा ऊँचे ठेके पर इलाके मिलते थे और वे किसानों से दुगुना चौगुना कर वसूल करने हेतु उन पर तरह-तरह से अत्याचार करते, जिससे हजारों किसान अवध छोड़कर, दुःखी होकर जान बचाने हेतु नेपाल की तराईयों में भाग गए थे और कुछ डाकू बन गए थे।

(3) ‘श्रमिक वर्ग’- रुस्तम अली, अवध शासक गाजीउद्यीन हैदर के शाही घोड़ों का साईस है, जो घोड़ों की देखभाल लगन और परिश्रम से करता है। इसी के द्वारा वह आजीविका निर्वाह करता है।

‘सुलखिया’ नामक बाँदी नवाब गाजीउद्यीन की सेवा व देखभाल कर जीविका निर्वाह करती है।

उपन्यास का एक पात्र है ‘नईम’ जो बाद में अवध की मलिका बन जाने वाली दुलारी का भूतपूर्व प्रेमी था, वह एक स्वाभिमानी युवक है जिसकी नवाब साहब के शाही बावर्चीखाने में नौकरी लग जाती है और इस प्रकार वह शारीरिक श्रम द्वारा अपनी जीविका अर्जित करता है।

इसी प्रकार ‘डी रसेट’ नामक एक अँग्रेज नाई अपनी कार्य दक्षता से नवाब नसीरुद्यीन का हृदय जीतकर उसके दरबार में आश्रय प्राप्त करता है नवाब उस पर असीम धन लुटाता है तथा उसे ‘सरफराज’ का खिताब भी देता है।

इसके अतिरिक्त अवध राज्य की सीमा में रहने वाले ऐसे अनेक कृषकों का उल्लेख है, जो खेती द्वारा अपने परिवारों का भरण-पोषण करते थे।

 

‘सुहाग के नूपुर’

इस उपन्यास में विशेष रूप से व्यापारी वर्ग का ही चित्रण मिलता है। ऐसा कोई पात्र नहीं है जो मात्र बुद्धिजीवी वर्ग के अंतर्गत आता हो।

(1)‘व्यापारी वर्ग’ - कावेरीपट्टनम् के प्रसिद्ध व्यापारी ‘सेठ मासात्तुवान’ की दूर-दूर तक ख्याति थी। वे अपने पुत्र ‘कोवलन’ को व्यापार संबंधी अनुभवों के लिए उत्तरी भारत भेजते हैं। यह नगर के व्यापारियों की नीति थी। प्रति पाँचवे वर्ष नवयुवक सेठ पुत्रों को इसी प्रकार अनुभव प्राप्ति हेतु भेजा जाता था।

मासात्तुवान चेट्टियार कावेरीपट्टणम के ही नहीं, समस्त दक्षिण भारत के स्थल सार्थवाहों के भी सिरमौर थे। उत्तर भारत में मथुरा, इन्द्रप्रस्थ, सुदूर नगरहाट तक के श्रेष्ठ व्यापारियों में मासात्तुवान की साख पुजती थी।

इसी प्रकार समुद्र पार के देशों में ‘मानाइहन चेट्टियार’ का नाम चमकता था। शूर्पारक, बावेरू, मिश्र, रोम आदि देशों तथा सिंहल, सुवर्ण, कटाह, यव आदि सुप्रसिद्ध द्वीपों तक मानाइहन चेट्टियार के सार्थ चलते थे। शहर के इन दोनों व्यापारियों में वर्षो से घनिष्ठतम व्यापारिक संबंध था।

नर्तकी ‘चेलम्मा’ के अरब वासी व्यापारी प्रेमी तथा कावेरी पट्टनम के प्रतिष्ठित जल सार्थवाह का उल्लेख है, जो दक्षिण भारत के व्यापार व्यवसाय का परिचय देता है।

‘पेरियनायकी’ जो नर्तकी माधवी का पालन-पोषण करने वाली संरक्षिका है, उसका प्रेमी ‘पान्सा’ एक रोमन व्यापारी है। पान्सा हर तरह से अपनी प्रिया की सहायता करता है। माधवी की ओर से चिन्तित पेरियनायकी से कहता है - “कैसा त्याग? कुछ सहस्र या लक्ष स्वर्ण मुद्राओं की हानि से पान्सा दरिद्र तो नहीं हो जाएगा। व्यापार में क्या घाटे नहीं होते? यह उसके एक उच्च और कुशल व्यापारी होने का प्रमाण है।

(2) ‘श्रमिक वर्ग’ - उपन्यास की उपनायिका ‘माधवी’ ऐसी पात्र है, जो नृत्य द्वारा शारीरिक श्रम करके धनोपार्जन कर अपनी व अपनी धर्म माँ पेरियनायकी की जीविका निर्वाह करती है। “माधवी प्रेरियनायकी की मोल ली गई कन्या थी”। नगर में होने वाले नृत्योत्सव में भी माधवी वर्ष का पुरस्कार व नगर का नवनायक, दोनों को जीत लेती है। आगे चलकर नगर सेठ कोवलन उसका विशेष आश्रयदाता व प्रेमी बन जाता है।

‘चेलम्मा’ माधवी की नृत्य गुरु है। कावेरी पट्टनम में नर्तकी चेलम्मा को कौन नहीं जानता। वह अपनी युवावस्था में नगर के अनेक सेठों का आकर्षण केंद्र रही थी तथा “साहूकारों, महाजनों के सुप्रसिद्ध मुहल्ले पड्डिनपाक्कम् की ऊँची-ऊँची भव्य शिल्पसौन्दर्य से अति आकर्षक लगने वाली अट्टालिकाओं में निवास करने वाले अनेक प्रतिष्ठित प्रौढ़, अपने यौवन में चेलम्मा के नाम पर मरते थे।”

पेरियनायकी भी एक ऐसी वेश्या नर्तकी थी, जो इस व्यवसाय से आजीविका निर्वाह करती है। तभी तो कोवलन से विवाह के लिए इच्छा करने वाली माधवी को वह अपने जीवन का लक्ष्य बताती हुई कहती है - “क्या करें बेटी, हम तो नगरवधू  हैं। हमारा पतिव्रत धर्म धन से बँधा है। पुरुष उसका माध्यम है और प्रेम व्यवसाय।”

 

‘सात घूँघट वाला मुखड़ा’

इस उपन्यास में भी बुद्धिजीवी वर्ग का चित्रण नहीं है। मुख्यतया व्यापारी व श्रमिक वर्ग का ही चित्रण मिलता है।

(1) ‘व्यापारी वर्ग’  -  उपन्यास में लड़कियों के व्यापार द्वारा धनोपार्जन की ओर संकेत लेखक ने डाकू बशीर खाँ के माध्यम से किया है। भाई के अत्याचारों से पीड़ित होकर अपनी माँ के साथ मेरठ से भागी हुई किशोरी ‘मुन्नी’ उर्फ ‘बेगम समरू’ डाकू शकूर खाँ के हाथ लग जाती है। शकूर खाँ का पुत्र ‘बशीर खाँ’ नवयुवक है, जो संसर्ग व साहचर्य के कारण सुन्दरी मुन्नी को चाहने लगता है परन्तु पिता शकूर खाँ के कारण उसे बेचकर बदले में दस हजार अशर्फयाँ नवाब समरू से प्राप्त करता है।

‘समरू’ के हाथों बिकने वाली ‘मुन्नी’ स्वयं एक काश्मीरी सौदागर की पुत्री थी। 18वीं सदी में स्त्री व्यापार धनोपार्जन का प्रचलित साधन था। इस ओर लेखक ने यह स्पष्ट संकेत किया है।

(2) ‘श्रमिक वर्ग’  - इस उपन्यास का नायक, आरम्भ में एक साधारण जर्मन सैनिक ‘वाल्टर रेनहार्ड’ और बाद में ‘नवाब समरू’ के नाम से पहचाना जाने वाला ऐसा बुद्धिमान व शक्तिशाली व्यक्ति था, जो यूरोपियन अफसरों को निर्दयता से मार कर अवध के ‘नवाब शुजाउद्वौला’ की शरण लेता है। सैनिक के रूप में शारीरिक शक्ति के प्रयोग से वह आजीविका निर्वाह करता है और धीरे-धीरे अपनी शक्ति के बल पर वह धन व ख्याति अर्जित करता है। नवाब समरू के सेनापति व सलाहकार ‘टामस’ और नवागत युवक ‘लवसूल’ ऐसे पात्र हैं, जो नवाब समरू व बेगम की खिदमत करके अच्छी रकम प्राप्त करते हैं और इस प्रकार जीविका निर्वाह करते हैं।

 

‘मानस का हंस’

(1)‘बुद्धिजीवी वर्ग’- उपन्यास नायक ‘तुलसीदास’ के पिता ुद्धिजीवी व्यक्ति थे, जो अपनी ज्योतिष विद्या द्वारा जीविका चलाते थे। इसी भाँति तुलसी के श्वसुर, ‘पाठक महाराज’ की भी आय का साधन उनकी ज्योतिष विद्या ही थी। इसके लिए वे दूर-दूर तक विख्यात थे। वे अपनी यह विद्या पुत्री ‘रत्ना’ को सिखाते हैं। उनका यह आजीविका साधन वंशानुगत था। रत्नावली का चचेरा भाई ‘गंगेश्वर’ भी पाठक जी का ही कामकाज देखता था। लेकिन वह ज्योतिष विद्या पटु न होने के कारण अपने परिवार के भरण-पोषण योग्य अर्थोपार्जन नहीं कर पाता था। जब पाठक महाराज वृद्धावस्था में अपना कार्य बन्द कर देते हैं, तो उसके समक्ष पेट भरने की समस्या उठ खडी होती है।

तुलसीदास स्वयं एक बुद्धिजीवी पात्र के रूप में चित्रित हैं, जो नक्षत्र गणना, कथावाचन, व काव्य रचना द्वारा विपुल धनराशि अर्जित करते हैं। काशी में ‘रामाज्ञा प्रश्न’ रचकर पूर्व घोषित सवा लाख रुपये का इनाम प्राप्त करते हैं।

पंडित गंगाराम ज्योतिषी, काशीनाथ, कवि कैलाश ये सब भी अपनी-अपनी विद्याओं द्वारा मानसिक श्रम करके जीविकोपार्जन करते हैं। बुद्धि  ही उनकी आय का मुख्य स्त्रोत है। “गृहस्थाश्रम के इसी कर्म से मेरी आजीविका चलती थी” - तुलसी का यह कथन उनके आजीविका साधन, ‘कथावाचन’ की ओर संकेत करता है। तुलसी के परम मित्र ‘ब्रह्मदत्त’ की मानस पाठ द्वारा विपुल धराशि प्राप्त करने की बात भी लेखक ने कही है - “मानस पाठ की कृपा से उन्होंने बहुत कमाया। वे राम से अधिक तुलसी भक्त थे। * * * रामघाट पर ही उन्होंने वाल्मीकीय रामायण बांची थी।”         

(2)‘व्यापारी वर्ग’- उपन्यास में मठों द्वारा चलने वाले व्यापार का स्पष्ट चित्रण है। अकबर के काल में उन मठों में बड़े-बड़े महन्त व उनके चेले साधुगण निवास करते थे और भोगविलास रत रहते थे। एक मठ में तुलसीदास भी एक बार आर्थिक तंगी के कारण शरण लेते हैं और वहाँ के कोठारी पद पर नियुक्त होते हैं। किन्तु बाद में वहाँ के व्यभिचार को देखकर कोठारी की नौकरी छोड़ देते हैं।

(3) ‘श्रमिक वर्ग’ - उपन्यास में नौका वहन करने वाले केवटों का चित्रण है,जो नौका द्वारा यात्रियों को नदी के आर-पार ले जाकर अर्थोपार्जन करते व अपनी जीविका निर्वाह करते थे। तुलसी के मित्रों में ‘बकरीदी दर्जी’ का प्रसंग है, जो दर्जी पेशे के द्वारा मेहनत करके अपनी आजीविका कमाते होंगे।

इस प्रकार बुद्धिजीवी, व्यापारी व श्रमिक तीनों ही वर्गों का नागर जी ने बड़ा ही सजीव और विशद चित्रण किया है।

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