समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन) (रचनाकार - डॉ. दीप्ति गुप्ता)
‘अमृतलाल नागर के उपन्यासों में वर्ण एवं जाति का चित्रण’‘महाकाल’ में लेखक ने चारों वर्णों और विभिन्न जातियों का संकेत करते हुए मानव मन के संकीर्ण जातिगत विचारों पर मानवता जैसे उत्कृष्ट और भव्य भाव की विजय दिखाई है। निम्न जाति वालों की कुण्ठाओं और अन्तर्मन का बड़ा ही सजीव चित्र लेखक ने खींचा है। उपन्यास का एक पात्र है ‘हीरू’ जो जाति का बाग्दी है। जिसके पुरखों ने भी कभी साक्षर बनने का विचार नहीं किया था। जब वह अपने पुत्र गणेश को ब्राह्मण ‘पाँचू’ के स्कूल में शिक्षा हेतु भर्ती कराना चाहता है, तो एक बारगी मानव कल्याण के बारे में विचारने वाला, मानव-मानव में भेद-भाव न करने वाला मास्टर पाँचू का मन भी संस्कारवश डोम बाग्दियों का शिक्षक बनने में संकोचानुभव करता है किन्तु बूढ़े राम दुलाल चक्रवर्ती का कथन है - “छोट जातेर मुखे आगुन। शालार ब्याटा, डोम बाग्दी अब उँच जाति की बराबरी करने चले हैं” ऊँची जाति वाले दुलाल चक्रवर्ती के मुख से निम्न जाति वाले की यह आलोचना सुनकर प्रशिक्षित तथा शहर के राजनीतिक व सामाजिक तत्वों से प्रभावित पाँचू का हृदय छोटी जाति वालों के प्रति सदय हो उठता है। दूसरे हीरू के पुत्र गणेश का भोला मुख व आशाभरी दृष्टि इसे उसके अन्यायपूर्ण निर्णय से रोक देती है तथा पाँचू गणेश को पढ़ने व शिक्षा ग्रहण करने का वैसा ही समान अधिकार और अवसर देता है जैसा कि उच्च जाति वालों को दिया जाता था।
उपन्यास नायक पाँचू जाति से ब्राह्मण है। वास्तव में देखा जाए तो वह जन्म और कर्म दोनों से ही ब्राह्मण हैं। सामाजिक मान्यता यह रही है कि ब्राह्मण जाति, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन सब जातियों से सर्वोच्च व श्रेष्ठ है इसलिए ब्राह्मण व्यक्ति को किसी दूसरी जाति के व्यक्ति द्वारा बनाया हुआ भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि निम्न जाति के स्पर्श से भोजन अपवित्र हो जाता है तथा धोखे से जानबूझकर ब्राह्मण को अपनी झूठन देने वाले, उन्हें भ्रष्ट करने वाले व्यक्ति पाप के भागी होते हैं। ये सामाजिक मान्यताएँ आज भी धर्मान्ध व्यक्तियों के मस्तिष्क और हृदय में ज्यों की त्यों विद्यमान है। ऐसे संकीर्ण विचारों से ग्रस्त समाज में, रहने वाले पाँचू को भी यदा कदा दिखावे के लिए सामाजिक प्राणी होने के नाते उन मान मूल्यों व संकीर्ण विचारधाराओं के आगे झुकना पड़ता है। इसलिए ही जब वह एक बार पाँच सेर चावलों की पोटली अपने भूखे घरवालों के लिए ले जा रहा था, तो रास्ते में मुनीर बढ़ई की लाश को वह भी भावुकतावश सहारा लगाता है, तदनन्तर गड्ढा खोदकर लाश दबा दिए जाने पर पाँचू जब घर की ओर चलने लगता है, तो उसकी चावलों की पोटली को ललचाई दृष्टि से देखने वाला नुरूद्दीन बढ़ई उसके मन में जात-पाँत का भय जगाता हुआ कहता है - “मुर्दे से छुआ अनाज ब्राह्मण होके घर कैसे ले जाओगे मास्टर बाबू, और वह भी मुसलमान का मुर्दा! तुम्हारे तो किसी काम का नहीं रहा!" निःसन्देह धर्म, जाति व उसपर सबसे अधिक प्रतिष्ठा सम्मान समाप्त हो जाने के भय से पाँचू चावलों की पोटली नुरूद्दीन को दे देता है और बाद में अपनी मूर्खता पर पछताता है। पाँचू अनुभव करता है कि यद्यपि आर्थिक रूप से वह मोनाई केवट से बहुत गिरी हुई अवस्था में है किन्तु “ऊँच जाति और नीच जाति की जबर्दस्त गाँठ में बँधे होने के कारण मोनाई उसका आदर करने को बाध्य ही है”13 क्योंकि समाज में छोटी जातियों के मन में यह भय बैठा हुआ है कि एक ब्राह्मण जाति ही ऐसी है, जिसकी सेवा द्वारा बैकुण्ठ प्राप्ति सम्भव है तथा स्वयं को व्यक्ति पापमुक्त कर सकता है। इसी विचार और भय से अभिभूत मोनाई अपनी घर में चावल लेने के लिए टूट पड़ने वाले भुखमरों की हत्याओं के प्रायश्चित हेतु जो प्रेत भोज देता है, तो उसमें केवल ब्राह्मणों को ही निमन्त्रित करता है। लेकिन ब्राह्मण जैसी पवित्र और श्रेष्ठ जाति केवट जैसे शूद्र व्यक्ति के घर भोजन ग्रहण करे, यह भी असम्भव है। िन्तु लेखक ने केवट मोनाई के घर में ब्राह्मणों द्वारा भोजन ग्रहण करने के पक्ष में तर्क देते हुए लिखा है - “जब से भगवान रामचन्द्र का चरणामृत केवटों ने पान किया है, तब से वे पवित्र हो गए हैं।”
समाज द्वारा विकृत वर्ण व्यवस्था में दूसरे आर्थिक स्तरों के कारण जन्में, वर्ग भेद की खाई भी इतनी गहराती जा रही है कि उसे पाटना असम्भव सा प्रतीत होता है। ऊँची जाति वाले प्रत्येक बात में छोटी जाति वाले को गाली देना जैसे अपना धर्म समझते हैं। दयाल जमींदार, मोनाई द्वारा दिए गए प्रेत भोज में भूखे पेट व्यक्तियों के आवश्यकता से अधिक खा लेने के कारण उल्टी कर देने पर, मोनाई पर ही दोषारोपण करते हुए अपनी ईर्ष्या और घृणा इस प्रकार प्रकट करता है - “अरे राम, राम, राम, राम! ये बेचारे सबके सब बीमार पड़ गए। मोनाई ने ऐसा क्या खिला दिया! कहाँ है मोनाई। .... आखिर ठहरा तो केवट का बच्चा! नीच जाति। चार पैसे टेंट में करके चन्द्रमा को छूने चला है।” बेचारे मोनाई के अनुसार वर्ण और जातिगत भेदभाव को देखते हुए, गाँव में पैदा होना और उसपर भी केवट के घर जन्म लेना - सबसे बड़ा अभिशाप है। जिससे लाख सिर पटकने पर भी मोनाई मुक्त नहीं हो पाता। वह इस हीन भावना से अत्यधिक ग्रस्त है। लेखक ने समाज की जड़ में पैठे वर्ण और जाति के घुन का कैसा सटीक चित्र उभारा है। मोनाई अपनी जातिगत हीनता से उबरने के लिए क्या कुछ नहीं करता- “अपना केवटपन किसी हद तक धोने के लिए मोनाई कंठी लेकर वैष्णव बना, लेकिन उससे केवल अपना मन ही बदल पाया। कोई खास फायदा न पहुँचा। गाँव में एक मन्दिर भी बनवा दिया। उसके बाद भी गरीब से गरीब वामन-कायथ के द्वार पर जाकर उसे जमीन पर ही बैठना नसीब हुआ।” जाति बदल लेने पर भी बेचारा मोनाई उच्च जाति वालों के घर उचित सम्मान न प्राप्त कर सका। उसकी मूल जाति उसके व्यक्तित्व में ऐसी घुल मिल गई कि उससे वह मुक्ति न पा सका। तद्हेतु वह अपने पुत्र न्याडा को शिक्षा देने के लिए आतुर है कि सरस्वती देवी की कृपा ही उसका जातिगत अभिशाप धुँधला कर दे और और लड़का बड़ा होकर आफिसर बन ऊँची जाति वालों व पढ़े लिखे लोगों के साथ उठ-बैठ सके।
“सेठ बाँके मल” के सेठ जी संस्कारवश ब्राह्मण को दुःख देकर स्वयं को पाप का भागी बनाने से कतराते हैं। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण जाति सर्वश्रेष्ठ है। अतः पूज्य है। जब उनके मित्र पारसनाथ चौबे, जो जाति के ब्राह्मण हैं, सेठ जी को अँग्रेजी शराब लाने का हुक्म देते हैं, तो बेचारे धर्म संकट में पड़ जाते हैं और सोचते हैं - “एक तरफ तो लाने का पाप और दूसरी ओर जो वहीं ब्राम्हन का रोयाँ दुखा, तो न दीन के रहे, दुनिया के।”
सेठ जी शराब जैसी अपवित्र वस्तु लाना भी नहीं चाहते तथा दूसरी ओर ब्राह्मण मित्र की आत्मा को भी दुःख नहीं देना चाहते।
“बूँद और समुद्र” में लेखक ने अन्तर्जातीय विवाह के उल्लेख द्वारा समाज की रग-रग में समाई संकीर्ण जातिगत भावना का, नई पीढ़ी द्वारा विरोध दिखाया है और दो जातियों के मेल का समर्थन किया है। तारा और उसका पति मिस्टर वर्मा एक ऐसा ही युगल है, जो जाति-पाँति के बन्धनों को तोड़ विवाह सूत्र में बँध गया है। उनके इस साहसिक कदम की प्रशंसा करते हुए राधे श्याम जी कहते हैं - “हमारे वर्मा जी हुए, इन्होंने तो खैर बहुत ही बड़ा बोल्ड स्टेप लिया है, इन्टरकास्ट लव मैरेज की है - जी हाँ। पात्रों का छोटी-छोटी बातों पर जाति-पाँति का उल्लेख करना, संक्रान्तिकालीन समाज के संकीर्ण मनोमस्तिष्क का परिचय देता है। इस उपन्यास का एक पात्र है भभूती सुनार। वह जाति का वैश्य है, उसकी अशिक्षित, किन्तु कुछ-कुछ आधुनिकता की ओर खिंची लडकों की बहुएँ तारावर्मा द्वारा मिसेज सुनार कहलाने में बुरा नहीं समझती। बड़ी बहू का कथन है - “इसमें काहे का बुरा मानना? जो जिसकी जात होगी, कही जायेगी और फिर हम कोई नीच कौम थोडी, वैश्य हैं।” लेखक ने स्थल-स्थल पर इस उपन्यास में युवावर्ग द्वारा पुरातन व जीर्ण-शीर्ण वर्ण एवं जाति सम्बन्धी भावनाओं का विरोध चित्रित कर संकीर्ण एवं विकृत जाति व्यवस्था को उन्मूलित करने का सफल प्रयास किया है।
‘महिपाल’ ब्राह्मण है लेकिन उसकी प्रेमिका क्रिश्चियन है। तारा भी ‘छोटा’ व ‘बड़ी’ से बातचीत करती हुई, जाति-पाँति का विरोध करती हुई कहती है -”अरे बहन ऊँच-नीच की बातें अब कौन मानता है और हम तो भाई, जात-पाँत ही को नहीं मानते।”
“एकदा नैमिषारण्ये” उपन्यास में लेखक ने समाज में रुढ़ रूप में पनपी हुई वर्ण व्यवस्था का चित्रण बड़े गम्भीर चिन्तन के साथ किया है। बुद्धिजीवी वर्ग में प्रायः यह चर्चा का विषय रहा है कि - मनुष्य की वर्ण व जाति उसके जन्म से माननी चाहिए या कर्मो के आधार पर निश्चित करनी चाहिए? उपन्यास पात्र ‘गणपति नाग’, जब नायक ‘सोमाहुति भार्गव’ से सामाजिक रूढ़ एवं वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी प्रश्न करते हैं, तो भार्गव द्वारा लेखक का कैसा अकाट्य तर्क प्रस्तुत हुआ है - “जाति ब्राह्मण हुआ करती राजन, तो अप्सरा पुत्र वशिष्ठ कभी ब्राह्मण न माने जाते। दासी पुत्र कवण और एलूष को क्या हम पूज्य भाव देते हैं। भगवान वेद व्यास मल्लाहिन के गर्भ से जन्में थे और पाराशर चाण्डाली के पुत्र थे। जाति इनमें से एक के भी ब्राह्मणत्व प्राप्त करने में बाधा न बन सकी।” अतः स्पष्ट है कि लेखक वर्ण एवं जाति को जन्मना न मानकर कर्मणा मानता है। नागर जी के अनुसार निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति अपने श्रेष्ठ व सद्कर्मों के आधार पर उच्च जाति वाला हो सकता है तथा उच्चकुल में उत्पन्न ब्राह्मण भी स्वयं के कुकर्मों द्वारा निन्दनीय बना सकता है।
सोमाहुति भार्गव जातियों के समन्वय का समर्थन करते हुए कहते हैं - “हाँ महाराज। अग्निदेव के पुत्रों में भृगु ही अंगिरा और कत्रि से ज्येष्ठ माने गए हैं। उन्हीं भृगुओं की एक शाखा, जो योन द्वीप में जाकर बस गईं, अब आपकी दृष्टि में मलेच्छ है। इनस आततायी रूप से लडने के पक्ष में स्वयं मैं भी हूँ। पर इन स्वबांधवों को पराया कैसे मान लूँ। ......शक और आर्य भी इस प्रकार से दो नहीं, एक हैं। हम अग्निवंशी वस्तुतः सूर्यवंशी आदित्यो के साथ एक ही मूल के हैं। हे गिरागुरु, भविष्य की चिन्ता, अपने वर्तमान बिखराव और भूतकाल के कटु अनुभवों से प्रेरित होकर यह विनम्र भागवत धर्मी आज इन महाशक्तियों को बाँटकर नष्ट करने के पक्ष में नहीं है, वह इन्हें बटोरकर एक पुँज में देखने को लालायित है।”
इस प्रकार विभिन्न जातियों के समन्वय से उत्पन्न एकात्मकता और उस एकात्मकता से उत्पन्न सुख की कल्पना सोमाहुति के देश रक्षक संकल्प को और भी दृढ़ बना देती है। नागर जी स्थान-स्थान पर पुराण वर्णित पात्रों व घटनाओं का परिचय देते हैं। उनके अनुसार भारत में प्राचीनकाल से अनेक जातियाँ अपने विशुद्ध संस्कारों से आवृत होकर भी साथ-साथ रहती थी। उन सब वर्ण जातियों को एक माला के अनेक मुक्ताओं के रूप में एक सूत्र में एकत्र कर देने का कार्य वैदिक काल से ही प्रारम्भ हो गया था। तदनन्तर पुराणों में अनार्य जातियों से सम्बन्धित अनेक लोक कथाओं को एकत्र कर भागवत आदि की रचना हुईं। इस समन्वयात्मक दृष्टिकोण व प्रयत्नों के फलस्वरूप ही अनेक धर्मो जातियों वाला यह विशाल भारत देश एकता के सूत्र में बँध सका - “वे भारत देश के कोने-कोने में इस अतिमिश्रित बहुधर्मी और बहुजातीय समाज को एक महाभावयुक्त देखना चाहते हैं। सनातन संकोच से बँधे जन हृदय को युगानुकूल उसके व्यापक होने के गुण का बोध यदि एक बार करा दिया जाए, तो फिर वह आप ही अपनी स्फूर्ति से संचालित होकर सही दिशा में बढ़ने लगेगा।” इस भाँति गणपतिनाग एक ऐसे राष्ट्र का, एक ऐसे समाज का निर्माण करने को उत्सुक है जिसमें प्राण हो, आत्मा हो। वे हृदयहीन राष्ट्र का निर्माण नहीं करना चाहते।
इस प्रकार इन पात्रों के माध्यम से नागर जी के वर्ण एवं जाति की संकीर्ण मान्यताओं से ऊपर उठे व सब जातियों को एक ही महाजाति के रूप में मानने वाले अति भव्य विचार व्यक्त हुए हैं।
‘मानस हा हंस’ में भी लेखक ने तुलसी कालीन समाज की संकीर्ण वर्ण व्यवस्था का विशद चित्रण किया है। बालक तुलसी चूँकि ब्राह्मण जाति के हैं, अतएव उनकी ‘धर्म माँ’ भिखारिन ‘पार्वती अम्मा’ उनके मुख से अपने को ‘अम्मा’ कहलाने में ही धन्य समझती हैं। यही जाति महात्मय है। पार्वती माँ जाति की कहारिन थी, सो अपने पोषित धर्म पुत्र ‘रामबोला’ द्वारा अम्मा पुकारे जाने से मानों उसके समस्त पापों का निवारण हो जायेगा, ऐसी उसकी धारणा है। वह स्पष्ट कहती है - “ब्राह्मण के बालक हो। हमें अम्मा कहते हो, यही बहुत है। बाकी हमारा नाम भी लिया करो।”
जाति-पाँति का विचार रखने वाला एक दूसरा पात्र ‘पुत्तन महाराज’ बालक रामबोला को पार्वती भिखारिन के संसर्ग के कारण विजातीय व अछूत मानता है। अतः अपने लड़कों को तुलसी के साथ खेलने पर फटकारते हुए कहता है - “फिर ई के साथ खैलै लगे, ऐ! ससुर, नीच जात भिखारी, जिसकी देह से बास आती है उसके साथ ब्राह्मण - छत्री के बेटे खेलते हैं, जो है, सो हजार बार मना किया ससुरों को।” बालक तुलसी पुत्तन महाराज द्वारा अपने पर जातिगत आक्षेप तथा अपमान के कारण कुछ क्रोध दिखाते हुए उनसे कहता है - “हम भी ब्राह्मण के बेटा...” तो पुत्तन महाराज उसपर व्यंग करते हुए कहते हैं - “हाँ हाँ,साले, तू तो बाजपेई है, बाजपेई। हमसे जबान लड़ाता है।” इसके अतिरिक्त जातिगत झगड़ों का भी लेखक ने स्थल-स्थल पर वर्णन किया है। यथा - “हुमायूँ शाह हार गया। मुगल और पठान लोग कल और परसों यहाँ दिन भर एक दूसरे से गुँथे रहे। * * * आजकल किसी बात का ठिकाना नहीं कि कब क्या हो जाये।”27 सिर्फ जातियों का ही नहीं वरन् जातियों की विभिन्न छोटी-छोटी शाखाओं, प्रशाखाओं का भी लेखक ने उल्लेख कर यह संकेत दिया है कि समाज ब्राह्मण जाति में उच्च और निम्न ब्राह्मण के रूप में व्यक्तियों का वर्गीकरण करता था। यह संकेत वर्ण एवं जाति के जटिलतम् रूप का परिचय देता है। ‘मेघा भगत’ के भंडारे का निमन्त्रण देने के लिए आये शिष्य के समक्ष तुलसी के गुरु जी के साले महाराज ब्राह्मण जाति के भेदों की गणना करने लगते हैं - “तुम्हें किस मेल का चाहिए, पहिले यह बताओ। द्रविड़, महाराष्ट्र, पुस्करिया, गुर्जर, गौड़, मैथिल, उड़िया, कन्नौजिया, सारस्वत कौन से मेल का ब्राह्मण जेवावोगे?”
एक बार तुलसी एक दीन हीन ब्रह्मपातकी चमार को अपने घर शरण देते हैं तथा भोजन कराते हैं। निम्न जाति वाले के प्रति तुलसी के इस प्रेम व सेवा भाव को देखकर ब्राह्मण वर्ग भड़क उठता है। कोई उनकी जात-पाँत पर सन्देह करता है, तो कोई उन्हें राजपूत, जुलाहा, ब्राह्मण कहता है। लेकिन तुलसी पर इन सब बातों का कोई प्रभाव नहीं होता। वे जाति-पाँति सबका खण्डन करते हुए मानव को पहले मानव के रूप में देखते हैं। इसलिए ही ब्रह्मपातकी की जाति-पाँति का विचार किए बिना ही वे उसे अपने पास शरण देते हैं। वे समाज के पाखण्डी व्यक्तियों से कहते हैं - “भूख और निराशा की ऐसी स्थिति में तुम जरा अपनी कल्पना करके देखो, सुखदीन। जाति-पाँति, वर्ण-वर्ग आदि सब कुछ अपनी जगह पर ठीक है, पर एक जगह मनुष्य केवल मनुष्य होता है। घर-घर में एक ही राम रमते हैं।
लेखक के अनुसार जो कर्म से अधर्म है, वह ब्राह्मण होते हुए भी दण्ड योग्य है। इसलिए रामचन्द्र जी द्वारा ‘ब्राह्मण रावण’ का वध लेखक न्यायसंगत मानता है क्योंकि रावण असुर धर्मी था।
इस प्रकार नागर जी ने उपन्यास पात्रों के द्वारा वर्ण एवं जाति व्यवस्था के प्रति अपना विशाल एवं उदार दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
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