समाज और संस्कृति के चितेरे : ’अमृतलाल नागर’ - (एक अध्ययन) (रचनाकार - डॉ. दीप्ति गुप्ता)
‘प्रेम’व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य भावनात्मक सम्बन्ध का नाम ही प्रेम है। प्रेम मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार का होता है। ‘बर्टेण्डरसॅल’ के अनुसार “प्रेम जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण बातों में से है और उनके विचार में ऐसी प्रणाली बुरी है, जिसमें इसके स्वतन्त्र विकास में अनावश्यक रूप से बाधा डाली जाती है। प्रेम की उत्कटता की कोई सीमा नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी उत्कट प्रेम का अनुभव करता है। प्रेम के पर्यायवाची अनेक शब्द है यथा -स्नेह, अनुरक्ति, आसक्ति, अनुराग, त्याग आदि। जिनसे प्रेम के विविध रूपों का परिचय मिलता है। व्यक्ति और सृष्टि के मध्य सम्पर्क के तीन महान स्रोत हैं - प्रेम, बच्चे और काम; जिनमें क्रमशः प्रेम सबसे पहले होता है। ‘काम’ इस सृष्टि का मूल कारण माना गया है। हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थों, वेद, उपनिषदों, पुराणादि में ‘काम’ के महत्व पर विस्तार से विवेचना की गई है।
काव्य शास्त्रियों ने तो प्रेम को ‘रति’ को उपाधि दी है। उनके अनुसार शृंगार आदि नौ रस हैं और उनके ही आधार पर उन रसों के नौ स्थायी भाव हैं, जो मानव हृदय में सुप्तावस्था में विद्यमान रहते हैं। नाट्यशास्त्र में ‘भरतमुनि’ ने लिखा है -
“रतिहासश्च शोकश्चक्रोधेत्साहौ भयं तथा।
जुगुप्सा विस्मयश्चैति स्थायिभावाः पर्कीर्तिताः।
अर्थात् रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय तथा निर्वेद ये नौ स्थायी भाव माने गये हैं।
इसी प्रकार ‘रति’ का लक्षण बताते हुए ‘विश्वनाथ’ ने अपने ‘साहित्यदर्पण’ में कहा है कि प्रियपात्र में मन के प्रेम सम्बन्धी भाव का, या मन के अनुकूल होने का नाम ही ‘रति’ है - ‘रतिमनोनुकूलर्थे मनसः प्रवणायितम्’।
निसन्देह स्त्री और पुरुष का परस्पर आकर्षण ही प्रेम का प्रारम्भ है। ‘आदम’ और ‘ईव’ के काल से लेकर आजतक स्त्री और पुरुष के मध्य यह आकर्षण सामान्यतः परिलक्षित होता है। ‘राधाकमल मुखर्जी के अनुसार - “प्रेम भावना का उदय नर और नारी के प्रथम अस्तित्व के साथ ही हुआ। मनुष्य ने स्वभावतः रोमानी भावनाओं व कल्पनाओं से अपनी प्रेम सम्बन्धी भावनाओं को इस प्रकार आवृत किया कि शारीरिक भौतिक प्रेम संस्कृति में परिवर्तित हो गया”। ‘दिनकर जी’ ने प्रेम के महत्व व अद्भुत प्रतिक्रिया को स्वीकार करते हुए अपने प्रसिद्ध काव्य ‘उर्वशी’ की भूमिका में लिखा है - “कामजन्य प्रेरणाओं की व्याप्तियाँ सभ्यता और संस्कृति के भीतर बहुत दूर तक पहुँची है। यदि कोई युवक किसी युवती को प्रशंसा की आँखों से देख ले, तो दूसरे ही दिन से उस युवती के हाव-भाव बदलने लगते हैं।
“काम की ये जो निराकार झंकृतियाँ हैं, वे ही उदात्तीकरण के सूक्ष्म सोपान है। त्वचा स्पर्श के द्वारा सुन्दरता का जो परिचय प्राप्त करती है, वह अधूरा और अपूर्व होता है। पूर्णता पर वह तब पहुँचता है, जब हम सौन्दर्य के निदिध्यासन अथवा समाधि में होते हैं।”
“धर्म, कला और जीवन जो कुछ भी सर्वोकृष्ट है, उसका सौन्दर्य और आकर्षण भी काम में ही बताया गया है।”
“भारतीय दर्शन के अनुसार प्रेम की अन्तः अनुभूति ही सच्चे और स्थायी प्रेम की सूचक है। मानव मन की गहराईयों में अनुभूत प्रेम ही सर्वोत्कृष्ट और महान् होता है। प्रेम का ऐसा आन्तरिक अनुभव नियमित जीवन और संस्कृति द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। तद्हेतु ही भारतीय साहित्य प्रेम की विषयगत भावनाओं पर भी अधिक बल देता आया है, प्रेम के उपकरणों पर नहीं।”
‘एन्साइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड एथिक्स’ में बताया गया है कि “प्रत्येक देश में प्रेम के भावनात्मक पक्ष को ही अधिक उच्च, शुद्ध तथा सुन्दर माना गया है।”
इसी पुस्तक में प्रेम की परिभाषा इस प्रकार दी गई है - “प्रेम का बीज सर्वप्रथम सृष्टि में मानवजीवन के जन्म के साथ-साथ ही प्रस्फुटित हुआ।
भारतीय दर्शन में यह तथ्य स्पष्ट रूपेण वर्णित है। वैदिक मान्यता है कि - “एकोऽहं बहुस्याम्”- सृष्टि के आरम्भ में अकेला होने पर प्रजापति ने संसार रचना की इच्छा से स्वयं को क्रमशः दो भागों में विभक्त किया - स्त्री रूप और पुरुष रूप। तदनन्तर उन दो खण्डों के, रूपों के परस्पर कामेच्छा के मिलन से ही यह संसार अस्तित्व में आया। स्त्री और पुरुष की इसी रागात्मिका प्रवृत्ति को भारतीय धर्म ग्रन्थों ने ‘काम’ की उपाधि दी।
‘ऑर्नाल्ड’ के अनुसार - “प्रेम तभी परिपक्वता को प्राप्त होता है, जब प्रेमी जन एक दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों को, अनेक कष्टों और बाधाओं को झेलकर भी पूर्ण करते हैं”।
भारतीय विचारधार के अनुसार प्रेम और सैक्स दो भिन्न वस्तु हैं। प्रेम में जहाँ भावनात्मक व आत्मिक पक्ष प्रधान होता है,वहाँ सैक्स अथवा काम में शारीरिक पक्ष प्रधान है क्योंकि कामसूत्र में कहा गया है -
स्पर्शविशेषविषयात्वस्याभिमानिक सुखनुबिद्धा।
फलवत्यर्थप्रतीतिः प्रधान्यात्कामः ।।
अर्थात् इस सूत्र में काम की व्यवहारिक व्याख्या करते हुए आचार्य लिखते हैं कि - “चुम्बन, आलिंगन आदि प्रासंगिक सुख के साथ कपोल आदि विशेष, अंगों के स्पर्श से जो आनन्द की प्रतीति होती है, वह काम है। इसी प्रकार 11वें सूत्र में ‘काम’ का लक्षण आचार्य ‘वात्स्यायन’ ने इस प्रकार बताया है -
“श्रोत्रत्वक्वक्षुर्जिह्वाघ्राणानामात्म संयुक्तेन मनसाधिष्ठिताना।
स्वेषु स्वेषु विषये ज्वानुकूलत्यतः प्रवृत्तिः कामः।।
अर्थात् कान, त्वचा, आँख, जिह्वा, नाक इन 5 इन्द्रियों की इच्छानुसार शब्द स्पर्श, रूप, रस और गंध, अपने इन विषयों में प्रवृत्ति ही काम है, अथवा इन इन्द्रियों की प्रवृत्ति से आत्मा जो आनन्दानुभव करती है, उसे काम कहते हैं।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि काम में शारीरिक सुख का प्राबल्य एवं प्राधान्य है, जो क्षणिक होता है। वासना और शारीरिक क्षुधा की तृप्ति कामनापूर्ति होते ही हो जाती है। प्राचीन काल में प्रेम को एक महान् पवित्र आत्मिक अनुभूति के रूप में देखा जाता था लेकिन आज पाश्चात्य प्रभाव के कारण प्रेम और काम को भारतीय नर-नारी भी अभिन्न रूप में देखते हैं। ‘राधाकमल मुखर्जी’ के अनुसार - “प्रेम में स्वच्छन्दता और वासनात्मकता के दर्शन होने लगे हैं, जिसने उसके पूर्व भावनात्मक रूप को समाप्त कर दिया है।”
इसका यह तात्पर्य नहीं कि प्रेम का वह पूर्व पवित्र, महान, भावनात्मक रूप समाप्त ही हो गया गया है। आज भी बहुत से ऐसे युगल परिलक्षित होंगे जो आत्मिक और भावनात्मक प्रेम के ही उपासक है। लेकिन समाज में आज वासनात्मक रूप का ही आधिक्य है। अमृतलाल नागर ने दोनों ही प्रकार के प्रेम व प्रेम पात्रों का चित्रण अपने उपन्यासों में किया है।
‘अमृतलाल नागर के उपन्यासों में प्रेम का चित्रण’–
‘बूँद और समुद्र’ के नायक सज्जन और उसकी प्रेमिका वनकन्या एक दूसरे के उपयुक्त एक ऐसा प्रेमी युगल है, जो परस्पर योग्यता, बुद्धिमत्ता के कारण एक दूसरे से प्रभावित हो, भावनात्मक रूप से प्रेमबद्ध हो जाते है। प्रारम्भ में दोनों एक अच्छे मित्रों के रूप में चित्रित हैं लेकिन शनैः शनैः यही मित्रता घनिष्ठता में परिवर्तित हो प्रेम का रूप ले लेती है। सज्जन और वनकन्या एक दूसरे के बाह्य रूप पर आकर्षित न होकर, हृदय और आत्मा से परस्पर संबंधित अनुभव करते हैं स्वयं को, इसलिए ही आगे चलकर उनका यह प्रेम ‘विवाह’ में परिणत हो जाता है और चिरकाल के लिए वे प्रेम सूत्र में बँध जाते हैं। ‘वैस्टरमार्क’ ने लिखा है कि “निसन्देह बाह्य रूप पर रीझे व्यक्तियों का प्रेम मात्र आसक्ति होता है इसलिए अस्थायी रहता है। जबकि आन्तरिक रूप और गुणों के कारण उत्पन्न प्रेम चिरकालीन व स्थाई होता है।”
लेखक ने सज्जन और वनकन्या का अतिमर्यादित प्रेम और उसका भी भावनात्मक पक्ष ही अधिक चित्रित किया है। क्योंकि वनकन्या आत्मिक प्रेम में विश्वास करने वाली प्रेमिका है, जो सज्जन को अनेक बार मर्यादा उल्लंघन से रोकती है। जबकि सज्जन का पौरुष, उसकी अधीरता, यदा-कदा कन्या के उपदेशों से और भी भड़क उठती है और कामवासना अतृप्त रह जाने पर वह झुंझलाहट से भर उठता है। फिर भी सज्जन अपने को कन्या से आत्मिक रूप से जुड़ा हुआ अनुभव करता है। दोनों ही एक दूसरे को समझते हैं इसलिए कभी कभार मन मुटाव, भावनात्मक व मानसिक तनाव हो जाने पर भी अन्त में दोनों एक हो जाते हैं। यही उनके महान् आदर्श व पवित्र प्रेम का प्रमाण है।
‘बूँद और समुद्र’ में ही एक दूसरा प्रेमी युगल है- महिपाल और डा. शीला स्विंग। यद्यपि दोनों ही परिस्थितियों के दास हैं व सामाजिक बन्धनों और मान्यताओं के समक्ष हार मान जाते हैं, फिर भी एक दूसरे के प्रति आकर्षण को नहीं रोक पाते। महिपाल एक विवाहित मध्यमवर्गीय पुरुष है और डा¬. शीला एक मध्यमवर्गीय क्रिश्चयन परिवार की आत्मनिर्भर नारी है। वास्तव में शीला की ओर महिपाल के आकर्षित होने का कारण है उसके अव्यवस्थित व असफल दाम्पत्य जीवन से उत्पन्न असन्तोष उसकी अशिक्षित, दकियानूसी विचारों वाली पत्नी महिपाल को भावनात्मक रूप से सन्तुष्ट करने में असमर्थ है। इसलिए ही उसका असन्तुष्ट भावुक मन कुशाग्र बुद्धि, शिक्षित, सम्वेदनशील व उसकी लेखनकला का आदर करने वाली शीला के प्रति खिंचता जाता है। वह शीला के साहचर्य में अपूर्व सन्तोष और सुखानुभव करता है। डा. शीला, लेखक महिपाल की प्रेरणा व स्फूर्ति है। डा. शीला भी महिपाल के सम्वेदनशील व्यक्तित्व व स्वभाव तथा उसके गुणों पर रीझी, उसके लिए सच्चे हृदय से समर्पित प्रेमिका है, जो महिपाल को उसकी समस्त दुर्बलताओं सहित प्यार करती है। साथ ही वह महिपाल को अपनी पत्नी के प्रति सदय व सहज होने की प्रेरणा देती है। निसन्देह डा. शीला अपने में एक बहुत ही सुलझी हुई, खुले विचारों वाली, सम्वेदनशील प्रेमिका है, जो एक आदर्श व सच्ची प्रेमिका की भाँति अपने प्रेमी महिपाल के दुःखों व कष्टों को, चिन्ताओं को बाँटने वाली है। उसके जीवन को सुखमय बनाने के लिए व उसके लेखन के प्रति स्फूर्ति और लगन बढाने हेतु प्रतिपल आतुर है। उसका प्रेम निष्कपट और स्थाई है।
लेखक ने वासनात्मकता को व्यभिचारपूर्ण व अनैतिक माना है, क्योंकि यह मानव को पतन के गर्त में गिरा उसकी नैतिकता, स्वाभाविक मानवीय भावों और विचारों को समाप्त प्रायः कर देती है। समाज में बिना विवाह के नर-नारी का कायिक आवश्यकता पूर्ति हेतु शारीरिक सम्बन्ध अनैतिक माना जाता है। तद्हेतु ही विवाह का नियम बनाया गया है। यही मान्यता ‘हैवलौक एलिस’ की है। इस दृष्टि से ‘‘बूँद और समुद्र’ के कवि ‘विरहेश’ और मनिया सुनार की पत्नी ‘बड़ी’ का एक दूसरे के प्रति आकर्षण मात्र वासनात्मक है। दोनों ही कुण्ठाग्रस्त प्रेमी हैं। विरहेश जो मूर्खता की हद तक भावुक व्यक्ति है,वह ‘बड़ी’ को सज्जन के घर आते-जाते सदैव भूखी आँखों से ललचाया हुआ देखा करता है। वासना की भूखी ‘बड़ी’ भी अपने पति मनिया से, जो उसकी दृष्टि में पड़ौसी मि. वर्मा तथा देवर शंकर लाल की तरह आधुनिक नहीं है, उबी हुई है। यही कुण्ठा उसे जकड़े हुए है और इसी छोटे से कारण से अपने दाम्पत्य जीवन से उखड़ी हुई व दूसरी ओर अपनी ही वासना का शिकार हुई ‘बड़ी’ सहज ही विरहेश की ओर आकर्षित हो जाती है। दोनों में ही न कोई गुण, न कोई रुचि, समान है। मात्र एक ‘कामना’ ही समान है - वासनापूर्ति की। अतएव स्पष्ट है कि दोनों का प्रेम मात्र शारीरिक है। ‘बड़ी’ सदैव विरहेश से मिलन के लिए अधीर है और उसी प्रकार विरहेश भी ‘बड़ी’ का दीवाना है। दोनों के प्रेम का ‘बड़ी’ की ननद ‘नन्दो’ द्वारा भांडा फोड़ देने पर पति द्वारा दुत्कारी हुई ‘बड़ी’ विरहेश की शरण पाती है। मिलन होते ही, वासनापूर्ति होते ही दोनों का मधुर स्वप्न समाप्त हो जाता है और अन्त में विरहेश ‘बड़ी’ को वेश्या बना देता है। इस प्रकार ‘बड़ी’ के वासनात्मक प्रेम की परिणति होती है-उसके वेश्या रूम में।
‘शतरंज के मोहरें’ में भी लेखक ने कई प्रेमी युगलों का अत्यन्त रोचक व मार्मिक चित्रण किया है। लखनऊ के नवाब गाजीउद्दीन हैदर के फौजी घोड़ों के साईस रुस्तमअली की पत्नी ‘दुलारी’ जो आयु में छोटी ही है, पति से लम्बे समय के लिए दूर रहने के कारण अपने युवक पड़ौसी नईमुल्ला को प्रेम करने लगती है। नईमुल्ला भी उसे उतने ही सच्चे दृदय से प्रेम करता है। दोनों का प्रेम यद्यपि किशोरावस्था के कारण परिपक्व कम और बाह्य आकर्षण पर अधिक आधारित है, तथापि दोनों ही अपने को एक दूसरे से कहीं न कहीं आत्मिक रूप से जुड़ा हुआ अनुभव करते हैं। इसलिए ही बाद में परिस्थितियों वश अलग हो जाने पर भी दोनों का प्रेम समाप्त नहीं होता। दुलारी समय के साथ-साथ इतनी परिवर्तित होती है और यहाँ तक कि एक दिन अवध की मलिका भी बनती है, लेकिन वह नईमुल्ला को तब भी नहीं भुला पाती। उसके हृदय में उसके जीवन के प्रथम प्यार की स्मृति ज्यों की त्यों बनी रहती है और उसके इस निष्कपट तथा सच्चे प्रेम का प्रमाण तब मिलता है, जब एक बार अचानक नईमुल्ला उसे महल में दिए गए ‘भोज’ में दिखाई पड़ जाता है। उसे देखते ही वह उससे मिलने को आतुर हो उठती है तथा रात्रि के समय एकान्त में जब उससे मिलती है, तो वर्षों का दुःख, विछोह की पीड़ा, नईम के मिलते ही आँसू बन बह निकलती है।
समय व्यतीत होने पर अब यही दुलारी नवाब के दरबार में शरण पाती है तो उसका पुत्र नसीरूदीन दुलारी की खूबसूरती पर रीझ जाता है। नसीरूद्दीन एक कमजोर मस्तिष्क और हृदय वाला व्यक्ति था, जो सदैव किसी का सहारा पाने के लिए इच्छुक रहता। दुलारी के बाह्य रूप पर वह आकर्षित होता है लेकिन दुलारी मात्र अपने मन बहलाव व स्वार्थपूर्ति हेतु उसके समक्ष प्रेम का नाटक करती है। वह तो नसीरूद्दीन को अपनी चाल का मोहरा बना, बेगम के ओहदे को प्राप्त करना चाहती थी। वह अन्त में उसने किया भी। दीन हीन, दुर्बल व्यक्तित्व, नसीरूद्दीन दुलारी का प्रेमाश्रित था। अतः जब उसे दुलारी के स्वार्थपूर्ण प्रेम का पता चलता है तो एकाएक वह उससे विमुख हो जाता है। दोनों के मध्य गहरी दरार पड़ जाती है और तब उसके जीवन में आती है बेगम कुदसिया।
‘शतरंज के मोहरे’ का तीसरा प्रेमी युगल है नसीरूद्दीन और बेगम कुदसिया, जिसका नसीरूद्दीन के प्रति प्रेम निष्कपट था। यद्यपि कुदसिया के प्रेम में नसीरूद्दीन के प्रति एक दया का भाव था लेकिन उसमें अहंभाव न होकर उसके प्रति वफादारी थी। वह वास्तव में नसीरूद्दीन के मन की घुटन दूर करना चाहती थी। वह एक ऐसी सच्ची और आदर्श प्रेमिका थी जो नसीरूद्दीन का दुःख-दर्द दूर करके, उसे उसकी समस्त चिन्ताओं से उबार लेना चाहती थी। अपनी इसी वफादारी, बुद्धिमत्ता व निष्कपटता के कारण वह दुलारी को भी अस्तित्वहीन बना देती है तथा नसीरूद्दीन सहज ही उसकी ओर खिंचता जाता है। लेकिन नसीरूदीन की माँ, दुलारी आदि सभी की ईर्ष्या का केन्द्र बिन्दु बनी कुदसिया, इन सबके द्वारा झूठे आरोप लगाए जाने पर, स्वाभिमानवश आत्महत्या कर बैठती है। उसकी मौत के बाद सच्चाई सामने आने पर, उससे भावनात्मक रूप से सम्बद्ध नसीरूद्दीन विक्षिप्त सा हो जाता है और इस प्रकार यह प्रेम का दुःखमय प्रसंग यहीं समाप्त हो जाता है।
‘सुहाग के नूपुर’ में नायक कोवलन, उसकी प्रेमिका माधवी तथा पत्नी कनंगी के प्रेम का त्रिकोण चित्रित है। कोवलन, नगरवधू माधवी के रूप-सौन्दर्य व नृत्यकला पर मुग्ध, एक उच्च व सम्पन्न व्यापारी कुल का युवक है। यद्यपि वह माधवी के मात्र रूप का ही उपासक नहीं वरन् भावनात्मक रूप से भी उससे सम्बन्धित है किन्तु अपने कुल की मानमर्यादा, समाज के रीति-रिवाजों व मान्यताओं का भी उसे पूर्ण ध्यान है। कुल की मानमर्यादा व प्रतिष्ठा हेतु ही, वह निरन्तर सुहाग नूपुरों की आकांक्षा करने वाली, उससे विवाह की इच्छुक, माधवी से विवाह नहीं कर पाता है तथा नगर के एक अन्य समान उच्च एवं सम्पन्न कुल की पुत्री कनंगी से विवाह कर लेता है। उसका यह कृत्य, उसकी अहंकारिणी प्रेमिका को बुरी तरह भड़का देता है। माधवी यद्यपि कोवलन को सच्चे हृदय से प्रेम करती है, हर तरह से, हर भाव से वह उसे समर्पित भी है लेकिन अपने अहंकार को वह कभी भी, समूल खत्म नहीं कर पाती और यही अहंकार उसे सर्वत्र करारी चोट और पराजय देता है। इसी अहं के कारण वह कोवलन के प्रेमवश निर्बुद्धि सी, कनंगी से ईर्ष्यावश ऐसा आचरण करती है कि शनैः शनैः कोवलन की दृष्टि में गिर जाती है और माधवी के स्थान पर कोवलन को अपनी शान्त स्वभाव की, पति परायणा पत्नी देवी सी नजर आती है। कोवलन का यह रुख देखकर माधवी के दुःख की कोई सीमा नहीं रहती और उसका अहंकार उसे कोवलन से भी बदला लेने, उसे सताने के लिए प्रेरित करता है। वह तरह-तरह से कोवलन और कनंगी दोनों को ही सताती है। दुःखी करती है और अन्ततः उसका अहंकार प्रेम पर इतना हावी हो जाता है कि सुहाग के नूपुर न मिल सकने का दर्द उसे विक्षिप्त बना देता है। यद्यपि माधवी अहंकारिणी थी लेकिन वह कोवलन को हृदय से प्रेम करती थी। इसलिए अपने प्रेमी को पा लेने के लिए, सुहाग के नूपुरों को पा लेने के लिए उसकी छटपटाहट पाठक की सहानुभूति जीत लेती है। दूसरी ओर कोवलन को दो नारियों के मध्य, चक्की के दो पाटों के बीच घुन की तरह पिसता देख, यद्यपि पाठक की दया उसके प्रति उमड़ती है लेकिन बीच-बीच में क्रोध भी भड़क उठता है, यह सोचकर कि ऐसा भी क्या दुर्बल इच्छा शक्ति वाला पुरुष की समाज की रूढ़ियों और मान्यताओं को, प्रेम से अधिक महत्व दे, जिसमें इतना नैतिक बल न हो कि वह समाज के समक्ष, हेय दृष्टि से देखे जाने वाले वर्ग की प्रेमिका को अपनी प्रेयसी व पत्नी रूप में स्वीकार कर सके; ऐसा प्रेमी निसन्देह प्रताड़ना एवं निन्दा योग्य है, जिसका दण्ड वह स्वयं अपनी प्रेमिका के हाथों प्राप्त करता है।
‘अमृत और विष’ के ‘रमेश’ और ‘रानी’ सफल प्रेमी है, जो अन्त में विवाह करके सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं। इन दोनों के परस्पर विवाह द्वारा लेखक अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन करता है। ‘वहीदन’ और ‘लाल साहब’ का भी प्रेम एक हिन्दू मुसलमान का प्रेम है। दोनों अन्तर्जातीय विाह करते हैं। इसके अतिरिक्त अरविन्द शंकर की पुत्री भी एक मुसलमान युवक से प्रेम करती है। जहाँ एक ओर लेखक ने सफल अन्तर्जातीय विवाह का चित्रण किया है, वहाँ दूसरी और भवानी शंकर का विजातीय लड़की के साथ असफल प्रेम का चित्रण भी किया है।
‘सात घूँघट वाला मुखड़ा’ में डाकू शकूर खाँ का पुत्र बशीर खाँ, अपने पिता द्वारा बन्दिनी बनाई सुन्दरी युवती ‘दिलाराम’ से हृदय से प्रेम करता है। भाई के अत्याचारों से घबराकर मेरठ से भागी हुई, मार्ग में माँ से विलग हुईं, परिस्थितियों की ठुकराई हुई ‘मुन्नी उर्फ दिलाराम’ से भी बशीर खाँ के प्रेम की सच्चाई छुप नहीं पाती और वह भी उसे हृदय की गहराईयों से प्रेम करने लगती है। यद्यपि प्रारम्भ में उसका प्रेम साहचर्य जन्य प्रतीत होता है लेकिन शनैः शनैः यह प्रगाढ प्रेम का रूप ले लेता है। इसलिए ही अन्त तक ‘बेगम समरू’ बन जाने पर भी वह बशीर खाँ को सच्चे हृदय से चाहती है, उसके प्रत्येक सुझाव, प्रत्येक शब्द का आदर करती है और मानती है।
इसी दिलाराम उर्फ ‘बेगम समरू’ का बाद में बशीर खाँ द्वारा लाए गए युवक ‘लवसूल’ के प्रति प्रेम मात्र वासनात्मक है। प्रेम यद्यपि आयु नहीं देखता इसलिए बेगम समरू अपने से आयु में बहुत छोटे लवसूल की ओर आकर्षित हो जाती है। लेकिन वास्तव में यह आकर्षण लवसूल के प्रति उसका प्रेम न होकर मात्र भोंडी वासना ही है। लवसूल का भी बेगम के प्रति आकर्षण मात्र सम्मोहन और आसक्ति रूप ही है। तदहेतु यह वासना सम्मोहन और आसक्ति दोनों को ले डूबती है।
‘एकदा नैमिषारण्ये’ की मथुरावासिनी नर्तकी ‘लवणशोभिका’, बसरा निवासी ‘महाश्रेष्ठि कौरोष’ की प्रेमिका है। बसरा महाश्रेष्ठि कौरोष चार-पाँच वर्ष में एक बार भारत आते हैं। कुछ समय तक यहीं रहकर व्यापार द्वारा करोड़ों रुपये अर्जित करके उसे प्रेमिका पर ही लुटा देते हैं। अपनी प्रेमिका के लिए वह लाखों रुपये के रत्नाभूषण और बहुमूल्य उपहार लाते हैं। दोनों के प्रेम में परिपक्वता है, यही उनके प्रेम के स्थायित्व का कारण है।
‘सोमाहुति भार्गव’ और ‘इज्या’ प्रथम परिचय में ही एक दूसरे के प्रति एक ऐसा अद्भुत आकर्षण और लगाव अनुभव करते हैं, जो उन्हें अन्त में अटूट प्रेम सूत्र में बाँध देता है। दोनों के हृदय और आत्माएँ मानों एक हैं। दोनों ही भावनात्मक रूप से परस्पर सम्बद्ध है तथा एक दूसरे के प्रति अत्यधिक सम्वेदनशील हैं। दोनों ही एक दूसरे की भावनाओं का बेहद ख्याल रखते हैं। उनका बाह्य आकर्षण, शारीरिक आसक्ति भी, दोनों के भावनात्मक और आत्मिक प्रेम को और अधिक दृढ़ता व प्रगाढता प्रदान करती है। दोनों ही प्रेमी एक दूसरे को सदकर्म हेतु प्रेरित करते हैं। दोनों सफल प्रेमी है और उस प्रेम की परिणति होती है- दोनों के विवाह रूप में।
काशी के ‘सेठ धनक’ के घर शरण लेने वाले ‘चन्द्रगुप्त’ के प्रति उसकी छोटी ‘सेठानी रम्भा’ का चन्द्रगुप्त के प्रति आकर्षण वासनापूर्ण है क्योंकि सेठ धनक उससे आयु में बड़ा है। वह आयु मं छोटी तथा रूपवती है। स्वाभाविक है कि युवक चन्द्रगुप्त को देखते ही उसकी अतृप्त वासना भड़क उठती है और वह दासी द्वारा तरह-तरह के सन्देश, संकेतों द्वारा भेजती है, जिन्हें चन्द्रगुप्त स्वीकार कर एक बार रात्रि में उसके साथ रमण भी करता है। पत्नी की इच्छा के आगे विवश वृद्ध पति धनक, चन्द्रगुप्त और रम्भा के प्रेम संबंध को बदनामी के भय से स्वीकार कर लेता है। यहाँ तक कि दोनों का मिलन भी धनक की अनुमति और सहमति से होता है।
‘भृगुवत्स’ के ‘शाहगुल’ के प्रति वासनात्मक आकर्षण द्वारा लेखक ने अधेड़ उम्र वाले व ढोंगी पुरुषों की वासना की ओर संकेत किया है। शाहगुल से कामवासना की पूर्ति न हो पाने पर, अन्त में भृगुवत्स उसकी सखी ‘यास्मीन’ को ही अपनी वासना का शिकार बनाता है तथा रंगे हाथों कौरोष और उसके साथियों द्वारा पकड़ा जाता है और तिरस्कृत होता है।
‘मानस का हंस’ में लेखक ने तुलसीदास की एक ‘मोहिनी बाई’ नाम की गायिका के प्रति अनुरक्ति दिखाई है। मोहिनी बाई जन्मना वेश्या है लेकिन कर्मणा एक गायिका है, उच्च कोटि की कलाकार है। उसका सुरीला कण्ठ एक ईश्वरीय देन है। उसका यही सुरीला कण्ठ, उसकी गायनकला ही, तुलसी की उसके प्रति अनुरक्ति का कारण है। यह अनुरक्ति तुलसी की युवावस्था के कारण और भी स्वाभाविक लगती है जैसा कि उपन्यास की भूमिका में लेखक ने लिखा है कि अपने दोहों में ‘तरुणी’ शब्द का प्रयोग तुलसी ने अपनी पत्नी के लिए नहीं वरन् प्रेमिका के लिए ही किया होगा तथा “मृगनयनी के नयनसर, को अस लागि न जाहि” आदि उक्ति भी इसी बात की गवाही देती है कि युवावस्था में तुलसी अवश्यमेव किसी के “तीरे निमकश” से बिंधे होंगे। निसन्देह लेखक की खोज सर्वथा नवीन है तथा प्रमाणिक है जिसकी ओर आज तक किसी का ध्यान नहीं गया। उपर्युक्त पँक्ति तथा अन्य दोहे में प्रयुक्त ‘तरुणी’ शब्द के प्रयोग की महत्ता पर किसी भी बुद्धिजीवी का ध्यान नहीं गया। दूसरे, तुलसी के जीवन में यह प्रसंग इसलिए और स्वाभाविक व प्रमाणिक लगता है क्योंकि यह कैसे सम्भव है कि तुलसी जैसा अनुरागी भक्त अपनी युवावस्था में किसी के प्रेमपाश में आबद्ध न हुआ होगा। प्रेयसी न मिल पाने की पीड़ा की, तडप की उसे क्योंकर अनुभूति न हुई होगी। तभी तो वही प्रेम की पीड़ा, छटपटाहट, कवि के दोहों में उभर-उभर आई है, जिसे भ्रमवश विद्वानों ने उसका पत्नी रत्ना के प्रति लगाव कहकर उसके प्रेम प्रसंग को ही समाप्त कर दिया। यद्यपि तुलसी की मोहिनी के प्रति, एक युवावस्था जन्य आसक्ति मात्र है, जो उसके रुपलावण्य, उससे अधिक उसकी गायन कला से और परिपुष्ट हो जाती है। लेकिन तुलसी इस अनुरक्ति को अपने राम मार्ग में बाधा मानकर उसे त्याग देते हैं। इस प्रकार लेखक ने अन्त में तुलसी की मोहिनी रूपी माया से उबार कर राममय बना दिया। यही लेखक और साथ-साथ उपन्यासनायक तुलसी की जीत और महानता है।
इस प्रकार प्रेम के उत्कृष्ट और निकृष्ट, दोनों ही रूपों का विशद चित्रण हमें नागर जी के उपन्यासों में मिलता है।
<< पीछे : पारिवारिक जीवन आगे : ‘आर्थिक जीवन’ >>