समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन)

समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन)  (रचनाकार - डॉ. दीप्ति गुप्ता)

‘धार्मिक जीवन’

प्राचीनकाल से हमारे ऋषि मुनियों ने धर्मोपदेश दिए। तद्हेतु धर्मग्रंथों की रचना हुई। वास्तव में व्यक्ति धर्म के तत्व को समझते नहीं। प्रायः कहा जाता है तथा पूज्य गुरुजनों का भी प्राचीनकाल से यही उपदेश रहा है कि यदि मनुष्य निष्कामभाव से धर्म का पालन करे तो वह अपनी सब प्रकार की उन्नति कर सकता है। धर्म का तत्व, रहस्य और रूप समझना अति आवश्यक है। ‘वैशेषिक दर्शन’ में धर्म का रूप इस प्रकार बताया गया है -

(1) “यतो भयुदयनिः त्रेयस सिद्धि स धर्मः”

अर्थात् इहलोक और परलोक में जो हितकारक है, उसी का नाम धर्म है, जो कर्म इस लोक में हिताकारक तथा परलोक में हितकारक न हो, उसे धर्म नहीं माना जाता। व्यक्ति की सर्वांगपूर्ण उन्नति तभी हो सकती है, जबकि उसकी सभी क्रियाएँ धर्मानुसार हो। धर्म के लक्षण बताते हुए  ‘मनु’ ने लिखा है -

“धृतिः क्षमा दमो*स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधौ दशकं धर्मलक्षणम् ।।”

अर्थात् धैर्य, क्षमा, मन को वश में रखना, चोरी न करना, बाहर भीतर से (शरीर की) पवित्रता रखना, इन्द्रियों को वश में रखना, सात्विक बुद्धि, सात्विक ज्ञान, सत्यवचन बोलना, क्रोध न करना, ये दस धर्म के लक्षण हैं। यह सामान्य धर्म मनुष्यमात्र के लिए है। यही इहलोक और परलोक में प्रत्यक्षरूपेण अति हितकर है। धर्म की विशेष बातें बड़े विशद और सुचारु रूप से शास्त्रों में बताई गई है; जैसे  ‘वर्ण धर्म’ का निरूपण ‘गीता’ में मिलता है।

‘मनुस्मृति’ में ब्राह्मण वर्ण तथा शूद्र वर्ण वाले के धर्म का उल्लेख इस प्रकार किया गया है -

“अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहंचैव ब्राह्मणनामकत्पयत् ।।”

अर्थात् वेद पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना यह छः कर्म ब्राह्मण के लिए बताये गए हैं।

 ‘मनुस्मृति’ के ही एक अन्य श्लोक में  ‘शूद्र धर्म’ का विवेचन इस प्रकार है -

एकमेवतु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्  ।

 एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया ।।  

 

अर्थात् शूद्र के लिए एक ही कर्म प्रभु ने नियत किया- तन और मन से तीनों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना।

मनुष्य के लिए उचित है कि धर्म के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थ का त्याग कर दे। “जैसे यक्ष के आग्रह करने पर भी युधिष्ठिर ने राज्य और अपने सहोदर भाईयों की परवाह न करके नकुल को ही जीवित करना चाहा।”

”युधिष्ठिर ने धर्म पालन हेतु स्वर्ग को भी ठुकरा दिया, पर अपने साथ हो जाने वाले कुत्ते का त्याग नहीं किया”।

गुरुगोविन्द सिंह के पुत्रों ने धर्म के लिए अपने प्राणों का त्याग कर दिया। जीते जी अपने को दीवार में चिनवा दिया, किन्तु धर्म का परित्याग नहीं किया। चित्तौडगढ़ में राजपूतों ने तेरह हजार स्त्रियों के धर्म की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहुति दे दी। एतावता, जो आपत्ति पड़ने पर भी धर्म का त्याग नहीं करता, वह कल्याण को उपलब्ध हो जाता है। भगवान् कृष्ण ने धर्मच्युत व्यक्ति को निरादृत तथा उपहासयोग्य बताया है। -

 “ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवास्यसि।”

‘अर्थात् स्वधर्म से च्युत व्यक्ति सम्मान योग्य नहीं रहता है, हे अर्जुन! तू स्वधर्म और कीर्ति को नष्ट कर पाप को प्राप्त होएगा।’

 इसके अतिरिक्त, बाढ़ भूकम्प, अकाल, महामारी, अग्निदाह से पीड़ित मनुष्यों की सहायता एवं सेवा ‘सर्वोपरि धर्म’ है। भय, स्वार्थ, आसक्ति, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और आराम के वशीभूत होकर कभी भी नीति, समता और धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। सबके साथ दया, स्वार्थ, त्याग, उदारता, निष्कामता, विनय व प्रेम का व्यवहार करना चाहिए। तुलसीदास ने धर्म का सार बताते हुए कहा है –

“परहित सरिस धरम नहीं भाई । पर पीड़ा सम नहीं अधमाईं।।

परहित बस जाके मन माही । कह जन दुर्लभ कछु नाही।।”

भगवान श्रीकृष्ण ने भी यही बात गीता में कही है -

‘संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहितै रताः ।।’

‘अर्थात् सबके कल्याण में लगे हुए, इन्द्रिय समूह को वश में करके, तथा सभी के प्रति समभाव रखते हुए, जो एकीभाव से ध्यानपूर्वक भजते हैं, वे योगी मुझे ही (सच्चिदानन्द परमात्मा को) प्राप्त करते हैं।’

गाँधी जी ने अहिंसा को मानव का परम धर्म बताया। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। गाँधी जी की मान्यता थी कि अपनी अहिंसा की सिद्धि से सत्य की सिद्धि होती है और यह सत्य ही ईश्वर की प्राप्ति है। उनके अनुसार “जो व्यक्ति अपने आस-पास होने वाले अन्याय, असत्य और धर्म के प्रति उदासीन है, वह सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता।”

आज विश्व में अनेक धर्म, अनेक पंथ प्रचलित हैं। प्रत्येक धर्म के उपदेशों तथा शिक्षा सम्बन्धी बहुत सा साहित्य है। व्यक्ति अपने-अपने धर्मो के प्रवर्तकों तथा मान्य पुरुषों के वाक्यों की तरह-तरह से व्याख्याएँ और टीकाएँ विविध भाषाओं में करते हैं तथा धर्म विशेष का प्रचार करते हैं। इस प्रकार धार्मिक उद्देश्य और शिक्षाओं का कोई अन्त नहीं। समझदार व बुद्धिमान व्यक्ति को धर्म की बारीकियों और उलझनों में पड़ने की आवश्यकता नहीं। उसे तो मुख्य तत्व की बात जान लेनी चाहिए। वास्तविक धर्म मानने वाले के लिए यह सारा जगत ईश्वरमय है, जैसा कि वेदान्त वाक्य है - “सर्वम् खल्विदम् ब्रह्मः”। यह समस्त जगत ब्रह्म ही है। जिसने यह तत्व की बात जान ली, वह सब प्राणियों से प्रेम करेगा, उसके प्रेम का क्षेत्र उसके परिवार या रिश्तेदारों तक ही सीित नहीं होता, वह सबमें ईश्वर का रूप देखता है। वह सबसे स्नेह करता है। उसके लिए तो “वसुधैव कुटुम्बकम्” अर्थात् सारी धरती ही परिवार के समान होती है। उसके लिए छुआछूत का प्रश्न ही नहीं उठता। वह सबको समभाव से देखता है। सबसे प्रेम करता है। ऊँच-नीच की खोखली कल्पना को मन में स्थान नहीं देता।

‘सत्य’ को धर्म बताते हुए ‘स्वामी सम्बुद्धानन्द’ का कथन उल्लेखनीय है - कि “धर्म का केवल एक ही अर्थ हो सकता है ‘सत्य’। क्योंकि यह सत्य ही है जिसने विश्व को साधा हुआ है। सत्य से ही यह जन्म लेता है, उसी में इसका सुख है तथा अन्त में उसी सत्य में इसका विलय हो जाता है।”

धर्म के लक्षण और रूप का उल्लेख करते हुए ‘श्री अरविन्द’ ने लिखा है ‘कि ईश्वर की खोज ही धर्म का सार है।’

प्रसिद्ध एंग्लो जर्मन विद्धान ‘मैक्समूलर’ ने कहा है - “एक ही शाश्वत ईश्वर रूप धर्म है जिससे अन्य धर्म संबंधित हैं।”

धर्म के जितने रूप आज मनुष्य ने बना दिए हैं, वास्तव में उतने हैं नहीं। धर्म तो एक ही है। उसे समझने वाली, देखने वाली दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न हैं, जो उसके विभिन्न रूपों की रचना कर देती हैं। यही बात ‘डा. राधाकृष्णन’ ने कही है - “यदि सत्य विभिन्न समुदायों द्वारा विभिन्न रूपों में देखा जाता है, तो फिर भी यह नहीं नकारा जा सकता कि अन्ततः सत्य एक ही है।”

हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म आदि धर्म के विभिन्न रूपों का कारण बताते हुए एक विद्वान ने कहा है - “मोक्ष प्राप्ति या ईश्वर को समझने के, व्यक्ति भिन्न-भिन्न मार्ग और तरीके अपनाते हैं तथा अन्त में अपने-अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में भी सफल होते हैं। ईश्वर ने भी मनुष्य के मोक्ष को एक ही तरीके से नहीं बाँधा है, क्योंकि आवश्यक नहीं कि सब व्यक्ति एक ही मार्ग से यात्रा कर सकें।”

‘एन्साइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड एथिक्स’ में धर्म का रूप इस प्रकार निरूपित किया गया है - “आध्यात्मिक आस्थाओं से संबंधित विश्वासों और कार्य व्यापारों के परस्पर संबंध का नाम धर्म है।”

भारतीय जीवन में धर्म को सर्वोच्च स्थान अति प्राचीनकाल से ही दिया जाता रहा है। आर्यों की एक-एक दैनिक क्रिया, विशिष्ट अवसरों पर होनेवाले सस्कार, जन्म और मृत्यु से सम्बन्धित क्रिया कलाप, धार्मिक आधार लिए हुए हैं। तद्हेतु किसी व्यक्ति या कार्य की उच्चता-निम्नता का मापदण्ड भी हिन्दू विचारधारा के अनुसार ‘धर्म’ ही रहा है।

धर्म के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वदृश्यमान है। ‘ब्रह्म ही सत्य है और यह संसार मिथ्या है’- जैसा कि हमारे उपनिषदों में कहा गया है - “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” । “एकोब्रह्म द्वितीयोनास्ति” अर्थात् ईश्वर एक ही है दूसरा नहीं। ‘राधाकृष्णन’ ने कहा है कि “धर्म एक ऐसा सामाजिक संयोजक है, एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी आकांक्षाओं की अभिव्यक्त करता है तथा नैराश्य में शान्ति व सांत्वना प्राप्त करता है।

‘सत्य’ को धर्म का आधार माना गया है। यह तक कि ईश्वर को भी ‘सत्’ कहा गया है। ‘सत्यं शिवम् सुन्दरम्’ ईश्वर ही इस विश्व को सत्य, शिव एवम् सुन्दर बना सकता है और बनाता है। सत्यपथ को अपा कर ही व्यक्ति ईश्वर से साक्षात्कार कर सकता है। हमारे प्राचीन दर्शन और धर्म ग्रन्थों में भी सत्य का विशद विवेचन हुआ है। ‘सत्य’ ईश्वर रूप ही है तथा ‘ईश्वर’ सत्य है। ‘भगवद्  गीता’ में कहा गया है -

“बुद्धि ज्ञान महामाहः क्षमा सत्यं दमः शमः।

सुख दुखं भवो भावो भयंचायमेवच  ।”

अर्थात् ‘सत्य’ - आत्मशान्ति और नियन्त्रण से कहीं ऊँचा है।

 

‘अमृतलाल नागर का धर्म संबंधी दृष्टिकोण’

 

लेखक के अनुसार कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। कर्म अर्थात् सद्कर्म, दीन दुखी, असहाय जीव की सेवा ही ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट उपासना है। जो व्यक्ति एक  ओर  प्राणियों पर अत्याचार करे, उनको सताए  तथा  बेईमानी,  झूँठ  चोर बाजारी को अपनाए तथा दूसरी ओर तिलक लगाकर घन्टों ईश्वर का भजन करे, वह लेखक की दृष्टि में सबसे अधम पापी है। निर्दोष व असहाय को पीड़ा पहुँचाना, लेखक की दृष्टि में अधर्म है। स्वार्थ, झूँठ, दिखावा, धोखा लेखक के अनुसार अधर्म है। जो व्यक्ति तन, मन, धन से, सच्चे हृदय से असहाय, दीन व दुखियों की सहायता करता है, उनका उप्रकार करता है, उससे बढ़कर पुण्यात्मा कोई नहीं और न ही सद्कर्म अर्थात् “परोप्रकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं।” अपना यही धार्मिक दृष्टिकोण लेखक ने अपने उपन्यासों में स्थान-स्थान पर, विभिन्न पात्रों द्वारा व्यक्त किया है, जो पाठक को ससीम से असीम बना, समस्त मनुष्यों को एक मानवजाति के रूप में देखने के लिए बाध्य कर देता है तथा विशाल व्यापक दृष्टिकोण देकर सर्वोत्तम “कर्म रूपी धर्म” का सन्देश देता है। ‘मनु’ ने ‘मनुस्मृति’ में लिखा है -

“सर्वभूतेषु चात्मान सर्वभूतानि चात्मनि।

संग पश्यन्नात्मयाजी स्वराज्यमधि गच्छति।।”

अर्थात् जो सब प्राणियों में स्वयं को तथा अपने में सबको देखता है तथा दूसरों के लिए स्वार्थ त्याग करता है वह स्वयं पर, अपनी इच्छाओं पर अधिकार प्राप्त कर लेता है।’ जैसा कि ‘एल.एस.एस.ओ. मैले’ ने भी कहा है - “धर्म तथा नैतिकता पृथक है। नैतिक सूत्र धर्म पर आधारित नहीं है। नैतिक स्वतंत्रता भी धार्मिक नहीं, सामाजिक है। हिन्दू धर्म का ‘सर्वेश्वरवाद’ विश्व की दार्शनिक व्याख्या है1 इसमें उस मानतम सत्ता को सर्वव्याप्त आत्मा माना है, जो कि मात्र विशालभाव रूप है, अतः नैतिक नियमों का आधार नहीं हो सकती।

लेखक ने अपने उपन्यासों में धर्म के विभिन्न रूपों का चित्रण किया है। धर्म के नाम पर होने वाले अन्याय, अत्याचार का यथार्थ चित्र उकेरा है तथा धर्म के अनेक प्रचलित रूपों, विधर्मियों, उनके ढोंग एवं पाखण्ड का चित्रण करते हुए, अंत में  “मानव धर्म को ही सर्वोपरि” बताया है।

 

 ‘अमृताल नागर के उपन्यासों में धर्म का रूप’

 

‘महाकाल’-का पात्र मोनाई केवट जो अकाल पीडतों की पीड़ा से अप्रभावित है, एक ऐसा स्वार्थी और लुटेरा दुकानदार है, जिसके गोदाम चावल की बोरियों से भरे हुए हैं किन्तु बिना पैसे के वह भूख से तडपती जनता को चावल का एक दाना भी नहीं देता। ईश्वर को मानने वाला, पूजापाठ में विश्वास रखने वाला यह ढोंगी व्यक्ति अपने इस कुकृत्य को अधर्म नहीं समझता। उसकी दृष्टि में मानव जाति पर इस तरह का अत्याचार धर्म के विरुद्ध नहीं है। दूसरे, वह इतना धर्मभीरु भी है, कि पाप के भय से, क्रुद्ध, भुखमरों की भीड़ द्वारा उसके गोदाम पर आक्रमण कर दिए जाने पर, उसमें हुए रक्तप्रवाह और मौतों के कारण प्रायश्चित हेतु वह ब्राह्मणों को प्रेतभोज देने से नहीं चूकता। बात-बात में धर्म की दुहाई देते हुए पाँचू से कहता है - “ये है ऐसान का जमाना। होम करते हाथ जल गए, मेरे मन मे तो धरम उपजा कि लाओं, चार डबल का नुकसान ही सही, इनके चिथड़े, गुदड़े खरीद लूँ, बिचारे कहीं से ‘कन्टोल’ का चावल लाके अपना पेट भर लेंगे। मैं तो मन में बिचारे बिचारे कहूँ और ये ससरे ऐसे पापी निकले कि उप्रकार का बदला मुझे यों दिया।” पैसे न होने पर लोगों से उनके फटे पुराने कपड़े लेकर बदले में मुठ्ठी भर चावल दे देना वह धर्म समझता है। हृदय स्वार्थ और रुपये पैसे की लालसा से भरा हुआ है।

दूसरा ऐसा ही ढोंगी और पाखण्डी पात्र है - दयाल जमींदार। वह भी जनता की यातनाओं, पीड़ाओं से मुँह फेरे अपने बडप्पन और धन के गर्व में चूर हुआ सुख और एश्वर्य में डूबा रहता है। लेकिन दूसरी ओर धर्म का ढोंग रचते हुए अपना प्रभुत्व स्थापित करने की भावना से वह गाँव वालों में मुफ्त चावल बँटवाना भी नहीं भूलता। वास्तव में वह जनता की भूख मिटाने के लिए नहीं वरन् अपने प्रभुत्व की भूख मिटाने के लिए चावल का वितरण कराता है। दयाल के शीश महल की नफासत देखकर पाँचू की आँखें चौधिया जाती है, जिस पर विलायती शराब व अनेक पकवान, खान-पान, अकाल की भूख से पीड़ित पाँचू के मन में दयाल के प्रति घृणा उत्पन्न कर देती है। स्वार्थ के लिए संसार को तबाह होते देख पाँचू की आँखों में आँसू भर आते हैं। अधर्म का चरम रूप तो तब देखने को मिलता है, जब मन्दिर का पुजारी भूख से तिलमिलाते अपने बच्चों के दुःख को न देख पाने के कारण उनका पेट भरने के लिए गऊ वध करता है लेकिन बाद में पाप-प्रायश्चित; इन सब अर्न्तद्वन्द्वों में उलझकर बच्चों को भी व स्वयं को जहर द्वारा खत्म कर डालता है। क्योंकि संस्कारी और आत्मभिमानी ब्राह्मण सोचता है कि - “यदि मैं स्वयं प्रायश्चित न करुँगा, तो ईश्वर दण्ड देकर मुझसे प्रायश्चित करायेगा।”

इस तरह के कुछ अधार्मिक व्यक्तियों के झूँठे धार्मिक रूप का परिचय देते हुए विद्धान लेखक, नायक पाँचू के माध्यम से अपने धर्म का रूप अभिव्यक्त करता है। लेखक के अनुसार धर्म ईश्वर केन्द्रित न होकर मानव केन्द्रित होता है और होना चाहिए। क्योंकि धर्म की वास्तविक आवश्यकता है मानव को, न कि ईश्वर को। व्यक्ति अधिकांशतः यही सोचते हैं कि ईश्वर का, मोक्ष का निर्णय करना ही धर्म है। पर नहीं मानव चित्त को बदलना, उसकी अशान्ति पीड़ा को रूपान्तरित करना ही धर्म है। चित्त शान्त होने पर और सुख मिलने पर मनुष्य के मुख पर सत्य स्वतः ही झलकने लगता है। लेखक के अनुसार जीवन का सत्य खोजना नहीं, वरन् जीवन के सत्य और हमारे बीच में जो अज्ञान रूपी अंधकार का आवरण है, उसे हटाना ही व्यक्ति का उद्देश्य होना चाहिए। उसके हटते ही सत्य स्वयं हमारी आँखों के सामने उजागर हो जायेगा। सत्य तो हमारे बिल्कुल निकट है, पर अज्ञानवश हम उसे देख नहीं पाते। हम अपने स्वार्थो मे रत हैं। हमारी चेतना सुप्त है और इसी कारण से हम अपने को दूसरों से अलग होकर देखते हैं। जबकि सब व्यक्ति मूलतः एक हैं, सबमें एक ही अंश विद्यमान है। पाँचू संसार के पतन का कारण सोचता है - “अपने अस्तित्व की चेतना को मनुष्य सर्वव्यापी और सामूहिक रूप में क्यों नहीं देखता? मैं अपने को सारी दुनिया से अलग करके क्यों देखता हूँ। दुनिया से अलग रहकर मैं अपनी असलियत का अनुभव  क्योंकर कर सकता हूँ? सम्मिलित रूप से समाज की प्रत्येक क्रिया, प्रतिक्रया का प्रभाव मुझ पर पड़ता है और मुझे चैतन्य बनाता है। मैं अपने हर अच्छे बुरे काम का निर्णय समाज के तराजू पर ही करता हूँ। --- अपने हर काम में मनुष्य को दुनिया के रुख बेरुख की ही फिक्र रहती है। फिर वह अलग कैसे हो जाता है? क्यों हो जाता है?”

‘सेठ बाँकेमल’ - हमारे ग्रंथ में ईश्वर, मोक्ष, नरक, स्वर्ग का विस्तार से वर्णन है लेकिन वास्तव में मानव क्या है, यह कोई नहीं बताता। हर व्यक्ति बात-बात में धर्मग्रंथों और शास्त्रों के उदाहरण देता है पर अपनी सच्चाई तक नहीं जानता। यथा ‘सेठ बाँकेमल’ के सेठ जी बात-बात पर शास्त्रों और धर्मग्रंथों सम्बन्धी अपने सीमित ज्ञान का परिचय देते हैं और अपनी वास्तविकता से बिल्कुल अनजान हैं। “महाभारत में लिखा है कि नहीं, कैसे-कैसे तीर थे ससुरे कि आगिन बान छोड़ दीना, सारा ब्रिरमांड खाक हो गया ससुरा। तिराह तिराह मच गई। सब, भगवान खूसकैट बने हुए हाथ जोड के आए थे अर्जुन के पास।” संसार की उत्पत्ति का रहस्य अपने भतीजे को बताते हुए सेठ बाँकेमल कहते हैं - “सासतर में लिखा कि परलय के बाद सेसनाग की सेज पे बिसनु भगवान छीरसागर में लक्ष्मी जी के साथ बिराजे। तभी तो ये दुनिया दिखाई दे रही है भइयो।”

‘बूँद और समुद्र’ - में ऐसे उच्च धर्म का चित्रण है, जिसके अनुसार परोप्रकार पुण्य रूप है और इसके विपरीत आचरण पाप रूप होने से अधर्म है। उपन्यासनायक सज्जन के अपने मित्र कर्नल से ये शब्द ऐसे ही धर्म के प्रमाण हैं - “आज महर्षि व्यास की पाप-पुण्य वाली व्याख्या सुनकर तो मेरे तमाम कन्फ्युजन्स दूर हो गए। क्या सीधी सी बात है कि परोप्रकार करना पुण्य है और दूसरों को तकलीफ देना पाप। सचमुच कमाल है ये सादगी, से सच्ची सीधी दृष्टि।”

लेखक ने यहाँ “परोपकारः पुण्याय, पापय परपीडनं” वाली उक्ति चरितार्थ की है। वास्तव में जो व्यक्ति अपने सुख, स्वार्थ के लिए दूसरों का बुरा करता है, वह लेखक के अनुसार महान् अधर्मी है। धर्म मात्र कीर्तन कर लेने या भजन करने से ही नहीं होता या प्रातः उठकर राम-नाम जप कर दिन भर पापाचार में रत रहने का नाम धर्म नहीं है। कन्या का यह कथन कितना सत्य है - “सेठ जी आदमी को भूखा मारकर चीटियों को चारा दे लेते हैं। खटमलों से भरी हुईं खाट पर दूसरों को लिटाकर उनका खून खटमलों को दान करते हैं और दो चार आने पैसे आदमी को देकर महान् पुण्य के भागी बनते हैं। कीर्तन में मंजीरें बजा-बजाकर गाते हैं कि ‘लै ना जइही छाती धर के’ - और दिन रात जमाने का धन और जमाने की आहें अपनी छाती पर धरते रहते हैं।”

लेखक धार्मिक रस्म रिवाजों, धर्मग्रंथों की रुढवादिता के सरासर खिलाफ है। उसके अनुसार व्यक्ति हमेशा वह घोषणा करता है जो वह है नहीं। अज्ञानी अपने को ज्ञानी कहता है, तो अहंकारी स्वयं को विनम्र। असत्यवादी स्वयं को सत्यवादी घोषित करता है, तो हिंसक अपने को अहिंसक बताता है। धार्मिक व्यक्ति कहता है, परमात्मा अनन्त है लेकिन दावा करता है कि मैं परमात्मा को जानता हूँ। उसके कथन में कितना विरोधाभास है, इसका उसे ख्याल नहीं आता। धर्म मनुष्य को वास्तव में अहंकारी बना रहा है। कन्या का कथन है - “देखिये जैसे यह सत्यनारायण की कथा है। इसमें क्या है। करोड़ों घरों में बड़ी श्रद्धा से इसकी कहानी पढी जाती है। इसमें कौन सा मारल है। मैने तो कथा पढी है। उसमें न तो सत्य है और न नारायण। हमारे बहुत से रस्म रिवाज बिल्कुल बेमानी, एक जबर्दस्ती की निष्ठा लिए चले आते हैं।” मूर्तिपूजा के प्रति भी लेखक अनास्थापूर्ण दिखाई देता है, तभी तो सज्जन कहता है - “घिसी हुई पीतल की, बड़े-बड़े बनावटी निर्जीव नेत्र लगाए हुए राधाकृष्ण की बड़ी जोड़ी, बहुत सी छोटी-छोटी जोड़ियों, बहुत से पत्तरों, शालिग्राम, शिवजी की बेटियों, बालमुकुन्द, चाँद की जलाधारी में नागधारी शिव, गणेश, मारुति, तीन बड़े-बड़े ताम्र यंत्र - इन तमाम चीजों में उसे कोई सत्य न दिखाई दिया। फिर भी करोड़ों इंसान आखिर इनमें क्या देखते हैं।”

धर्म के इस जीण-शीर्ण रूप को खण्डित कर लेखक इन सबके ऊपर मानव-प्रेम, परोप्रकार,  आत्मज्ञान को ही सर्वोच्च धर्म मानता है। उपन्यास में इन सब गुणों का साकार रूप ‘बाबा रामजी’ हैं, जो मनुष्यों की सेवा हेतु शहर छोड़कर गावँ में जा बसते हैं। इतना ही नहीं वे सदैव सज्जन और कन्या को भी परोपकार, परसेवा, मानव-प्रेम का ही उपदेश देते हैं।

‘अमृत और विष’ - में भी लेखक सर्वधर्म समन्वय पर ही बल देता है। वास्तव में किसी धर्म ने आज तक मनुष्य को विनम्रता नहीं सिखाई, न ही वास्तविक ज्ञान दिया। इसके विपरीत, वह उनसे अहंकार सीखकर स्वयं को सर्वज्ञ मान बैठा। उसी अहंकार ने हिन्दू को मुसलमान से लडाया। जहाँ सब सर्वज्ञ हों, वहाँ कोई भी झुकने को तैयार नहीं होता। फलतः झगडे का जन्म व अन्याय और अशान्ति का जन्म हुआ। धर्म ने बातें नम्रता की करीं, पर जन्म अहंकार को दिया। धर्म ने उपदेश शान्ति का दिया, पर जन्म अशान्ति को मिला। रमेश का कथन - “बुजुर्गवार धर्म पर आक्षेप करने से ताव खा गए हैं। अनवर नवाब के ताव में उसे अपने पिता का ताव भरा चेहरा झलकता नजर आया और उसे दोनों धर्मों में कोई अन्तर नजर न आया। श्रद्धा और प्रेम के महाभाव में तर्क घुल गए।”

गोमती में बाढ़ आ जाने पर रमेश अपने साथियों के साथ अपूर्व उत्साह व सेवा भाव से बाढ़ग्रस्त व्यक्तियों की सहायता कर पुण्य कार्य करता है। जो कार्य सेना न कर सकी वह कार्य उत्साही युवकों ने कर दिखाया तथा धर्म पालन किया। इसके अतिरिक्त लेखक ने धर्म के नाम पर फैले हुए पापाचार का बड़ा यथार्थ चित्र खींचा है। एक ओर व्यक्ति धार्मिक बनने के प्रयत्न में कहता है - ‘पदार्थ माया है, असत् है और परमात्मा सत्य।’ यही विडम्बना है कि जिसे हम चौबीस घंटों जीते हैं, जो हमें विद्यमान दिखाई देता है, उस पदार्थ के अस्तित्व को नकार हम साफ-साफ घोषित करते हैं कि वह असत् है और जबकि ईश्वर जिसका हमें कुछ भी पता नहीं, ज्ञान नहीं, उसे सत्य कहते हैं। हम कहते है ‘ब्रह्म सत्य है और जगत माया है।’ सारी दुनिया के लोग पदार्थवादी, भौतिकवादी है। ऊपर से ढिंढोरा पीटते हैं अपने आध्यात्मवादी होने का। हमें दिखाई तो पड़ता है पदार्थ और बातें हम परमात्मा की करते हैं। हाथ हम ईश्वर को जोडते हैं और आँखें हमारी पदार्थ पर लगी रहती हैं। पूरे समय हमारा मस्तिष्क एक दोहरी प्रक्रिया में चलता है। सारे समय भगवान की बात और चिन्तन पदार्थ का। ऐसा लगता है कि आज के समाज में ‘धर्म’ मात्र एक फैशन की, दिखावे की वस्तु बन गया है। वह स्वार्थ और संकीर्णता से आवृत दिखाई देता है। तभी तो उपन्यासपात्र रद्धू सिंह मन्दिर में जाते हैं, घन्टों भजन-पूजन करते हैं और वैसे ईर्ष्या, अनेक कुण्ठाओं से भरे हैं। ‘खोखा’ स्वार्थ हेतु ही हिन्दू और मुसलमानों में झगड़ा करवाता है। ‘रुप्पन लाला’की मन्दिर बनवाने की योजना में धर्म की आड में छिपे अधर्म का सजीव चित्र उभर कर आया है।

‘सात घूँघट वाला मुखड़ा’  - की नायिका बेगम समरू, राजनीति के दाँव-पेचों में उलझी, व्यक्तिगत स्वार्थ में इतनी लिप्त हो जाती है कि प्रजा उसके विरुद्ध भड़क उठती है और उसको बुरी तरह अपमानित करती है। अन्त में नवाब समरू का सेनापति ‘टामस’ ही उसकी रक्षा करता है, जिसके साथ उसने विश्वासघात किया था। तब आशा के विरूद्ध टामस के उस सदव्यवहार के प्रति कृतज्ञ हुई, अपनी ही मूर्खता से अपने प्रेमी ‘लवसूल’ को खो देने वाली बेगम अन्त में अपने अनाचार और अधर्म पर पश्चाताप करती हुई सदैव के लिए जीजस्क्राइस्ट की भक्ति में लीन हो, सत्य को पा लेने का प्रण करती है। उस क्षण टामस के समक्ष उसकी आँखें अपने कुकृत्यों का स्मरण कर स्वतः ही नीची हो जाती हैं, उसे आत्मज्ञान हो जाता है। वह अपनी वास्तविकता को देखकर लज्जित होती है, मानो उसकी आत्मा उसके सामने खुल जाती है और क्रोध, ईर्ष्या, स्वार्थ रूप में अपनी हृदयगत बुराईयों तथा दुर्बलताओं को देखते ही, वे सब उससे अलग हो जाते हैं, रह जाता है मात्र प्रेम, सहानुभूति और परार्थ हित का भाव। यही उसकी आत्मा का, उसके चरित्र का, उसके हृदय का रुपान्तरण लेखक ने चित्रित किया है और मानो इसके द्वारा परमात्मा रूप धर्म को प्राप्त करने का मार्ग बताया है।

‘सुहाग के नूपुर’- में कोवलन की पत्नी कन्नगी लौकिक धर्म को मानते हुए भी नारी के मर्यादित जीवन को, सदाचरण को ही सर्वोच्च धर्म मानती है। उसके अनुसार - “पुरुष अपना धर्म भूल जाए तो क्या स्त्री भी मर्यादा के बन्धन ढीले कर देगी। जैसाकि  ‘बायरन’ ने कहा है - ‘यदि प्रेम पुरुष के जीवन का एक भाग है, तो स्त्री का वह पूर्ण अस्तित्व है।”

‘एकदा नैमिषारण्य’- में लेखक विभन्न धर्म दृष्टियों की आधारभूत एकता का परिचय देते हुए लिखता है - “उपनिषद्कार, ऋषिगण, महावीर, गौतमबुद्ध आदि महानुभाव इस भारत खण्ड में व्याप्त एक ही वैचारिक आन्दोलन की पृष्ठभूमि से विभिन्न पकाश रूपों में उपजे थे। सभी एक दूसरे को सुसँस्कृत बना रहे थे। उनकी धर्म दृष्टियाँ अलग थी तो क्या हुआ, उनका समाज एक ही था। अतएव भारतवर्ष के आर्य समाज को इन सभी ऋषियों और आचार्यो ने संस्कार दिए हैं। सभी श्रद्धेय हैं - प्रणम्य है।”

उपन्यास नायक सोमाहुति भार्गव भक्तियोग का राष्ट्रीयकरण करते हैं। वे भावी सुखमय जीवन हेतु भक्ति और राष्ट्रीयता का समन्वय करते हैं। वे शकों व आर्यों के एकीकरण, तथा अनेक अन्य सम्प्रदायों को अनुरूप व अनुकूल बना, भारतराष्ट्र के जनमानस की सुप्त चेतना व ज्ञान जागरित करने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। उनका यह कथन उनके इस दृष्टिकोण का परिचायक है। किसी भी धर्म के अनुयायी बन के अपने प्रभु को प्रणाम करो। वह “सर्वदेव नमस्कारः केशव प्रतिगच्छति।” भार्गव कभी राम की महिमा सुनाते, कभी विष्णु, शिव, सूर्य, ऋषभ, भरत, महावीर बुद्ध का गुणगान करने लगते और सब ओर श्रद्धा की बन्दनवार बाँध कर फिर केशव वासुदेव का गुणगान करने लगते हैं।”182 सोमाहुति नगर-नगर, गाँव-गाँव, भारत देश के कोने-कोने में अतिमिश्रित, बहुधर्मी और बहुजातीय समाज को महाभावयुक्त देखना चाहते हैं।

लेखक ने बौद्ध और जैन धर्म का भी वर्णन किया है। बौद्ध तथा जैन धर्म के निवृत्ति सिद्धांत का हिन्दू धर्म पर सबसे अधिक प्रभाव पडा है; क्योंकि निवृत्ति मार्ग के अनुसार कर्ता जीवन के प्रति घृणा और उपेक्षा के भाव से भर जाता है। किन्तु लेखक इस विशुद्ध निवृत्ति मार्ग का समर्थक नहीं है। इसलिए वह निवृत्ति मार्गी नारद के विरुद्ध सोमाहुति जैसा राष्ट्रभक्ति से पूर्ण व कर्मरत पात्र को चित्रित करते हैं, जो भारत राष्ट्र की उन्नति और वृद्धि में ही निवृत्ति के दर्शन करता है।

‘मानस का हंस’- में लेखक के तुलसी द्वारा धर्म के विषय में कहलाए गए ये शब्द उसके प्रेम रूपी सर्वोच्च धर्म का ही निरूपण करते हैं। “सुना है जाति-पाँति नहीं मानते। मानता हूँ और नहीं भी मानता। कैसे ?

“वर्णाश्रम धर्म को मानता हूँ परन्तु प्रेम धर्म को वर्णाश्रम से भी ऊपर मानता हूँ।”

इस प्रकार एक युवक मंडली से घिरे तुलसी धर्म सम्बन्धी अपने विचार मुक्तरूप से पकट करते हैं। जब एक युवक धर्म को धन्धा कहता है, तो तुलसी हँसकर कहते हैं - “ये आपने धन्धे वाली बात अच्छी कही। आजकल धर्म के पास राज तो है नहीं इसलिए बेचारा छोटे-मोटे धन्धे करके ही जी पा रहा है। आप लोग सभी धर्म के धन्धेदार हैं, मुझसे बढ़कर रहस्य जानते हैं।” लेखक के अनुसर - “देशकाल के अनुरूप ही धर्म बोध ढलता है; जैसे कबीर ने जिस समय निर्गुण राम का प्रचार किया उस समय कैसा घोर अत्याचार हो रहा था। सारी मूर्तियाँ और मन्दिर ध्वस्त कर दिए गए थे। भद्रसमाज कायर बनकर विजेताओं के तलवे चाटने लगा था और निर्धन, दीन, दुर्बल जन समाज बेचारा, हाहाकार कर उठा था। अनास्था के ऐसे गहन शून्य भरे भारत रूपी महल के खण्डहर में कबीरदास यदि ‘निर्गुनियाँ राम’ का दिया न बारते तो आज उसमें भूत ही भूत समा चुके होते।”

तुलसी कहते हैं - “मैं निर्गुण का विरोध कभी नहीं करता। सगुण-निर्गुण दोनों एक ही ब्रह्म के रूप हैं। वे अकथ अगाध और अनूप हैं। मैं तो केवल उन लोगों का विरोध करता हूँ, जो कबीर साहब के वचनों की आड लेकर समाज की धार्मिक आस्थाओं के निकम्मे आलोचक हैं।”

लेखक तन्त्र मंत्र का खण्डन करता है। जब एक युवक तुलसी से पूछता है कि ‘बटेश्वर मित्र’ आप पर कोई ‘मारन’ प्रयोग करने वाले हैं, वे महान् तान्त्रिक हैं, तो तुलसी बड़ा ही बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर देते हैं - “मारने और जिलाने वाला तो राम है, फिर यह सब तो निरर्थक हैं।”

काशी में चूहों द्वारा महामारी फैलने पर तुलसी, अपने द्वारा स्थापित आखाड़ों में कसरती नौजवान शिष्यों द्वारा, जिन्हें कसरत आदि के कारण रोगाक्रान्त होने का अन्देशा नहीं था, जन समाज की तन मन से सेवा करवाते हैं और शनैः शनैः महामारी समाप्त होने लगती है। यह सेवा ‘धर्म’ का उच्चतम रूप है।  

नागर जी के अनुसार - “तुलसीदास जब ‘सियाराम मय सब जग जानी’  कहते हैं, तो वह धर्मनिरपेक्षता ही बोल रही होती है। कठिनाई ही यही हुई है कि ‘राम’ को सिर्फ हिंदुओं का राम बना दिया गया है।” तभी तो तुलसी जब महामारी से त्राण माँगता है तो केवल हिन्दू के लिए वरन् हिन्दू, मुसलमान जो भी बनारस में बसता है और उस महामारी से संत्रस्त है, उन सबके लिए वह उसी आर्तभाव से प्रार्थना करता है। ‘मानव धर्म’ ही उसका धर्म है।

इसी प्रकार एक बार तुलसी एक भूखे दीन हीन ब्रह्मपातकी चमार को अपने पास शरण देकर अपूर्व पुण्य कृत्य करते हैं। यद्यपि समाज के अज्ञानी व्यक्ति उनके इस सुकृत्य की कटु निन्दा करते हैं लेकिन तुलसी निन्दा की परवाह न करते हुए अपना धर्म पालन करते हैं। आर्त मनुष्यों की सेवा धर्मग्रन्थों के अनुसार तथा लेखक के अनुसार सर्वोच्च धर्म है।

इस प्रकार लेखक ने धर्म के विभिन्न रूपों का चित्रण करते हुए अन्त में सत् कर्म, मानव प्रेम व संस्कारित कर्म को ही सबसे बड़ा धर्म माना है। उसके अनुसार ‘कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है’- वही मोक्ष का साधन है। कर्म का बन्धन ही मनुष्य की कैवल्य प्राप्ति है। जैसाकि ‘अमृत और विष’ में लेखक ने लिखा है - “जड़-चेतनमय,विष-अमृतमय, अन्धकार-पकाशमय, जीवन में न्याय के लिए कर्म करना ही गति है। मुझे जीना होगा, कर्म करना ही होगा। यह बन्धन ही मेरी मुक्ति है।

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